Tuesday, February 23, 2010

चेतन भगत द्वारा सिम्‍बियॉसिस में दिये गये भाषण का अंश

Speech by Chetan Bhagat at Symbiosis ...


Don't just have career or academic goals. Set goals to give you a balanced, successful life. I use the word balanced before successful. Balanced means ensuring your health, relationships , mental peace are all in good order.
There is no point of getting a promotion on the day of your breakup. There is no fun in driving a car if your back hurts. Shopping is not enjoyable if your mind is full of tensions.

"Life is one of those races in nursery school where you have to run with a marble in a spoon kept in your mouth. If the marble falls, there is no point coming first. Same is with life where health and relationships are the marble. Your striving is only worth it if there is harmony in your life. Else, you may achieve the success, but this spark, this feeling of being excited and alive, will start to die.

One thing about nurturing the spark - don't take life seriously. Life is not meant to be taken seriously, as we are really temporary here. We are like a pre-paid card with limited validity. If we are lucky, we may last another 50 years. And 50 years is just 2,500 weekends. Do we really need to get so worked up?

It's ok, bunk a few classes, scoring low in couple of papers, goof up a few interviews, take leave from work, fall in love, little fights with your spouse. We are people, not programmed devices.

"Don't be serious, be sincere."!

Sunday, February 14, 2010

अच्छे मौक़े का इल्म -- मनोज कुमार (वैलेंटाइन डे पर विशेष)

