Wednesday, November 13, 2013

सचिन - छोटे कद के महान खिलाड़ी के विदाई की घोषणा

संभवत: भारत के खेल इतिहास में किसी खिलाड़ी के सन्‍यास को लेकर इतनी अटकलें और बहसें नहीं हुई होंगी जितनी पिछले दिनों सचिन के क्रिकेट से सन्‍यास को लेकर हुईं. लंबे समय से इलेक्‍ट्रानिक और प्रिंट मीडिया के लिए खेल जगत की शायद यही सबसे बड़ी और सबसे तेज़ दिखायी जाने वाली ब्रेकिंग न्‍यूज़ बची रह गयी थी. आखिरकार दस अक्‍तूबर को सचिन ने सारी अटकलों को तोड़ते हुए वेस्‍टइंडिज के खिलाफ़ उनके द्वारा खेले जाने वाले दोसौवें टेस्‍ट के बाद क्रिकेट को अलविदा कहने की घोषणा कर दी.

चौबीस सालों के लंबे क्रिकेट कैरियर में सचिन ने क्रिकेट को जिस तहर जिया वह खेलों में एक अद्भुत और गैर-मामूली मिसाल है. भारत के क्रिकेट इतिहास में बल्‍कि सभी तरह के खेलों के भारतीय इतिहास पर नज़र डालें तो मिल्‍खा सिंह, कपिलदेव और सचिन जैसे बहुत कम खिलाड़ी याद आएंगे जिनकी जिन्‍दगी खेल साधना का आईना बन गई हो.

सचिन की जी तोड़ मेहनत, लगन और खेलते रहने की दीवानगी के हद तक की भूख ने उन्‍हें खेल के भगवान का दर्जा दिलाया जो संभवत: किसी भी खिलाड़ी के लिए किसी भी हासिल ईनाम से बड़ी उपलब्‍धि है.

सचिन सन् 1989 मे भारतीय टीम में चुने गये. यह दशक भारतीय क्रिकेट के रि-स्‍ट्रक्‍चरिंग का दौर था. प्रसन्‍ना, बेदी, करसन घावरी, रोजर बिन्‍नी, मदनलाल, दिलीप दोषी, वेंकट राघवन जैसे गेंदबाजों के बाद कपिलदेव को छोड़कर कोई अन्‍य विकेटलेवा और घातक गेंदबाज टीम में नहीं था. चेतन शर्मा, मनोज प्रभाकर तथा बाद में श्रीनाथ और वेंकटेश प्रसाद जैसे गेंदबाज कुछ सालों के लिए अवश्‍य टीम को सहारा देते रहे पर ये सभी उस तरह घातक और आतंकित करने वाले नहीं रहे जैसे पाकिस्‍तान के इमरान खान, वसीम अकरम, वक़ार युनूस, अब्‍दुल क़ादिर, आक़िब जावेद, आस्‍ट्रेलिया के क्रेग मेकडरमट, ब्रूस रीड, ग्‍लेन मेकग्राथ, शेन वार्न, ब्रेट ली, वेस्‍ट इंडिज के कर्टनी वाल्‍श, ऐम्‍ब्रूस, पैट्रीक पीटरसन, इयान बिशप, साउथ अफ्रिका के एलन डोनाल्‍ड, शॉन पोलाक, डेल स्‍टेन, इंग्‍लैण्‍ड के क्रिस लिविस, डेरन गाफ, क्रेग व्‍हाइट, अलन मुलाली, डेविड मैलकम, स्‍टीव हार्मिसन, जेम्‍स ऐंडरसन, फि्लंटाफ, न्‍यूज़ीलैण्‍ड के डैनी मॉरिसन, शेन बाण्‍ड या श्रीलंका के चमिण्‍डा वास, मुथैया मुरलीधरन आदि रहे.  

वास्‍तव में किसी भी बल्‍लेबाज को बड़ा और महान बनाने में हमेशा उसके समकालीन अन्‍य देशों के गेंदबाजों की उपस्‍थिति, उनके साथ प्रतिस्‍पर्धा और रस्‍साकशी बहुत मायने रखती है. अपनी-अपनी टीमों के लिए जी-जीन से सभी खेलते हैं पर जो बड़े खिलाड़ी होते हैं उनके बीच अपने हुनर और कला की एक अलग ही प्रतिस्‍पर्धा, वार-प्रहार की करारी जुगलबन्‍दी की बानगी देखने को मिलती है. विव रिचर्ड्स, सुनील गावस्‍कर, बॉयकाट, ज़हीर अब्‍बास, गार्डन ग्रिनीज, डेसमेंड हेयन्‍स, ग्रेग चैपल, एलन बार्डर, ग्राहम गूच आदि कई ऐसे बल्‍लेबाज हुए हैं जिन्‍हें अपने समय में दुनिया के बेहतरीन गेंदबाजों के खिलाफ खेलकर इन अद्भुत और यादगार पलों को रचने का मौका मिला. संभवत: इन सबकी ख्‍याति के पीछे यह भी एक बहुत बड़ा कारण है.

सचिन के पूरे टेस्‍ट, वन डे कैरियर और इस दौरान भारत की गेंदबाजी की ताक़त देखें तो कोई ऐसा तेज़ गेंदबाज याद नहीं आता जिसका क्रिकेट जगत में आतंक रहा हो. ऐसे में सचिन के लिए यह हमेशा चुनौती रही कि वह पाकिस्‍तान, इंगलैण्‍ड, आस्‍ट्रेलिया और साउथ अफ्रिका की हरी घास से सजी तेज़ पीचों पर दुनिया के इन नामी-गिरामी गेंदबाजों का सामना कर रन बनाए और टीम को जीत दिलाने में योगदान दे. दूसरा, हमारे देश की पीचें तेज गेंदबाजी के लिए बेजान और मुर्दा मानी जाती थी. न तेज पीचें न तेज़ गेंदबाज. बॉलिंग मशीन भी देश में बहुत बाद में आयी. ऐसे में सचिन के पास सिर्फ एक ही मौका होता था टेस्‍ट या वनडे में सीधे दुनिया की तेज़ और कलात्‍मक स्‍पिन गेंदबाजी का सामना. जैसे आग में कूदकर ही आग से लड़ा और बचा जा सकता है, ठीक उसी तरह सचिन के सामने हमेशा हर इनिंग्‍स में यही स्‍थिति होती थी. पॉंच फुट पॉंच इंच के इस टेंडलिया ने इंगलैण्‍ड, आस्‍ट्रेलिया और साउथ अफ्रिका के मैदानों पर तेज़ तर्रार अपनी ओर उठती गेंदों पर जो बैकफुट पंच और फ्रण्‍ट फुट पर कवर ड्राइव खेले हैं वे उनकी बेक़रार ऑंखों, मचलते हाथों और बल्‍ले से गेंद को आक्रामकता व नज़ाकत से मिलाने के अटूट हौसले का कमाल है. विवियन रिचर्डस की हर देश, मैदान और गेंदबाज के खिलाफ की गई बेजोड़ और क़रारी कलात्‍मकता भरी दबंग बल्‍लेबाजी के बाद केवल सचिन की ही ऐसी बल्‍लेबाजी रही है जो हमें बार-बार देखने पर मजबूर करती है. यदि सचिन के समकालीन कोई इस शोहरत का हिस्‍सेदार हो सकता है तो वे वेस्‍टइंडिज के ब्राइन लारा हैं.

खेल और फिल्‍मों में किसी के आग़ाज का बहुत महत्‍व है. जिस समय सचिन को मौका मिला उस समय पाकिस्‍तान, आस्‍ट्रेलिया और इंगलैण्‍ड की टीमें जैसे हमें बोल-बोलकर हराने का दम भरती थीं. और, अक्‍सर हमारी टीम इनसे जूझकर हार भी जाती थी. शारजाह क्रिकेट का वह दौर शायद हम कभी नहीं भूल सकते. बार-बार हार और मानसिक दबाव के चलते हमेशा खुलकर आक्रामक क्रिकेट खेलना हमारी टीम के लिए संभव नहीं हो पाता था. दबाव में बिखर जाना एक आदत सी बन गयी थी. ऐसे में कपिलदेव द्वारा पाकिस्‍तान के खिलाफ डबल विकेट कांपिटिशन में अपने साथ सचिन को लेकर खेलना यह सचिन के जीवन का एक अद्भुत और यादगार लम्‍हा था. सचिन जैसे इसी के लिए बेक़रार थे. 16 साल से कम उम्र में उन्‍होंने इस कांपिटिशन में जिस तहर अब्‍दुल क़ादिर को तीन छक्‍के रसीदकर जीत दिलायी उनके इस कमाल ने पूरे क्रिकेट जगत को हैरान कर रख दिया था. इन छक्‍कों की गूँज ने पहली बार इमरान खान और उनकी पूरी टीम को सकते में डाल दिया था. फिर क्‍या था जैसे सचिन को इस जीत के बाद दुनिया के गेंदबाजों को धुनकने का लाइसेंस टू किल मिल गया था.   

