Friday, April 26, 2013

जबलपुर से भीमबेटका, भोजपुर, सॉंची और भोपाल


धुऑंधार जबलपुर की शाम बिताने के बाद दूसरे दिन सुबह इडली और पूरी-सब्‍जी का नाश्‍ता कर कलचुरी से विदा लिए. भीमबेटका, भोजपुर देखते हुए सॉंची पहुँचना था. इसीलिए लगभग 350 किलोमीटर की दूरी आठ घंटो में तय करनी थी. जबलपुर से कुछ किलोमीटर के बाद शहर से बाहर आए तो बेहाल सड़क का असली चेहरा सामने आया. यह राजमार्ग है जो दिल्‍ली तक जाता है. ड्राइवर ने बताया कि इसे फोर-ट्रैक बनाया जा रहा है. जगह-जगह काम चल रहा था. रास्‍ते भर हेवी ट्रक और वाहन. गाड़ी, चल कम रही थी और झूल ज्‍यादा रही थी. अब तक की थ्री स्‍टार ए सी यात्रा का यह जनरल रूप था. कड़ी धूप, ऊबड़-खाबड़ सड़क और झूलती गाड़ी. लगभग आधी दूरी तय करने के बाद ड्राइवर चाय के लिए एक ढाबे पर रुका. हमने भी चाय पी और दोपहर दो बजे के करीब एक और जगह सरदार जी के नये दिख रहे ढाबे पर रोक ड्राइवर ने खाना खाया. मेरे साढू भी लगे हाथ भोजन कर लिए. मैं चॉंवल के बने पापड़ों के साथ हेमन्‍त जी का साथ देने बैठ गया. बड़े स्‍वादिष्‍ट थे. हम सबने ठंडा-गरम और पान लेकर लगभग एक घंटे बाद भीमबेटका देखने निकल पड़े.



  












कड़ी धूप में यहॉं पहुँच प्रवेश किया. सड़क से तो कुछ नहीं दिखायी  दिया. भीतर पहाड़ी पर गये तो चौतरफ सूखी झाड़ियां और ऊँची-ऊँची शैल गुफाएं. यह संरक्षित विश्‍व विरासत घोषित पर्यटन स्‍थान है जहॉं पूर्व पाषाणकाल से लेकर मध्‍य और बाद के पाषाणयुगीन आदिमानव द्वारा गुफाओं में रहकर पत्‍थरों पर बनाये गये शैल चित्र हैं. संभवत: अफ्रिका के बाद भारत में यह एकमात्र स्‍थान होगा जहॉं इतने पुराने समय से मनुष्‍य होने और रहने के प्रमाण मौजूद हैं. भारतीय पुरातत्‍व सर्वेक्षण विभाग द्वारा दी गई जानकारी अनुसार यहॉं लगभग 500 ऐसी विशाल और अति प्राचीन गुफाएं हैं जिनमें से केवल 15 गुफाएं ही देखने के लिए खोली गयी हैं. अन्‍य में काम चल रहा है. ये गुफाएं देखते हुए लगा कि स्‍कूल की सामाजिक अध्‍ययन की किताब में मानव सभ्‍यता के आरंभ और विकास के बारे में पढ़ते हुए जो चित्र किताब में थे वे यहीं के थे. पाषाणकालीन समय में आदमी द्वारा पत्‍थरों से बनाये गये अलग-अलग हथियार और काम की अन्‍य चीज़ें. यहॉं लगभग एक लाख साल से चालीस हजार साल पुराने प्रमाण हैं. अंदाज लगाएं कि हम कितने आदिम हैं. बेटी को मैंने ये सभी बातें बतायी और समझाया. गुणाजी तो अब कॉलेज जाने लगा है तो उसे इन सबसे कुछ खास लेना-देना नहीं था. वैसे भी दक्षिण में विशेषकर आन्‍ध्र-प्रदेश में बच्‍चे एक ही विषय जानते हैं, वह है विज्ञान (कैसा और कितना?). एम पी सी पढ़ो और इंजीनियर बनो. आजकल तो केवल इंजीनियरिंग नहीं, आई आई टी ही पहला और आखिरी निशाना है बच्‍चों का. पिछले कुछ सालों के इस माहोल ने यहॉं सोशल साइन्‍सेस और अन्‍य विषयों की पढ़ाई का ढॉंचा लगभग खत्‍म कर दिया है. कुकुरमुत्‍तों की तरह जगह-जगह गली-कूचों में खुल आए प्राइवेट और कॉरपोरेट कॉलेज. अन्‍य कॉलेज, विश्‍वविद्यालय में विज्ञान छोड़ किसी विषय में बच्‍चे नहीं. लेक्‍चरर विज्ञान में सीट नहीं पा सके बच्‍चों को पकड़-पकड़, उनकी फीस भर अपनी नौकरी के मारे, मिन्‍नते करते हैं कि एडमिशन ले लो प्‍लीस. यहॉं बच्‍चों की पढ़ाई मॉं-बाप के लिए भविष्‍य का इन्‍वेस्‍टमेंट होती है. हम तो हिन्‍दी मीडियम से भी पढ़कर लग गये पर इन बच्‍चों का न जाने क्‍या हो. लाखों में इंजीनियर और काम के दाम कौड़ियों में. मालिक करे ज्‍ल्‍द ये मॉं-बाप, बच्‍चों और सरकार को समझ आ जाए कि और भी गम है ज़माने में, मोहब्‍बत के सिवा गालिब’. वरन् समाज-विज्ञान और साहित्‍य रहित समाज मृत और असभ्‍य हो जाता है.
 