कभी-कभी वक़्त हमसे बहुत आगे निकल जाता है और हम उसे तलाशते रह जाते हैं। आज एक ख़ास दिन है। जब सारे संसार में यह दिन एक विशेष अवसर के रूप में मनाया जा रहा है तो बात तो कुछ ख़ास होगी ही इस दिन में। इस अवसर पर एक कहानी सुनाने का मन कर रहा है। हमने किसी से सुनी थी। आपको सुनाता हूँ।
उस शहर की वह अगर सबसे नहीं तो एक बहुत ही ख़ूबसूरत लड़की तो थी ही। उसका सहपाठी बहुत ग़रीब था। पर दोनों में दोस्ती गहरी थी। सिर्फ़ दोस्ती। 14 फ़रवरी को उस लड़की का जन्म दिन पड़ता था। पिछले साल उसने अपना जन्म दिन उसी ग़रीब दोस्त के साथ मनाया था। एक ढाबे टाइप के रेस्तरां में कुछ मीठा खा कर। फिर वे पैदल अपने घर को लौट रहे थे तो रास्ते में एक गहनों की दूकान के आगे लड़की के क़दम रुक गये। ग़रीब दोस्त ने पूछा क्या हुआ ? तो उस लड़की ने बताया जब भी मैं इस दूकान के आगे से गुज़रती हूँ तो मेरी नज़र बरबस उस गहने पर टिक जाती है। और मैं सोचती हूँ मेरा वैलेंटाइन ... सच्चा प्रेमी .. किसी दिन आयेगा और उस गहने को मुझे पहनायेगा।
दूसरे दिन वह ग़रीब लड़का उस दूकान पर गया और उस गहने की क़ीमत पता किया। क़ीमत उसके बस के बाहर थी। शायद अपने को बेच भी देता तो उसे ख़रीद नहीं पाता!
आज .. एक साल बाद फिर से 14 फरवरी आ गई। वह ग़रीब लड़का हाथ में एक पैकेट लिये हुए घर से निकलता है। रास्ते में एक लाल गुलाब भी ख़रीदता है। और अपनी उस मित्र के घर पहुंचता है। उसकी दोस्त कहीं जाने के लिये तैयार दिखती है। पूछने पर बताती है कि मेरा एक ख़ास दोस्त आने वाला है। वह मुझे होटल ताज ले जा रहा है। मेरा स्पेशल जन्म दिन मनायेगा वह। ग़रीब लड़का वह पैकेट वहीं टेबुल पर रख देता है और हैप्पी बर्थ डे टू यू बोल कर लाल गुलाब छुपाते हुए वहां से निकल आता है। उसे पता भी नहीं चलता कि जब वह निकल रहा था तो कोई भीतर घुस रहा था।
जो भीतर प्रवेश करता है वह शहर के सबसे धनी व्यक्ति का पुत्र है और ख़ुद एक होस्पिटल और ब्लड बैंक का मालिक है। वह अपना क़ीमती तोहफ़ा उस लड़की को प्रज़ेंट करता है। फिर पूछता है वह जो लड़का अभी यहां से गया है वह कौन था और क्यों आया था? लड़की बताती है मेरे साथ पढता है और मुझे बर्थ डे विश करने आया था और यह गिफ़्ट दे गया है। धनी लड़का बोलता है ज़रा खोलो तो देखें क्या है? लड़की पैकेट खोलती है तो उसे पिछले साल का वक़या याद आ जाता है। उसमें वही हार होता है? उसके मुंह से निकलता है इतना क़ीमती हार वह कहां से लाया? इस पर धनी लड़का बोलता है मुझे मलूम है। वह पिछले एक साल से मेरे होस्पिटल में नाइट ड्यूटी कर रहा है... वार्ड की साफ़-सफ़ाई की ... और हर रविवार को अपना ख़ून भी बेचता रहा है। पर उसने पैसे कभी नहीं लिये। हमेशा बोलता था इसे अपने पास ही रखिये। एक ज़रूरी समान ख़रीदना है। अभी कल ही उसने सारे पैसे लिये थे। लगता है इसी गिफ़्ट को ख़रीदने के लिये वह पैसे जमा कर रहा था। लड़की उस ग़रीब लड़के को खोजने बाहर निकलती है पर वह बहुत दूर जा चुका होता है।सच है हमें तब तक किसी अच्छे मौक़े का इल्म नहीं होता जब तक वह हमारे हाथों से निकल नहीं जाता। आप मत निकल जाने दीजिए।
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टिप्‍पणी : बड़े लोग अक्‍सर कहा करते हैं, ध्‍यान से सुनो, इसे याद रखो...... बहुत ही बढ़िया 'वाक़िया' आज के इस अवसर पर आपने याद फर्माया. मेरे लिए भी यह अब ज़हनिशां बन चुका है. बल्‍िक, अपने ब्‍लाग के ज़रिये इसे और भी पाठकों के ज़हन में लाने का यत्‍न करूँगा. यदि वाक़ये में उद्धृत जैसे पात्र वैलेंटाइन डे मनायें तो कोई हर्ज नहीं होना चाहिए बल्‍कि यह दिवस ही ऐसे समर्पित प्रेमियों के लिए है.
इन पर भौगोलिक सीमाएं और सामाजिक बन्‍धन लागू नहीं होते. बढ़िया. अच्‍छे वाकिये और अच्‍छी रचना के लिए बधाई !