सचिन की बढ़ती शोहरत ने दुनिया की सभी टीमों को उनका तोड़ लाने पर मजबूर कर दिया. पाकिस्‍तान ने कुटिलता दिखाते हुए शाहिद अफ़रिदी को उनसे कम उम्र का ज्‍यादा आक्रामक बल्‍लेबाज और इंजमाम उल हक को उनकी टक्‍कर का बनाकर उतारा. इधर आस्‍ट्रेलिया में एलन बार्डर के बाद स्‍टीव वॉ ने पांटिंग, माइकल बेवन, डरेन लिहमैन को उतारा. इसी तरह ग्‍लेन मेकग्राथ्‍, ब्रेट ली, शेन वार्न, सकलेन मुश्‍ताक, मुरलीधरन तो कई नयी गेंदें सचिन के लिए ईजाद कर लाये तो जवाब में सचिन ने एक नये शार्ट पैडल स्‍वीप को शेन वार्न और मुथैया मुरलीधरन की स्‍पिन के साथ और खिलाफ खेलने का हथियार बनाया. शारजाह में आस्‍ट्रेलिया के खिलाफ धूल भरी ऑधी में लगाये उनके दो शतक, चेन्‍नई में शेन वार्न के खिलाफ और प्रेमदासा स्‍टेडियम में मुरलीधरन के खिलाफ खेली गई उनकी पारियॉं हम शायद ही कभी भूल पायेंगे.    

सचिन के कैरियर का आधे से ज्‍यादा समय ऐसा रहा जब भारतीय टीम में विदेशी पिचों पर बैटिंग कर टेस्‍ट में बीस विकेट लेकर विपक्षी टीमों को हराने की क्षमता नहीं थी. गावस्‍कर के जाने के बाद सलामी बल्‍लेबाजी जोड़ी कई सालों तक नहीं बन पायी. तीसरे नंबर पर खेलने वाला कोई टिकाऊ खिलाड़ी नहीं था. मिडिल आर्डर में अज़रूद्दीन ही केवल भरोसेमंद खिलाड़ी थे. कई बार तो ऐसा भी हुआ कि मनोज प्रभाकर और विकेट कीपर नयन मोंगिया को टीम की ओपनिंग करनी पड़ी. श्रीकांत, नवजोत सिंह सिद्धू, विनोद कांबली, अजय जडेजा, रॉबिन सिंह आदि कई बल्‍लेबाज आए पर वे भी सहारे तक ही सीमित रहे. ओपनर, फास्‍ट बाउलर और आल राउण्‍डर हमेशा से हमारे टीम की कमी रही है. ऐसे में सचिन के लिए चुनौती दुगनी कड़ी थी कि अपने साथ-साथ दूसरे बल्‍लेबाजों से नहीं बने रन भी बनाओ और टीम को जीताओ. सचिन ने अधिकतर अवसरों पर यह कर दिखाया. उनके महान होने का यह दूसरा बड़ा कारण था. इसी एक बड़े कारण से अंदाजन अबसे 8-10 साल पहले तक सचिन के आउट हो जाने के बाद लोग टी वी देखना बंद कर देते थे और विरोधी टीम अधिकतर जीत जाती थी. याद होगा जब सचिन ने अकेले दम पर वसीम अकरम और उनके गेंदबाजों के खिलाफ कलकत्‍ता टेस्‍ट मैच को जीत की दहलीज पर ला दिया था. 17 रन बनाने थे और चार विकेट शेष थे. वसीम अकरम और उनकी हार के बीच केवल सचिन खड़े थे. पर वसीम ने अपने करिश्‍मे से सचिन को आउटकर हमारी टीम को तत्‍क्षण निपटाया और अपनी हार को जीत में बदल दिया. शायद वसीम के लिए इससे बड़ी जीत उनके पूरे कैरियर में न रही हो. अंदाज लगाया जा सकता है कि सचिन का कितना आतंक दूसरी टीमों पर बन गया था. और ये किसी अजूबे से कम नहीं कि उन्‍होंने इतने लंबे समय तक किस ध्‍यान और फोकस से अपनी बल्‍लेबाजी को बनाये रखा. इन चौबीस सालों में समय ने भी उनकी हर पल परीक्षा ली. कभी उन्‍हें पंजे की ऊँगलियों में तो कभी टेनिस एल्‍बो और तो कभी कंधे की चोट ने परेशान कर उनके उत्‍साह और जज्‍़बे को तोड़ने की कोशिश की. पर, उनकी घोर साहसी साधना के आगे ये सब टिक नहीं सके.

उनके इसी जुझारूपन और विपत्‍तियों में कुछ कर दिखाने की क्षमता ने देश और दुनिया को अपना दीवाना बना दिया. क्रिकेट कभी देश में इतने बड़े पैमाने पर आगे नहीं बड़ा जितना सचिन के समय में हुआ है. आज के लगभग सभी बड़े-छोटे खिलाड़ी सचिन को अपना आदर्श मानते हैं. हर छोटे-बड़े की चाहत सचिन बनने की है. अपनी अनवरत साधना से सचिन ने जिस तरह हर क्रिकेट फार्मेट को मिलाकर पचास हजार रनों का अंबार लगाया है वह आने वाले लंबे समय तक अजीत लक्ष्‍य के रूप में बल्‍लेबाजों के लिए बना रहेगा. उनकी एक और जो खास बात रही है कि उन्‍होंने कभी शोहरत और ज़बान को अपनी साधना, लक्ष्‍य और काम के आड़े आने नहीं दिया.

सचिन क्रिकेट की एक महागाथा है जो हर खेल और खिलाड़ी के लिए शास्‍त्र व शस्‍त्र दोनों ही हैं. उनकी खेल से  विदाई पर यही कहा जा सकता है कि

जीत ही उनको मिली जो हार से जमकर लड़े हैं,
हार के डर से डिगे जो, वो धराशायी पड़े हैं,
हर सफलता संकल्‍प के पद पूजते देखी गयी है
वो किनारे ही बचे जो सिन्‍धु को बॉंधे खड़े हैं


----- होमनिधि शर्मा  

Wednesday, October 9, 2013

हैदराबाद के सार्वजनिक उद्यम और हिन्‍दी


भारत में सार्वजनिक उद्यमों की स्‍थापना देश में विभिन्‍न क्षेत्रों में तकनीकी विकास और उत्‍पादन क्षेत्रों में आत्‍म-निर्भरता हासिल करने के उद्देश्‍य से की गई थी. पं. जवाहर लाल नेहरू ने इन उद्यमों को भारत के आधुनिक मंदिर कहा था. 1948 में स्‍थापित देश के पहले उद्यम इंडियन टेलिफोन इंडस्‍ट्री से लेकर अब तक देश में 250 से अधिक छोटे-बड़े उद्यम किसी न किसी खास क्षेत्र और कामकाज से जुड़े हैं. ये अलग बात हो सकती है कि आज के हालात में ये कारोबारी स्‍तर पर कितने मजबूत और कामयाब हैं.

स्‍थापनाओं के बाद से उद्येश्‍य अनुसार इन उद्यमों में कामकाज फलता-फूलता गया और देश को कई क्षेत्रों में अप्रत्‍याशित लाभ भी मिला. विशेषकर टेलिफोन सेक्‍टर, ऑयल, पॉवर, कोयला, एवियेशन, भारी इलेक्‍ट्रीकल्‍स, इलेक्‍ट्रानिक्‍स, रक्षा, इंश्‍योरेंस क्षेत्रों आदि में काफी प्रगति, विकास और विस्‍तार देखने में आया.

राजभाषा कार्यान्‍वयन की दृष्‍टि से केन्‍द्र सरकार के मंत्रालय, संबद्ध और अधीनस्‍थ कार्यालयों के बाद सन् 70 के दशक से इन उद्यमों में भारत सरकार की राजभाषा नीति अनुसार इसके कार्यान्‍वयन के लिए राजभाषा अधिकारी, अनुवादकों और स्‍टाफ की भर्ती के प्रावधान बने और इन पर विशेष ध्‍यान दिया जाने लगा. सन् 1988 में जारी राष्‍ट्रपति आदेशों में उपक्रमों आदि में अनुवाद व प्रशिक्षण की व्‍यवस्‍था और हिन्‍दी पदों की भर्ती के प्रावधान किये गये जिससे इस कार्य में और गंभीरता आयी.

सरकार की राजभाषा नीति अनुसार केन्‍द्र सरकार याने मंत्रालय, संबद्ध एवं अधीनस्‍थ कार्यालय, सार्वजनिक उद्यम व राष्‍ट्रीयकृत बैंकों तथा स्‍वायत्‍त संगठनों में प्रशासनिक व तकनीकी प्रकृति का दैनिक कामकाज हिन्‍दी में किया जाना अनिवार्य है. परन्‍तु इसके लिए आवश्‍यक और अनिवार्य है कि ऐसे कार्यालयों में काम करने वाले अधिकारी व कर्मचारी हिन्‍दी का समुचित ज्ञान रखते हों. जबकि, देश में मोटे तौर पर देखें तो सब जगह हिन्‍दी के ज्ञान की स्‍थिति एक समान नहीं है. अत: इस दृष्‍टि से सन् 1974 से सार्वजनिक उद्यमों के तकनीकी और प्रशासनिक कर्मचारियों के लिए पात्रता अनुसार राजभाषा विभाग के अंतर्गत हिन्‍दी  भाषा का प्रशिक्षण विशेष पाठ्यक्रम बनाकर आरंभ्‍ किया गया. इसी क्रम में हिन्‍दी   टाइपिंग और हिन्‍दी आशुलिपि प्रशिक्षण भी अनिवार्य कर दिये गये. इसके बाद सन् 1976 में जारी राजभाषा नियमावली में सरकारी कर्मचारियों में हिन्‍दी के कार्यसाधक ज्ञान और प्रवीणता रखने वालों को विशेष रूप से परिभाषित किया गया. इन नियमों के अधीन कार्यालय प्रमुख को हिन्‍दी के कामकाज के लिए जिम्‍मेदार बनाया गया तथा इन्‍हीं नियमों के तहत आगे, देश को हिन्‍दी के भाषायी ज्ञान के आधार पर क्षेत्र (दिल्‍ली, यूपी, एम पी, हरियाणा, राजस्‍थान, हिमाचल प्रदेश, अंडमान निकोबार द्विप समूह) (पंजाब, चंडीगढ़, महाराष्‍ट्र एवं गुजरात) तथा क्षेत्र (इनके अतिरिक्‍त सभी राज्‍य या मोटे तौर पर दक्षिण तथा दक्षिण-पूर्वी भारत) में बॉंटा गया. आज इसी आधार पर सरकार हिन्‍दी के कामकाज के अलग-अलग लक्ष्‍य तय करती है और इसकी प्रगति का मूल्‍यांकन करती है.

इसके बाद सन् 1976 में संसदीय राजभाषा समिति के गठन पश्‍चात समय-समय पर किये गये निरीक्षण और इनकी सिफारिशों पर जारी राष्‍ट्रपति आदेशों से सभी उद्यमों में राजभाषा कार्यान्‍वयन तेजी से आगे बढ़ने लगा.

लगभग चार दशकों से भी अधिक समय से देश के सभी उद्यमों में राजभाषा कार्यान्‍वयन कार्य जारी है. जब तक कि असाधारण न हो, सामान्‍यत: सौओं-हजारों कर्मचारियों के कार्यालयों में किसी एकाध-दो अधिकारी या कर्मचारी के कामकाज को रेखांकित कर पाना बहुत मुश्‍किल होता है. हिन्‍दी अधिकारी और स्‍टाफ के संबंध में ये और भी दुष्‍कर बात है. विशेषकर, जब आन्‍ध्र-प्रदेश या देश के क्षेत्र के अंतर्गत आने वाले कार्यालयों में हिन्‍दी में सरकारी काम कराना हो और जहॉं सामान्‍य तौर पर कर्मचारीवर्ग में अन्‍यान्‍य कारणों से हिन्‍दी थोपे जाने और इसके प्रति विरोध की भावना हो, ऊपर से असहयोग व साधनों की कमी हो तो यह बहाव के विपरित बहने का काम बन जाता है. इस क्षेत्र में काम कराने से अधिक पहले खुद के लिए जगह बनाने और हिन्‍दी की स्‍वीकार्यता लाने में दस गुनी मेहनत करनी पड़ती है. यदि कोई राजभाषाकर्मी एक लंबा समय बिता भी ले तो उसे रोजाना इस अहसास से गुजरना ही पड़ता है. खैर, इन सब के होते हुए भी काम अनेक, हिन्‍दी अधिकारी एक की स्‍थिति को देखते हुए कहा जा सकता है कि इन उद्यमों में स्‍थापित राजभाषा विभाग, अनुभाग और यहॉं के राजभाषाकर्मियों ने अकेले दम पर हिन्‍दी के कामकाज को पहचान दिलाने में प्रशंसनीय व असाधारण भूमिका निभायी है.

यदि इस क्षेत्र में हिन्‍दी और हैदराबाद के राजभाषाकर्मी कुछ हद तक भी सफल हो पाये हैं तो इसका श्रेय पुराने समय की हमारी स्‍कूली, कॉलेज और विश्‍वविद्यालयों की आधारभूत भाषायी और अन्‍य विषयक शिक्षा, खुद के लिए और विकासशील देश के प्रति कुछ करने की भावना को जाता है. ऐसे माहोल से निकल हैदराबाद और इसके आस-पास के क्षेत्रों के छात्र संसदीय सचिवालय की अनुवाद सेवा सहित देशभर के कार्यालयों में नियुक्‍त हुए. इन राजभाषा अधिकारी और साथी स्‍टाफ सदस्‍यों ने अकेले दम पर कार्यालयों के असहयोगी माहोल, साधन-सुविधाओं के अभाव में कार्यालय के आकार-प्रकार को दरकिनार कर अपनी लगन और मेहनत से हिन्‍दी की एक खास जगह और पहचान बनाने में कामयाबी हासिल की. खासकर देश के लिए नीतिगत और सामरिक दृष्‍टि से महत्‍वपूर्ण हैदराबाद शहर में हिन्‍दी के कामकाज में देश के अन्‍य शहरों के मुकाबले विशेषकर दक्षिण भारतीय राज्‍यों में एक लीड बना ली. इसमें 80 के दशक में सिकंदराबाद स्‍थित केन्‍द्र सरकार के कार्यालय दक्षिण मध्‍य रेल्‍वे ने अग्रणी भूमिका निभायी. आम-आदमी से जुड़े रेल्‍वे के कामकाज ने शहर में रेल टिकट बाद इनका कंप्‍यूटरीकरण, सभी जन-सामान्‍य सूचनाएं, जगह-जगह हिन्‍दी में स्‍टेशनों के नाम शहर से गॉंव तक पहुँचने लगे. आम जन में अंग्रेजी की जगह हिन्‍दी में घोषणाएं, सूचनाएं जारी की जाने लगी थीं जिन्‍हें लोग अधिक पढ़ा-सुना करते थे. इस विभाग में आंतरिक कामकाज भी हिन्‍दी में होने लगा था. इस दौरान विशेषकर तकनीकी सामग्री और शब्‍दावली का अनुवाद तेजी से हुआ. हिन्‍दी की वजह से ही लोगों में केन्‍द्र सरकार कार्यालयों की एक खास पहचान बनी. आम आदमी के लिए यदि किसी कार्यालय का नाम, वहॉं के विभाग-अनुभागों के नाम और अधिकारियों का विवरण पहले हिन्‍दी और बाद में अंग्रेजी में लिखा हो तो यह केन्‍द्र सरकार के कार्यालय होने की पहचान बन गयी थी. आम आदमी अपने कामकाज के लिए अंग्रेजी की जगह यहॉं की बोल-चाल की हिन्‍दी और प्रांतीय भाषा का प्रयोग कर अपने कामकाज निपटाने लगा था. आम जनता और कर्मचारियों को मिलने वाली सूचनाऍं, सामान्‍य आदेश, अनुदेश, प्रकाशित निविदाएं, प्रेस सूचनाएं, रिपोर्टें, नियमावलियॉं, तकनीकी लेख, पत्र-पत्रिकाऍं व अन्‍य दस्‍तावेज विवरण सहित हिन्‍दी में भी जारी और प्रकाशित होने लगे. इससे जन-सामान्‍य और कर्मचारियों में हिन्‍दी के प्रयोग और आपसी वैचारिकता के आदान-प्रदान की भावना पनपी. इसमें शुरूआती पीढ़ी के हिन्‍दी अधिकारियों और स्‍टाफ ने सीमित संसाधनों के बावजूद जीतोड़ मेहनत कर हिन्‍दी के कार्य को राष्‍ट्र निर्माण और जन-सामान्‍य को शासन से जोड़े रखने का काम बनाने में स्‍मरणीय भूमिका निभायी.

इस तरह 80 और 90 के दशक के आते-आते केन्‍द्र सरकार, सार्वजनिक उद्यम और राष्‍ट्रीयकृत बैंकों में राजभाषा विभाग-अनुभाग अच्‍छी तरह स्‍थापित हो चुके थे. शहर में दो सौ से अधिक सरकारी कार्यालय होने और इनमें बढ़ते हिन्‍दी के कामकाज को देखते हुए सन् 1995 में केन्‍द्र सरकार के कार्यालय, उद्यम और बैंकों में कामकाज की समीक्षा करने वाली सरकार की नगर राजभाषा कार्यान्‍वयन समिति अलग कर दी गयी जो पहले रेल्‍वे के समन्‍वयन से चला करती थी. इसके बाद तीनों वर्गों के कार्यालयों में अपनी-अपनी कार्य प्रकृति अनुसार कामकाजी सुविधाओं और कठिनाइयों को आपस में मिलकर कदम उठाये जाने लगे. उद्यमों की दृष्‍टि से शहर में नेशलन मिनरल डेवलेपमेंट कारपोरेशन (एन एम डी सी), हिन्‍दुस्‍तान एरोनॉटिक्‍स लिमिटेड (एच ए चल), तत्‍कालीन इंडियन टेलिफोन इंडस्‍ट्री याने आई टी आई (वर्तमान बी एस एन एल), भारत हेवी इलेक्‍ट्रीकल्‍स (बी एच ई एल), एच एम टी, एअर इंडिया लिमिटेड, भारत डायनामिक्‍स लिमिटेड (बी डी एल), इलेक्‍ट्रॉनिक्‍स कारपोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड (ई सी आई एल), कर्मचारी राज्‍य बीमा निगम (ई एस आई), भारतीय जीवन बीमा निगम (एल आई सी), न्‍यू इंडिया एश्‍योरेन्‍स, ओरिएंटल इंश्‍योरेन्‍स कंपनी लिमिटेड, नेशनल इंश्‍यूरेन्‍स  कंपनी लिमिटेड, एअर इंडिया लिमिटेड आदि कार्यालयों ने तकनीकी और गैर-तकनीकी क्षेत्रों में हिन्‍दी के कामकाज को आगे बढ़ाने में अग्रणी भूमिका निभायी. ऐसे में उद्यमों में हिन्‍दी के कामकाज, इसके प्रचार-प्रसार को देख शहर के विश्‍वविद्यालयों में पढ़ने वाले छात्रों में भी रोजगार मिलने की दृष्‍टि से उत्‍साह जागा. इस तरह साहित्‍य के पठन -पाठन के अतिरिक्‍त शहर में राजभाषा के रूप में हिन्‍दी के प्रति माहोल बना और दिलचस्‍पी बढ़ने लगी. धीरे-धीरे साहित्‍यक वर्ग और राजभाषावर्ग के साथी आपस में मिलकर हिन्‍दी को नयी दिशा देने में लग गये. कहा जा सकता है कि 70 से 90 के दशक में हैदराबाद ने साहित्‍य और राजभाषा के कामकाज के नज़रिये से देश में अपने लिए एक खास पहचान बना ली.