होमनिधि शर्मा

Saturday, February 13, 2010

'ब्लेसिंग' लघुकथा , समीक्षा और टिप्‍पणी


ब्लेसिंग 

-- मनोज कुमार

में आई कम-इन सर?
यस कम इन।
गुड मार्निंग सर।
मार्निंग
कैन आई सिट सर?
ओह यस-यस प्लीज ।..................अरे तुम ? अगर तुम अपने ट्रांसफर की बात करने आए हो, तो सॉरी, तुम जा सकते हो।
नहीं सर मैं तो...आपके...........।
देखो तुम जब से इस नौकरी में हो, यहीं, इसी मुख्यालय में ही काम करते रहे हो। तुम्हारे कैरियर के भले के लिए तुम्हें अन्य कार्यालय में भी काम करना चाहिए। और गोविन्दपुर में जो हमारा नया ऑफिस खुला है , उसके लिए हमें एक अनुभवी स्टाफ की आवश्यकता थी। हमें तुमसे बेहतर कोई नहीं लगा।
सर मैं तो इस विषय पर बात ही नहीं करने आया। मैं तो उसी दिन समझ गया था जिस दिन ट्रांसफर ऑर्डर निकला था कि आपने जो भी किया है मेरी भलाई के लिए ही किया है। मैं तो कुछ और ही बात करने आया हूँ।
ओ.के. देन ... बोलो...............।
सर वो,.............थोड़ा लाल बत्ती जला देते । कोई बीच में न आ जाए।
देखो तुम घूम-फिर कर कहीं ट्रांसफर वाली बात तो नहीं करोगे।
नहीं सर। बिल्कुल नहीं। कुछ पर्सनल है सर।
क्या?
सर मेरे पिता जी काफी बूढ़े हो गए हैं। उनकी इच्छा थी कि मैं एक गाड़ी खरीदूँ और उन्हें उस गाड़ी में इस पूरे महानगर में घुमाऊँ।
तो इसमें मैं तुम्हारी क्या मदद कर सकता हूँ ?
सर ! बस आपकी ब्लेसिंग चाहिए। आप तो इसी महीने के अन्त में सेवानिवृत होकर चले जाएंगे। सुना है आपके पास एक गाड़ी है।
हां है तो। वो 80 मॉडल गाड़ी हमेशा गराज में पड़ी रहती है।
सर उसे .....आप ............।
अरे बेवकूफ वो तुम्हारे किस काम आएगी। पिछले चार सालों में उसकी झाड़-पोछ भी नहीं की गई है। उसे तो कोई पांच हजार में भी नहीं खरीदेगा। उससे ज़्यादा तो उसे मुझे अपने होमटाउन ले जाने का भाड़ा लग जाएगा। मैं तो उसे यहीं छोड़................।
सर मैं खरीदूंगा सर। आप बीस हजार में उसे मुझे बेच दीजिए।
पर...................लेकिन .......गराज..........नहीं ...नहीं।
सर। प्जीज सर। नई गाड़ी तो मेरी औकात के बाहर है। कम से कम इससे मैं अपने माता-पिता का सपना उनके प्राण-पेखरू उड़ने के पहले पूरा तो कर लूंगा।
यू आर टू सेंटिमेंटल टूवार्डस योर पैरेंट्स। आई शुड रिस्पेक्ट इट। ओ.के. ... डन। आज से, नहीं-नहीं अभी से गाड़ी तुम्हारी।
थैंक्यू सर।... पर एक प्रॉब्लम है सर।
क्या?
आपकों तो मालूम है कि मैं गाड़ी चलाना ठीक से नहीं जानता। नया-नया सीखा हूं। अब मेरे घर, माधोपुर से तो इस ऑफिस तक का रास्ता बड़ा ठीक-ठाक है, भीड़-भाड़ भी नहीं रहती, किसी तरह आ जाऊंगा। पर सर आप तो जानते ही हैं कि गोविन्दपुर का रास्ता....................... वहां तो शायद मैं इस कार को नहीं ले जा पाऊँगा।
दैट्स ट्रू। ब्लडी दैट एरिया इज भेरी बैड। पूरा रास्ता टूटा-फूटा है। उस पर से भीड़ भाड़, .... यू हैव ए प्वाईंट।...............मिस जुली.......जरा इस्टेब्लिशमेंट के बड़ा बाबू को ट्रांसफर ऑर्डर वाली फाईल के साथ बुलाइए।