इन्‍हीं सब कारणों से आज नगर के पॉंच विश्‍वविद्यालय सहित दक्षिण भारत हिन्‍दी प्रचार सभा और हिन्‍दी प्रचार सभा में हिन्‍दी की स्‍नातकोत्‍तर पढ़ाई की सुविधाएं मौजूद हैं. विशेषकर हैदराबाद केन्‍द्रीय विश्‍वविद्यालय में तो कुछ वर्षों पूर्व एम ए- फंक्‍शनल हिन्‍दी अण्‍ड  ट्रान्‍सलेशन शुरू किया गया जो राजभाषा के रूप में कार्यक्षेत्र अपनाने वाले छात्रों के लिए बहुत उपयोगी है.

वर्तमान में हैदराबाद में पचास से अधिक सार्वजनिक उद्यमों के छोटे-बड़े कार्यालय हैं जहॉं राजभाषा के रूप में हिन्‍दी का काम बहुत आगे बढ़ चुका है. सन् 2000 के बाद से देश की खुली आर्थिक नीति, निजीकरण और कंप्‍यूटरीकरण का परिणाम देश और शहर के कई सरकारी उद्यमों पर दिखायी देने लगा. इनमें कुछ उद्यम जैसे प्रागा टूल्‍स, हिन्‍दुस्‍तान केबल्‍स, एच एम टी, आई डी पी एल, कंप्‍यूटर मेंटेनेंस कॉरपोरेशन आदि कमाओ और खाओ नीति’, मल्‍टी नेशनल कंपनियों के साथ प्रतियोगिता और अतिकल्‍याणकारी नीतियों की वजह से बंद हो गये. शहर के जितने भी सरकारी उद्यम हैं उन पर आज मासिक, तिमाही, छ:माही और सालाना लक्ष्‍यों को प्राप्‍त करने, लाभ कमाने, खुद को बनाये रखते हुए कार्यवैविध्‍य लाने का जबरदस्‍त दबाव है. इसके प्रतिदबाव में राजभाषाकर्मी भी समयबद्ध तरीके से कामकाज निपटाने के लिए मजबूर हैं. काल करे सो आज कर उक्‍ति आज के हालात में राजभाषाकर्मियों पर पूरी तरह हावी है. पिछले लगभग 15 सालों में हुए सरकारी कामकाज के कंप्‍यूटरीकरण से राजभाषा के कामकाज समय से निपटाने और बहु कार्य विशेषज्ञता हासिल करने का जबरदस्‍त दबाव पड़ा है. हिन्‍दी में कंप्‍यूटर पर काम करने तकनीकी सुविधाओं का अभाव और राजभाषाकर्मियों में कंप्‍यूटर व अन्‍य तकनीकी जानकारियों का सीमित ज्ञान या अभाव इसे कई स्‍थितियों में दुष्‍कर बना जाता है. सरकार नये-नये प्रशिक्षण देकर इसे दूर करने का प्रयास अवश्‍य कर रही है पर कंप्‍यूटर क्षेत्र से आ रहे नित नये परिवर्तनों की गति के साथ चल पाना कठिन हो रहा है. आज लैन, वैन, सैप, ई-प्रशासन, ई आर पी, ऑनलाइन सेवाओं जैसे कंप्‍यूटरीकृत अनुप्रयोग आ जाने से हिन्‍दी को इनमें समाहित करना चुनौती और खर्चीला काम बना गया है.  

दूसरी ओर सन् 70 के बाद की पीढ़ी अब सेवा-निवृत्‍त हो चुकी है. नयी पीढ़ी आने में समय लग रहा है. पहले विश्‍वविद्यालयों में जिस गंभीरता से साहित्‍य के छात्र हिन्‍दी व इसकी अन्‍य विधाएं पढ़ा करते थे उसमें भी कमी आयी है. हिन्‍दी के पदों के लिए हो रही विभिन्‍न परीक्षाओं में योग्‍य उम्‍मीदवारों का मिलना कठिन हो गया है. पहले हिन्‍दी के ज़रिये केवल अध्‍यापन या शिक्षण क्षेत्र में अवसर अधिक हुआ करते थे पर आज राजभाषा, पत्रकारिता, इलेक्‍ट्रानिक मीडिया, ई-व्‍यवसाय, तकनीकी लेखन, अनुवाद, विज्ञापन लेखन, हिन्‍दी में मार्केटींग, डी टी पी व अन्‍य  बाजारी कामकाज में हिन्‍दी की जबरदस्‍त संभावनाएं बन गयी है. देश में स्‍थित विश्‍वविद्यालयों, खासकर हैदराबाद के संबंध में यहॉं के संस्‍थानों और विश्‍वविद्यालयों को इस नज़रिये से हिन्‍दी शिक्षण पर ध्‍यान देना होगा. अन्‍यथा इतनी मेहनत से बनी हैदराबाद की अपनी पहचान अपने में सिमट कर रह जाएगी.

इस लेखन का उद्येश्‍य यही है कि हम अपनी स्‍थिति पर नज़र डालें और आगे क्‍या और कैसे किया जाना है इस पर विचार करें. हिन्‍दी के कामकाज से उद्यमों को सीधे तौर पर उत्‍पादन से प्राप्‍त जैसे आर्थिक लाभ अवश्‍य न दिखाई दे पर हिन्‍दी ने संगठनों और उद्यमकर्मियों को जिस तरह आपस में जोड़कर काम का एक जस्‍बा प्रदान किया है वह किसी भी आर्थिक लाभ से बढ़कर और उससे अधिक आवश्‍यक है. 



Friday, June 21, 2013

आई पी एल......... उद्योग और बॉलीवुड का एक और ‘चीयरफुल’ कारोबार

आखिरकार 26 मई को चौपन दिनों तक चले आई पी एल फटाफट क्रिकेट का समापन मुंबई इंडियन्‍स की जीत और सचिन के खाते में बचे इस कप के पाने की विदाई के साथ खत्‍म हुआ. संभवत: यदि यह बिना किसी हो-हल्‍ले के खत्‍म हो जाता तो शायद इस पर सट्टाबाजारी के साये के बदले खेल की नयी तकनीक, ताकत और खेल-कला के बेजोड़ इस्‍तेमाल पर शायद अधिक लिखा जाता.
अब तक आई पी एल के छ: संस्‍करण हो चुके हैं. बीस ओवर क्रिकेट का यह नया फारमेट साल 2003 में इंग्‍लैण्‍ड और वेल्‍स क्रिकेट बोर्ड ने वहां के क्‍लबों के लिए आरंभ किया था. फुटबाल और अन्‍य प्रचलति खेलों की तर्ज पर शुरू किये गये इस खेल के संक्षिप्‍त रूप ने भारत में जल्‍द ही जड़ें जमा लीं. वैसे भी हमारे यहॉं क्रिकेटपंथियों ने इसे धर्म की हद तक पहुँचा दिया है तो सटोरियों के लिए इसका हर फारमेट कमाई की पक्‍की    रसीद होता है. ऐसे में इसके बाजारियों के लिए टी-20 एक लक्‍की लॉटरी बन सामने आया.
टी-20 के रूप में क्रिकेट की शुरूआत से पहले खूब बहसें भी हुई. अपने समय के मशहूर कलात्‍मक सलामी बल्‍लेबाज सुनील गावस्‍कर ने देश में इसकी शुरूआत के लिए इसका जमकर समर्थन किया तो उनके समवर्ती खिलाड़ियों की कुछ और राय थी. ये अलग बात है कि अब भी इसे खेलने की दृष्‍टि और क्रिकेट के मुख्‍य फारमेट पर इससे पड़ने वाले प्रभाव पर आज भी विशेषज्ञ अलग-अलग राय रखते हैं. अत: यह आरंभ से ही विवादों के घेरे में रहा. पेशेवर ब़ाजारियों के लिय यह शाम की शेयर ट्रेडिंग साबित होने लगा. आनन-फानन और देखते ही देखते क्रिकेट की सर्वोच्‍च बॉडी आई सी सी ने भी इसे मान्‍यता देते हुए इसका विश्‍व कप करा दिया. 1983 की तरह बिना किसी उम्‍मीद रखे हमने T-20  का पहला विश्‍व कप भी जीत लिया और वह भी पाकिस्‍तान को हराकर. बस इसी के साथ सटोरियों और सट्टेबाजों के इस खेल को लेकर पौ बारह हो गये.
मौका ताड़ ललित मोदी ने इसे आई पी एल का रूप देकर देश में कॉरपोरेट घरानों और बॉलीवुड का एक और चीयरफुल कारोबार का जरिया बना दिया. इससे होने वाली पैसे की उगाही और शौहरत को देख सभी बड़ बहती गंगा में हाथ धोने शामिल हो गये. इसकी सफलता से ललित मोदी का कद और भी ऊँचा हो गया. अक्‍सर शोहरत पाने में कुछ जरूरी काम छूट जाते हैं या आगे देख लेंगे सोच छोड़ दिये जाते हैं. इस चैंपियनशिप से बी सी सी आई को हुई कमाई में गड़बड़ी दिखाये जाने के चलते ललित मोदी पर भ्रष्‍टाचार के आरोप लगे और इसे कारोबारी रूप देने वाले सुमोज़ ने उन्‍हें रिंग से बाहर कर दिया. आज वे विदेश में शरण लिये हुए हैं.
वैसे क्रिकेट के व्‍यवसायीकरण का श्रेय जगमोहन डालमिया को जाना चाहिए जिन्‍होंने 1987 में भारत में हुए रिलान्‍स विश्‍व कप से इसमें जबरदस्‍त कमाई की संभावना को पहली बार उजागर किया. इसके बाद से उन्‍हें प्रसिद्ध खिलाड़ी और कमंटेटर रवि शास्‍त्री जग्‍गू दादा के नाम से अभिहित करने लगे. तब से अब तक किसी भी तरह के क्रिकेट का फारमैट और प्रतियोगिता उद्योगपतियों और राजनेताओं के कारोबार के चंगुल से नहीं बच पायी है. खासकर फुटबाल और हॉकी की तर्ज पर फिट किया गया यह फटाफट T-20 क्रिकेट अब पहली पसंद बनता जा रहा है.  
       मेहनत की जाए तो संभव है कि कोई परीक्षा पास कर बिना किसी सिफारिश के सिविल सर्वेंट बन जाय. पर, इसके उलट किसी अच्‍छे खेल प्रशासक और अच्‍छे खिलाड़ी के लिए क्रिकेट के किसी भी संघ में सदस्‍य के रूप में जगह पाना इससे भी ज्‍यादा कठिन और चुनौतीपूर्ण है. वैसे भी जब कोई खेल किसी देश का धर्म बन जाए और खिलाड़ी भगवान तो फिर इनसे ऊपर किसी का होना भी कठिन हो जाता है. भगवानों को कौन बता सकता है कि क्‍या सही और क्‍या गलत? कौन अच्‍छा है और कौन बुरा? देश में एक आदत सी बन गई है कि हम किसी भी चीज़ को गुब्‍बारे सा बेइन्‍तिहां ऊँचा उड़ा देते हैं. और, ऊॅचाई देकर बेकाबू हो जाने पर पछताते हैं.
क्रिकेट और क्रिकेटर सन् 50 के दशक के बाद से ही देश में लोकप्रिय होने लगे थे. धीरे-धीरे इनका संबंध बालीवुड से भी गहरा जुड़ने लगा. इसी सॉंठ-गॉंठ के चलते खेल में रौनक और बहार तो आई पर साथ में पर्दे के पीछे के नायक और खलनायक भी साथ लायी. अस्‍सी के दशक के आते-आते शारजाह, भारत और पाकिस्‍तान को लेकर दुबई के रेगिस्‍तान में क्रिकेट को हवा देने के नाम पर भावनाओं के आड़ में खेल कारोबारी मिसाल साबित हुआ. शारजाह से पहले तक क्रिकेट से पैसा कमाया जा सकता है इसकी सोच और सूझ भी शायद खिलाड़ियों में कभी रही हो. चंद ही दिनों में शारजाह में शेखों के द्वारा शुरू किया गया क्रिकेट - खेल, खूबसूरती और ख़िताब का खुला मैदान बन गया.
जब खेल के नाम पर पहली बार अज़रूद्दीन, अजय जडेजा और मनोज प्रभाकर के नाम खेल में सौदेबाजी की कालिख पुती तो इस छक्‍के से आम लोगों के सर से भरोसे की छत उड़ गई. ऐसा होना कुछ गैर मामूली था. हमने शारजाह में कइयों बार भारत को सारी ताकत लगाकर भी जीतते कम और हारते ज्‍यादा देखा था. हमें लगता था गिरते हैं शाह सवार मैदाने जंग में’. उठ खड़े होंगे और कपिल पाजी कुछ न कुछ कर जीता ही देंगे. पर, इमरान खान और सरफ़राज नवाज़ का गावस्‍कर को बोल-बोल कर आउट करना, जावेद मियांदाद का आखिरी गेंद पर चेतन शर्मा को रसीद किया गया छक्‍का और आक़ीब जावेद व जलालुद्दीन की हाइट्रीक मानो भारत-पाक की जंग में पाक की हुई हार का बदला थी. दूरदर्शन पर रूक-रूक कर आते प्रसारण पर टक-टकी बॉंधे, सॉंसें थामे जब क्रिकेट देखते और हार होती तो कईयों की भूख और नींद उड़ जाती. घण्‍टों और दिनों तक खिलाड़ियों द्वारा खेले गए गलत शॉट और कप्‍तान द्वारा लिये गये गलत निर्णयों की गली चौराहों पर थ्रेड बेयर एनालिसिस होती. इनके चक्‍कर में पढ़ाई में भी कई बच्‍चों का सूपड़ा साफ हो जाता. खुदकुशियॉं हो जातीं. टी वी फोड़ देना, रेडियो तोड़ देना आम बात तो सड़के और गलियॉं सून-सान हो जातीं. हैदराबाद शहर के एक हिस्‍से में भारत की जीत पर जश्‍न और हार पर दूसरी ओर खुले आम मातम का साया रहता. कई बार तो पाक की हार पर पुराने शहर में घरों पर पथराव और चाकूज़नी की वारदातें भी हो जातीं. यह वह दौर था जब क्रिकेट दो देशों और यहॉं के लोगों के बीच आपसी संबंधों की डोर बन गया था. लेकिन, क्‍या पता था कि इन सबके बीच फिल्‍मों में कालाधन लगाने वाला अंडर वर्ल्‍ड हम सबकी ऊबलती भावनाओं पर अपनी रोटी सेंकता रहा. कट्टरपंथ इस्‍साम ने हमें नीचा दिखाने और हम पर हमला करने का खेल के ज़रिये भी कोई मौका नहीं छोड़ा. हम थे कि इसे खेल समझकर खेलते रह गये और हार को खेल की टोपी समझ पहनते रहे.  
जब शारजहा में ज़मीर बेचने और खरीदने का सच सामने आया तो लोगों ने खेल और खेलनेवालों को उतार फेंका. खेल और खिलाड़ी इससे दूर होने लगे. किसी तरह समय बीता, सदी बीती. लोग धीरे-धीरे कर शारजाह और क्रिकेट में अंडरवर्ल्‍ड व सट्टे के कारोबार को भुलाने लगे थे. इसी बीच सौरव गांगूली ने सहारा द्वारा प्रायोजित भारतीय टीम के कप्‍तान के रूप में खेल की ग़रिमा को लौटाते हुए युवाओं को मौका देकर देश और देश के बाहर जुझारू क्रिकेट खेलने का जस्‍बा दिया. वे सबसे सफ़ल कप्‍तान भी बने. उन्‍हीं की बदौलत भारत इंग्‍लैण्‍ड में खेले गये विश्‍वकप में फाइनल तक पहुँचा पर हार गया. लोगों ने इस ईमानदार मेहनत और जज्‍़बे को सलाम करते हुए क्रिकेट को गरमजोशी के साथ फिर हाथों-हाथ लिया. नयी टीम, नये खिलाड़ी, इंग्‍लैण्‍ड, आस्‍ट्रेलिया और साउथ-अफ्रिका जैसे देशों में जाकर उनकी मॉंद में उन्‍हें ही मात देकर आने लगे. पाकिस्‍तान को केनेडा जैसे न्‍यूट्रल वेन्‍यू पर कई बार पटखनी दी. धीरे-धीरे जेंटलमेन गेम कहा जाने वाला खेल फिर से मान-सम्‍मान और प्रतिष्‍ठा का खेल बनने लगा. आस्‍ट्रेलिया ने खेल में एक नयी चीज़ किल्‍लर इंस्‍टीटक्‍ट पैदा कर दी. सत्‍तर से अस्‍सी के दशक में जिस भावना से वेस्‍टइंडीज़ के खिलाड़ी खेलते थे, उनके बिखर जाने के बाद आस्‍ट्रेलिया ने इसे अपना लिया और इसे ख़ासकर इंगलैण्‍ड और उसके बाद सभी टीमों के ख़िलाफ आज़माया. जब जॉन राइट भारतीय टीम के पहले विदेशी कोच बने तो उन्‍होंने भी इस पर काम किया. परन्‍तु गॉंगुली के बाद राहुल और उनके बाद जब धोनी कप्‍तान बने तो उन्‍होंने इस किल्‍लर इंस्‍टिक्‍ट को साउथ अफ्रिकी खिलाड़ी और कोच रहे गैरी कर्सटीन के साथ मिलकर घुट्टी की तरह टीम के खिलाड़ियों को पिलाया. नतीजतन भारत 1983 के बाद 2011 में विश्‍व कप जीतने में सफ़ल रहा. इन दो-तीन दशकों के खेल की खास बात यह रही की खेल के पीछे और खेल के साथ खेला जाने वाला सट्टा और बेटिंग इस दौरान भी चलता रहा पर यह हमारे देश में होने वाले किसी भी लोक सभा के सफल आम चुनाव में होने वाली छुट-पुट घटनाओं के समान था.
इसी गहमागहमी में आई पी एल का बीस-बीस का खेल युवाओं में सर चढ़कर बोलने लगा. फिल्‍मी  हीरो-हिरोइनों सहित उद्योगपतियों ने करोड़ों रुपयों की बोली लगाकर खिलाडि़यों को नीलामी कर बाजारू बना दिया. पैसे के वजन ने वजन से वजनदार खिलाड़ियों को भी नीलाम होने पर मजबूर कर दिया. और इस तरह शुरू हुआ पैसे और ताकत की चकाचौंध का यह आई पी एल फारमेट. कहते हैं पानी जहॉं से बहता है उसके आस-पास का इलाका भी तर और हरा हो जाता है. तो, टीमों के मालिकों के साथ छोटे-बड़े सट्टेबाजों की जेबें भी हरी-भरी हो गईं. पहले ही आई पी एल में शेन वार्न ने खेल छोड़ने के बावजूद बिना उम्‍मीद खेली अपनी टीम को चैंपियन बना दिया. छोटे कस्‍बों के आये खिलाड़ियों से मिलकर बनायी गयी इस टीम ने अचानक अन्‍जान रहने वाले खिलाड़ियों में नाम और पैसे की आस जगा दी. आगे के आई पी एल में ऐसे हर खिलाड़ी ने एक ही लक्ष्‍य रखा. टेस्‍ट टीम या वन डे में जगह मिले या नहीं आइ पी एल में जगह मिल जाए तो जिन्‍दगी की नैया पार हो जाए. फिर क्‍या नामी-बेनामी सभी आई पी एल खेलने खिंचने लगे. 15-16 मैच खेलो और चार-पॉंच करोड या दसियों करोड़ ले जाओ. विज्ञापन और दूसरे जरियों से होने वाली गाढ़ी कमाई अलग.
अंदाज लगाइये 1983 में इंगलैण्‍ड में हुए प्रुडेंशियल विश्‍व कप खेलने जाते समय हमारे क्रिकेट बोर्ड के पास कपिलदेव की टीम को दो से तीसरे यूनिफार्म की जोड़ी देने का ज़रिया नहीं था. ऐसी सीधी-सादी टीम ने वह विश्‍वकप जीता था. वह भी वेस्‍टइंडिज को हराकर जो आज भी सोचकर कठिन लगता है. पता नहीं उन्‍हें  उस समय आज का एक शतांश भी पैसा मिला हो या नहीं. ऐसे में आज करोड़ों की बारिश में खेले जा रहे क्रिकेट में कैसे सब कुछ पाक-साफ हो सकता है. अरबों लगाएं तो वापस कमाएं कैसे. मनमोहन जी ने कहा था पैसे कोई पेड़ पर तो नहीं लगते. खेल का हर सेकण्‍ड बिकाऊ. खेल के लिए नये-नये विज्ञापन, हर शॉट पर नाचने वाली चीयर गर्ल्‍स, नये-नये स्‍टेडियम, सटेडियमों में कॉरपोरेट बाक्‍सेस, 30-40 प्रतिशत टिकट व्‍यापारियों के लिए आरक्षित, व्‍यापारी और खिलाड़ी एक ही वी आई पी क्षेत्र में बैठें, हर रन, छक्‍का-चौका, कैच, विकेट, क्षेत्ररक्षण सब पर बोली और बिकाऊ. खेल व्‍यापारियों की गिरफ्त में हो तो वे कहीं से भी, किसी से भी कमाई का ज़रिया निकाल लेते हैं. यही हुआ भी. ऐसे में खेल का फिक्‍स होना, सट्टा लगना या बेटिंग उनके लिए एक आम बात तो हमारे लिये हैरान करने वाली बात है.
खेल और जंग में सब जायज़ है. यह सदियों से लगता आया है. तकलीफ इस बात की है कि बाहर बैठ ऐसा करने वाले कभी पकड़ में आते हैं तो कभी नहीं आते. लेकिन, इसमें जब खिलाड़ी पैसे देकर मिला लिये जाएं तो हाल ही के आई पी एल में घटी राजस्‍थान रायल्‍स की घटना जैसे बन जाती है. दिनांक 15 मई की देर शाम दिल्‍ली पुलिस द्वारा राजस्‍थान रायल्‍स के तीन खिलाड़ियों को जाल बिछाकर पकड़े जाने पर की गई पूछताछ से सामने आया कि केरल राज्‍य के अब तक के दूसरे तेज गेंदबाज श्रीसंत (पहले टीनू योहानन), अजीत चंडिला और अंकीत चव्‍हान इस खेल के स्‍पाट फिक्‍सिंग में संलिप्‍त हैं और इनके खिलाफ़ ठोस सबूत भी पुलिस ने बरामद किये हैं. इनसे अब तक की पूछताछ और टी वी फुटेज भी ये बता रहे हैं. इसमें इन खिलाड़ियों के अलावा विंदु दारा सिंह और चेन्‍नई सुपर किंग्‍स के मालिक या मालिक के दामाद मणिअप्‍पन भी शामिल हैं. शुरूआती जॉंच ये भी बता रही है कि ये सभी छोटी मछलियॉं हैं और अंदाजन चालीस हजार करोड़ के देश में फैले इस काले कारोबार के तार शारजाह की तरह अंडरवर्ल्‍ड से जुड़े नज़र आ रहे हैं. याने हमारे लोगों के ज़रिये हमारे ही खिलाड़ियों को लेकर माल वो कमाएंगे और कालिख हमी पर पोतेंगे. शोचनीय यह है कि हाल की नक्‍सली घटना में श्री विद्याचरण शुक्‍ल के निजी सुरक्षा अधिकारी श्री प्रफुल शुक्‍ल ने खुद को यह कहकर गोली मार ली कि क्षमा करें सर, आखिरी गोली है, हम आपको इनसे नहीं बचा पा रहे हैं. ऐसी घटना आज के ज़माने में वफादारी की पराकाष्‍ठा है. धन्‍य है ऐसे वीर और साहसी अधिकारी. पर, क्‍या इन खिलाड़ियों के पास ज़मीर बेचने से पहले इतनी भी सोच नहीं कि ये देश द्रोह करने जाने जा रहे हैं. क्‍या इन्‍हें पैसे की चमक ने अंधा कर कायर बना दिया था जो कालाबाजारी के आकाओं से लड़ने और भिड़ने की हिमाकत भी न दिखा सके.
जैसे आरंभ में कहा गया, विवादों से भरे इस फारमैट में यह सब अपेक्षित ही था. जैसी संभावनाएं थीं, सामने आ रहा है. दीगर ये है कि इस अपेक्षित से दुनिया के सबसे अमीर क्रिकेट बोर्ड में शामिल राजनेता और उद्योगपति क्‍यूं और कैसे अंजान बैठें रहे? मैच फिक्‍सिंग में संलिप्‍त रहने वाले खिलाडियों के लिए सजा देने या कार्रवाई करने कोई सख्‍त कानून क्‍यों नहीं तैयार किया? क्‍या यह किसी भी दलील के चलते स्‍वीकारा जा सकता है. वह भी फिक्‍सिंग काण्‍डों के लंबे और सिलेसिलेवार इतने किस्‍सों के बाद. इससे होने वाले अपमान और ज़लील करने वालों खिलाड़यों से टीम और देश एक से ज्‍यादाबार गुजर चुका है, इन सबके बावजूद कानून नहीं होने की दुहाई देना कहीं न कहीं अपनी जिम्‍मेदारी से मुँह मोड़ इस सट्टेबाजी और कालाबाजारी का मूक समर्थन ही जान पड़ता है.