थैंक्यू सर। गुड डे सर।
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परशुराम राय जी मूलत: अध्‍यापक का स्‍वभाव रखते हैं और गाहे-बगाहे उन्‍हें यह कार्य करते हुए भी देखा है. आयु और अनुभव के मामले में भी वे मनोज जी और हमसे बड़े और अनुभवी हैं. चर्चा और बातचीत करते हुए किसी भी विषय के हमेशा मूल में जाना और वहॉं से आगे बढ़ना उनका एक स्‍वाभाविक गुण है. इसी कारण वे एक सुलझे हुए होमियोपैथ चिकित्‍सक भी हैं जो उन्‍होंने अपने स्‍वाध्‍याय से सीखकर आर्डिनेन्‍स फैक्‍ट्री, मेदक, आन्‍ध्र-प्रदेश में लगभग 20 वर्षों तक मुफ्त चिकित्‍सा सेवा की. सामान्‍यत: हम किसी डॉक्‍टर, वकील आदि पेशेवर व्‍यक्‍ितयों के पास जाते हैं तो पहले यह पता कर लेते हैं कि क्‍या वह अपने काम आयेगा अथवा नहीं. लघुकथा पर की गयी टिप्‍पणी पर भी अपनी बात करने से पहले मुझे यह आवश्‍यक लगा कि समीक्षक को थोड़ा जान-पहचान लें तो उनके द्वारा की गई समीक्षा की मौलिकता, मान्‍यता और प्रामाणिकता का महत्‍व ज्‍यादा सहजता से स्‍वीकार्य और ग्राह्य हो पायेगा.
मैंने मूल कथा और समीक्षा दोनों ही पढ़ीं. मेरे विचार से किसी भी रचना की अच्‍छी समीक्षा वही हो सकती है जिसमें पाठक और समीक्षक को लगभग एक समान प्रतीती होती है. ऐसा ही कुछ राय साहब की समीक्षा पढ़कर लगा. बिल्‍कुल एक चिकित्‍सक की भॉंती या डाक्‍टरी ज़बान में कहूँ तो बड़ी क्‍लिनिकल एनालिसिस इस लघुकथा की राय साहब ने की है. इस टिप्‍पणी के माध्‍यम से मनोज कुमार जी को एक कथाकार के रूप में और राय साहब को एक समीक्षक के रूप में उभर कर आने के लिए बधाई प्रेषित करता हूँ. आए दिन कुछ-न-कुछ पढ़ना होता ही रहता है लेकिन जो ईमानदार प्रयास गंभीरतापूर्वक इस माध्‍यम से किया जा रहा है वह तहेदिल से बधाई का हक़दार है.
जहॉं तक लघुकथा को परिभाषित करने का प्रश्‍न है यह 'लघुकथा' नामकरण से ही जाहीर हो जाता है जैसे फिल्‍म और लघुफिल्‍म. याने कथा मगर छोटी. सामान्‍यत: कथा नाम से रामायण जैसी लंबी कथा का आभास होता है. अत: कहानी के अंग धारण कर संक्षेप में कथा कहना लघुकथा कहा जा सकता है.

मेरी दृष्‍िट में कहानी शब्‍द 'कहना' से बना है जबकि कथ से कथित और कथन तथा कथा. अत: दोनों की आब्‍जेक्‍टिविटी में अंतर ज्ञात पड़ता है. कथन में कोई पहले से कही हुई बात कथा के ज़रिये संदेश के रूप में साबित होती हुई नज़र आती है तो कहानी में घटनाएं विषयानुसार या कथानक अनुसार एक क्रमागत रूप में कही जाती हैं, और इनके बहाने कोई सीख सामने आती है. समीक्षित लघुकथा में भी 'ब्‍लेसिंग' शीर्षक से ही बिना पूरी कथा पढ़े यह बात समझ में आ जाती है कि कहानी का अंत इसी के असर को साबित करेगा कि 'ब्‍लेसिंग' ही इस कथा के मूल केन्‍द्र में है जो अंत में सिद्ध होता है.

कुल मिलाकर मेरी ऐसी प्रतीती है.

पुन: एक बार इस ब्‍लाग के प्रत्‍येक सदस्‍य को बधाई और शुभकामनाएं.


होमनिधि शर्मा