वो उफ भी करते हैं तो आसमॉं सर पर उठा लेते हैं, हम खत्‍म भी हो जाएं तो चर्चा नहीं होता’. क्‍या हो गया है इन राजनीति और उद्योग के कर्णधारों को. संसद में किसी काली करतूत की भनक पर ये सरकार हिला दें और देश सर पर उठा लेने वाले आज खामोश क्‍यूं हैं. केवल कानून अपना काम करेगा. हम सहयोग देंगे कहने से बात नहीं बनने वाली. लंगड़े और लाचार कानून के सहारे ऐसे देशद्रोह और द्रोहियों को कुचला नहीं जा सकता. ये केवल सट्टा या बेटिंग नहीं. ये कट्टरपंथ का कारोबारी वार है. यदि अब नहीं जागे तो उद्योग और बॉलीवुड के इस चीयरफुल कारोबार में लगाई गई सेंध धीरे-धीरे पूरे देश की आर्थिक नींव को हिलाकर रख देगी. समझना होगा कि यह केवल उद्योग और बॉलीवुड का एक और चीयरफुल कारोबार नहीं, हमें धीरे से दिया जा रहा एक ज़ोर का झटका है.  

Friday, April 26, 2013

जबलपुर से भीमबेटका, भोजपुर, सॉंची और भोपाल


धुऑंधार जबलपुर की शाम बिताने के बाद दूसरे दिन सुबह इडली और पूरी-सब्‍जी का नाश्‍ता कर कलचुरी से विदा लिए. भीमबेटका, भोजपुर देखते हुए सॉंची पहुँचना था. इसीलिए लगभग 350 किलोमीटर की दूरी आठ घंटो में तय करनी थी. जबलपुर से कुछ किलोमीटर के बाद शहर से बाहर आए तो बेहाल सड़क का असली चेहरा सामने आया. यह राजमार्ग है जो दिल्‍ली तक जाता है. ड्राइवर ने बताया कि इसे फोर-ट्रैक बनाया जा रहा है. जगह-जगह काम चल रहा था. रास्‍ते भर हेवी ट्रक और वाहन. गाड़ी, चल कम रही थी और झूल ज्‍यादा रही थी. अब तक की थ्री स्‍टार ए सी यात्रा का यह जनरल रूप था. कड़ी धूप, ऊबड़-खाबड़ सड़क और झूलती गाड़ी. लगभग आधी दूरी तय करने के बाद ड्राइवर चाय के लिए एक ढाबे पर रुका. हमने भी चाय पी और दोपहर दो बजे के करीब एक और जगह सरदार जी के नये दिख रहे ढाबे पर रोक ड्राइवर ने खाना खाया. मेरे साढू भी लगे हाथ भोजन कर लिए. मैं चॉंवल के बने पापड़ों के साथ हेमन्‍त जी का साथ देने बैठ गया. बड़े स्‍वादिष्‍ट थे. हम सबने ठंडा-गरम और पान लेकर लगभग एक घंटे बाद भीमबेटका देखने निकल पड़े.



  












कड़ी धूप में यहॉं पहुँच प्रवेश किया. सड़क से तो कुछ नहीं दिखायी  दिया. भीतर पहाड़ी पर गये तो चौतरफ सूखी झाड़ियां और ऊँची-ऊँची शैल गुफाएं. यह संरक्षित विश्‍व विरासत घोषित पर्यटन स्‍थान है जहॉं पूर्व पाषाणकाल से लेकर मध्‍य और बाद के पाषाणयुगीन आदिमानव द्वारा गुफाओं में रहकर पत्‍थरों पर बनाये गये शैल चित्र हैं. संभवत: अफ्रिका के बाद भारत में यह एकमात्र स्‍थान होगा जहॉं इतने पुराने समय से मनुष्‍य होने और रहने के प्रमाण मौजूद हैं. भारतीय पुरातत्‍व सर्वेक्षण विभाग द्वारा दी गई जानकारी अनुसार यहॉं लगभग 500 ऐसी विशाल और अति प्राचीन गुफाएं हैं जिनमें से केवल 15 गुफाएं ही देखने के लिए खोली गयी हैं. अन्‍य में काम चल रहा है. ये गुफाएं देखते हुए लगा कि स्‍कूल की सामाजिक अध्‍ययन की किताब में मानव सभ्‍यता के आरंभ और विकास के बारे में पढ़ते हुए जो चित्र किताब में थे वे यहीं के थे. पाषाणकालीन समय में आदमी द्वारा पत्‍थरों से बनाये गये अलग-अलग हथियार और काम की अन्‍य चीज़ें. यहॉं लगभग एक लाख साल से चालीस हजार साल पुराने प्रमाण हैं. अंदाज लगाएं कि हम कितने आदिम हैं. बेटी को मैंने ये सभी बातें बतायी और समझाया. गुणाजी तो अब कॉलेज जाने लगा है तो उसे इन सबसे कुछ खास लेना-देना नहीं था. वैसे भी दक्षिण में विशेषकर आन्‍ध्र-प्रदेश में बच्‍चे एक ही विषय जानते हैं, वह है विज्ञान (कैसा और कितना?). एम पी सी पढ़ो और इंजीनियर बनो. आजकल तो केवल इंजीनियरिंग नहीं, आई आई टी ही पहला और आखिरी निशाना है बच्‍चों का. पिछले कुछ सालों के इस माहोल ने यहॉं सोशल साइन्‍सेस और अन्‍य विषयों की पढ़ाई का ढॉंचा लगभग खत्‍म कर दिया है. कुकुरमुत्‍तों की तरह जगह-जगह गली-कूचों में खुल आए प्राइवेट और कॉरपोरेट कॉलेज. अन्‍य कॉलेज, विश्‍वविद्यालय में विज्ञान छोड़ किसी विषय में बच्‍चे नहीं. लेक्‍चरर विज्ञान में सीट नहीं पा सके बच्‍चों को पकड़-पकड़, उनकी फीस भर अपनी नौकरी के मारे, मिन्‍नते करते हैं कि एडमिशन ले लो प्‍लीस. यहॉं बच्‍चों की पढ़ाई मॉं-बाप के लिए भविष्‍य का इन्‍वेस्‍टमेंट होती है. हम तो हिन्‍दी मीडियम से भी पढ़कर लग गये पर इन बच्‍चों का न जाने क्‍या हो. लाखों में इंजीनियर और काम के दाम कौड़ियों में. मालिक करे ज्‍ल्‍द ये मॉं-बाप, बच्‍चों और सरकार को समझ आ जाए कि और भी गम है ज़माने में, मोहब्‍बत के सिवा गालिब’. वरन् समाज-विज्ञान और साहित्‍य रहित समाज मृत और असभ्‍य हो जाता है.
 


इस बीच मैंने पूरी 15 गुफाएं चमचमाती धूप में देखीं. छात्रों के लिए जानने-समझने यह अद्भुत जगह है. अक्‍सर यात्री वहीं जाते हैं जहॉं मनोरंजन हो (भौतिक या धार्मिक). ऐसी जगहों पर अधिकतर जिज्ञासु ही जाते हैं. मेरा गुफाएं देखना पूरा होने तक दूसरे बेचैन हो रहे थे. ऊपर से धूप की तपीश से गरम ये गुफाएं, भीतर से ठंडी थीं. भीतर ही भीतर मुझे यह जगह देख बहुत प्रसन्‍नता हुई. इस जगह की भी खोज अंग्रेजों ने ही की थी. 




 



                   











   

















यहॉं से निकल अब हम भोजपुर के लिए चल पड़े. ये दोनो पर्यटन स्‍थल विपरित दिशाओं में है. करीब
30 कलोमीटर पहुँच हमने भोजपुर में राजा भोज द्वारा पॉचवीं सदी में बनाया गया शिवजी का भोज मंदिर देखा. धूप में तपे फर्श पर नंगे पैर सीढ़ियां चढ़़ विशाल और भव्‍य मंदिर के दर्शन किए. जैसा नाम, वैसा काम. राजा भोज के बारे में जैसे कहा जाता है, वैसा ही दरिया दिली से बनवाया गया लाल पत्‍थर का ये शानदार पर अपूर्ण मंदिर. बाहर से सादे दिखने वाले मंदिर की दीवारें आठ 40 फीट ऊँचे-ऊँचे स्‍तम्‍भों पर टिकी हैं. चार कोनों में दो-दो स्‍तंभ. मुख्‍य गुंबद चार और स्‍तंभों पर टिका है. सामान्‍यत: सभी मंदिर पूर्वाभिमुख होते हैं. पर ये पश्‍चमाभिमुख है.   भीतर चिकने पत्‍थर से निर्मित विशालकाय शिवलंग है. भीतर चारों दिशाओं में गणेश, लक्ष्‍मी 
और सीता की प्रतिमाएं भी दीवारों में शिल्‍पित की गई हैं. मंदिर के बाहर ऊँचाई से वेत्रवती नदी का बचा-कुचा नहरनुमा रूप अब भी दिखाई देता है. कहावत अनुसार यहीं पर माता कुन्‍ती ने कर्ण को नदी में छोड़ दिया था. जनश्रुति यह भी है कि इसे पाण्‍डवों ने बनाना आरंभ किया था. जो भी हो, यह एक खूबसूरत विशाल और भव्‍य मंदिर प्राचीन धरोहर के रूप में खड़ा है जो इतिहास श्रुति बन अपूर्ण खड़ा है. इसकी छत ऊपर से अपूर्ण और द्वार नहीं हैं. द्वारनुमा कमान का ऊपरी हिस्‍सा देखने पर खण्‍डित दिखायी पड़ता है. इससे लगता है कि यहॉं पर भी आक्रमण हुआ होगा.

मन कर रहा था कि यहॉं भी किसी से मिलकर और जानकारी इस इमारत के बारे में ली जाए. पर धूप, देरी और दूरी ने चलने पर मजबूर कर दिया. और, यहॉ से हम सॉंची के लिए निकल पड़े.




शाम 6.00 बजे के आस-पास हम सॉंची पहुँचे. सॉंची भोपाल के बाद विदिशा से 10-12 किलोमीटर पहले पड़ता है. सीधे सॉंची स्‍तूप की टिकट खिड़की के पास गाड़ी रोक पूछे तो पता चला कि और 15-20 मिनट में यह बंद होने वाला है तो इसे सुबह के लिए छोड़ हम एम पी टूरिज्‍़म के होटल चले आए. पहुँचते ही हमने कमरे लेकर सामान रखा और पनीर, प्‍याज तथा  आलू की पकोड़ी के साथ पहले चाय आर्डर की. सुबह की इडली-पूरी हजम हो चुकी थी. बिना समय गँवाए हमने स्‍विमिंग पुल देखा और स्‍टाफ से साफ-सफाई कर लाइट जलाने कह दिया. फ्लड लाइट तो नहीं थी पर मीडियम साइज (15 मीटर लंबा) पुल में कम रोशनी में आधा घण्‍टे तैराकी कर हम ताजादम हो गए. हेमन्‍त जी तब तक आई पी एल मैच का आनंद उठाते अकेले खान-पान का मजा ले रहे थे. इस बीच हम सब भी तैयार होकर खाने चले गए. कमरे में लौटते-लौटते छोनू को तेज बुखार चढ़ आया था. गाड़ी में लगातार पीछे बैठे रहने से खराब सड़क के झटके, गर्मी और थकान से बुखार मामूली बात थी. मेडिकल किट से दवाई निकाल दवाई खिलाई और उसे आराम करने कह दिया. हमें चिंता तो हो रही थी कि ये और न बढ़े. बस एक दिन की बात है और फिर कल हम भोपाल से हैदराबाद वापस चले जाएंगे. खैर, सुबह तक बुखार कम था. हम तैयार होकर 8.00 बजे के बाद नाश्‍ता किए और हमारी श्रीमती जी, साली और मैं विश्‍व प्रसिद्ध सॉंची स्‍तूप देखने चले गये. बच्‍चे और हेमन्‍त जी नहीं आए.

सुबह 9.00 बजे के आस-पास हम भीतर गए. प्रवेश पर मैंने जगह-जगह रूक ऑडियो कमेंट्री वाला इलेक्‍ट्रानिक गाइड हेडफोन सहित ले लिया. यहॉं ये सुविधा 68 रुपये देने पर मिल जाती है. पूरे एक घण्‍टे तक हर विवरण प्‍वाईंट्स पर रूक कर सुना जा सकता है. इसे इलेक्‍ट्रानिकगाइड कहते हैं जो भारतीय सर्वेक्षण विभाग ने तैयार करवाया है.

यहॉं वर्तमान में तीन स्‍तूप हैं. अशोक के समय से लेकर 5वीं शताब्‍दि तक बने स्‍तूप. चूने और मिट्टी (गच्‍ची) से बनी भारत की यह सबसे पुरानी निर्मित इमारत है. 2300 साल पुरानी. संसद भवन की तरह एकदम गोल स्‍तूप को घेरी 36.5 मीटर की दीवार लाइम स्‍टोन / लाल पत्‍थर से बनी है. इसमें शिलाएं आड़ी और खड़ी रख चौखड़ीं या चौकोन के रूप में बनायी गयी है. स्‍तूप अर्द्ध गोलाकार गुंबद की शक्‍ल में है जिसकी ऊँचाई 16.4 मीटर है. स्‍तूप की चार दिशाओं में ईसा पूर्व पहली सदी में सातवाहन राजाओं द्वारा बनाये गये चार तोरण द्वार है जिन पर बुद्ध के बोधिसत्‍व के रूप में पूर्व में और पश्‍चात लिये गये 500 जन्‍मों की कथाएं तराश कर उकेरी गई हैं. अर्द्धगोलाकार स्‍तूप पर एक छतरी और चौकोरनुमा आसान बना है जो प्रतीक रूप में बुद्ध के अस्‍तित्‍व का प्रतीक माना जाता है. वास्‍तव में ये स्‍तूप बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार करने और उनकी कथाओं को संरक्षित करने की दृष्‍टि से बनाये गये ताकि इस धर्म के अनुयायी यहॉं आकर भगवान बुद्ध की तरह ध्‍यानमग्‍न होकर ज्ञान प्राप्‍ति या उसका मार्ग तलाश सकें. तोरणों पर उकेरी कथाओं में बुद्ध के गुजरने के पश्‍चात कुशीनगर, कपिलवस्‍तु और वैशाली के मल्‍लाहों में उनकी अंतिम क्रिया करने के अधिकार को लेकर यूद्ध हुआ था जिसे जीवतं तरीके से दक्षिणी तोरणद्वार पर तराशकर दर्शाया गया है. ये सभी तोरण कला के अद्भुत नमूने हैं.

स्‍तूपों की जब खोज हुई तो यहां बुद्ध से जुड़ा कोई अवशेष नहीं मिला. इतिहासकार ये भी कहते हैं कि बुद्ध कभी यहां आए भी नहीं थे. केवल स्‍तूप तीन गुप्‍तकालीन माना जाता है उसमें बुद्धके दो शिष्‍यों के अवशेष एक पत्‍थर की पेटी में अंग्रेज आक्रमणकारी को मिले थे. पहले इन्‍हें इंग्‍लैण्‍ड ले जाया गया था जो अब वापस लाकर प्रवेश द्वार के पास बने श्रीलंका मंदिर में रखे गये हैं. इन्‍हें दर्शन के लिए साल में एक बार शायद नवंबर माह में खोला जाता है. इस समय यहॉं पूरी दुनिया से लोग आते हैं.

इन स्‍तूपों के अलावा मौजूदा खण्‍डहर देख लगता है कि यहां 45 मंदिर / इमारतें थीं. इनमें एक मंदिर दो मंजिला है. एकदम आखिरी हालत में बचा और खड़ा. दूर से इसमें कुछ दिखाई तो नहीं देता पर यह गुप्‍तकालीन है. इसकी विशेषता यह है कि इसकी दूसरी मंजिल पर जो मूर्ति विद्यमान है वह ब्राह्ण समाज की श्रेष्‍ठ विचारधारा को बौद्ध धर्म में अपनाये जाने को दर्शाती है. नीचे बुद्ध की मूर्ति है. यह मंदिर भारत में शुरूआती मंदिर निर्माण कला का एक संरक्षित नमूना है. संभवत: पॉंचवी सदी या इसके आस-पास ही भारत में मंदिर निर्माण कला का विकास हुआ था. इससे पहले मंदिर हमारे यहॉं अस्‍तित्‍व में नहीं थे.  

एक घण्‍टे से भी ज्‍यादा यहां घूमने –देखने के बाद निकल आए भोपाल रवाना होने. कुछ फोटो आदि खींच गाड़ी में बैठ हम होटल आए जो बामुश्‍किल एक किलोमीटर होगा. अब तक छोनू सो रही थी. देखा तो बुखार कम था और हम सब निकल पड़े.

भोपाल यहॉं से लगभग 50 किलोमीटर दूर है. सॉंची से चार-पॉंच किलोमीटर की दूरी पर जाते हुए हमने देखा की कर्क रेखा गुजरती है (दि ट्रापिक ऑफ कैन्‍सर) का निशान. तभी एक और बात याद आयी कि उज्‍जैन से भूमध्‍य रेखा भी गुजरती है. याने भारत का एकदम मध्‍यभाग और केन्‍द्र बिन्‍दु उज्‍जैन है. यह शून्‍य स्‍थान है जहॉं से गणना शुरू और आकर समाप्‍त होती है. संभवत: इसी गणितीय आधार और वैज्ञानिकता के चलते स्‍थान को महाकाल भी कहा जाता है. याने जहॉं से सृष्‍टि और समाप्‍ति दोनों ही होती हो. 

इसी उत्‍साह को लिए हम दोपहर तक भोपाल पहुँच चुके थे. एकदम दोपहर का समय था जब हम तुला-उल मस्‍जिद देखने पहुँचे. भोपाल एकदम हैदराबाद जैसा लगा. हिन्‍दू-मुस्‍लिम समुदाय की बहुलता. वैसे ही पुरानी इमारतें, छोटी सड़कें, अस्‍त-व्‍यस्‍त ट्राफिक, सड़कों पर लगी दुकानें और कई चीज़ें बेचते ठेले या बण्‍डियॉं. इस बीच मस्‍जिद से कुछ पहले सड़क किनारे गाड़ी रोक संतरे खरीदे जो बदमज़ा थे. कुछ ही देर में हम मस्‍जिद के अंदर थे. एकदम विशाल बरामदे वाली तीन गुंबद की मस्‍जिद. इसे भोपाल की रानी शाहजहॉं बेगम ने 18 वीं सदि में बनवाना शुरू किया था जो 1901 के आते-आते अधूरी रह गई. बाद में इसकी तामीर पूरी की गई. यहॉं  करीब दस हजार लोग एक साथ नमाज पड़ सकते हैं. हमने देखा इस कलात्‍मक मस्‍जिद के गुंबदो के नीचे मुख्‍य चबूतरे पर एक बड़ा मदरसा चल रहा है. यहॉं धार्मिक तालीम के साथ अन्‍य विषय भी बच्‍चों को पढ़ाये जाते हैं. बच्‍चे तो गाड़ी में ही बैठे रहे. हमने कुछ देर बिताने के बाद 12 बजे की दोपहरी के जलते फर्श पर ठहर एक-एक फोटो खींच ली और निकल पड़े. कुछ सेकण्‍ड और ठहर जाते तो शायद तलवों में छाले आ जाते, फर्श इतना जल रहा था.

रास्‍ते में हमने ताल-तलैया भी देखा पर यहॉं उतरे और रुके नहीं. बरघी डैम और नर्मदा जी में नौकाविहार करने के बाद यहां इच्‍छा नहीं हुई. कुछ देर न्‍यू मार्केट में घूमे और कुछ खरीददारी करनी चाही. पर कुछ खास मिला नहीं. दो-चार नमूने के चूर्ण और चना जोर गरम अवश्‍य खाए. बाकियों ने नारीयल पानी पिया. एक अच्‍छी बात यह हुई कि पिछले कई दिनों से मेरी सैण्‍डल में कुछ चुभने का अहसास हो रहा था जो चुभन बढ़कर यात्राभर सताती रही. यहॉं खड़े-खड़े मोची से कहकर इसमें लगी कील निकलवायी तो पैरों और दिल को राहत मिली. यहॉं से हम एम पी टूरिज्‍म की होटल पलाश आए और पहले से बुक कर रखा लंच किया. करीब दो घण्‍टे यहॉं ए सी में बिताकर स्‍टेशन चल पड़े.

पहुँचकर पता चला कि कर्नाटक संपर्क क्रान्‍ति गाड़ी 35 मिनट लेट है. 4 बजे की जगह 4.45 बजे आयी और हम वापसी के लिए चल पड़े. चूँकि टिकट हमने दिल्‍ली से ले रखा था और बोर्डिंग भोपाल से थी तो कन्‍फर्म टिकट थे पर एक जगह नहीं. चार एक जगह तो, दो दूसरी जगह. अच्‍छी बात ये थी कि एक ही डिब्‍बे में सब थे. सामान्‍यत: शांत और एडजस्‍ट कर लेने वाली महिलाएं यहॉं सामान रखने की जगह खाली करने के लिए लड़ पड़ीं. कह रही थीं कि वे संख्‍या में 80 हैं और लखनऊ से अखिलेश यादव का कार्यक्रम कवर कर लौट रही हैं. हमने इन सब बातों की परवाह किए बिना अपनी जगह बनायी और उनकी कुड़-कुड़ के बीच यात्रा समाप्‍त करने चल पड़े.
जैसे ही सुबह काचीगुड़ा स्‍टेशन पहुँचे तो जैसी खुशी जबलपुर मॉं की जन्‍मभूमि पहुँच हुई थी वैसी ही अपनी जन्‍मभूमि हैदराबाद पहुँच हुई. घण्‍टे भर में घर पहुँच चुके थे और यात्रा की ऊर्जा शरीर से तो दृश्‍य ऑंखों में घूम रहे थे. यह सच है कि एम पी अजब है, सबसे गजब है. अतुल्‍य भारत महसूस करना हो तो एम पी हमें अवश्‍य घूमना चाहिए.

जल्‍द यात्रा पर लौटने की कामना सहित,
समाप्‍त.