इस बीच मैंने पूरी 15 गुफाएं चमचमाती धूप में देखीं. छात्रों के लिए जानने-समझने यह अद्भुत जगह है. अक्‍सर यात्री वहीं जाते हैं जहॉं मनोरंजन हो (भौतिक या धार्मिक). ऐसी जगहों पर अधिकतर जिज्ञासु ही जाते हैं. मेरा गुफाएं देखना पूरा होने तक दूसरे बेचैन हो रहे थे. ऊपर से धूप की तपीश से गरम ये गुफाएं, भीतर से ठंडी थीं. भीतर ही भीतर मुझे यह जगह देख बहुत प्रसन्‍नता हुई. इस जगह की भी खोज अंग्रेजों ने ही की थी. 




 



                   











   

















यहॉं से निकल अब हम भोजपुर के लिए चल पड़े. ये दोनो पर्यटन स्‍थल विपरित दिशाओं में है. करीब
30 कलोमीटर पहुँच हमने भोजपुर में राजा भोज द्वारा पॉचवीं सदी में बनाया गया शिवजी का भोज मंदिर देखा. धूप में तपे फर्श पर नंगे पैर सीढ़ियां चढ़़ विशाल और भव्‍य मंदिर के दर्शन किए. जैसा नाम, वैसा काम. राजा भोज के बारे में जैसे कहा जाता है, वैसा ही दरिया दिली से बनवाया गया लाल पत्‍थर का ये शानदार पर अपूर्ण मंदिर. बाहर से सादे दिखने वाले मंदिर की दीवारें आठ 40 फीट ऊँचे-ऊँचे स्‍तम्‍भों पर टिकी हैं. चार कोनों में दो-दो स्‍तंभ. मुख्‍य गुंबद चार और स्‍तंभों पर टिका है. सामान्‍यत: सभी मंदिर पूर्वाभिमुख होते हैं. पर ये पश्‍चमाभिमुख है.   भीतर चिकने पत्‍थर से निर्मित विशालकाय शिवलंग है. भीतर चारों दिशाओं में गणेश, लक्ष्‍मी 
और सीता की प्रतिमाएं भी दीवारों में शिल्‍पित की गई हैं. मंदिर के बाहर ऊँचाई से वेत्रवती नदी का बचा-कुचा नहरनुमा रूप अब भी दिखाई देता है. कहावत अनुसार यहीं पर माता कुन्‍ती ने कर्ण को नदी में छोड़ दिया था. जनश्रुति यह भी है कि इसे पाण्‍डवों ने बनाना आरंभ किया था. जो भी हो, यह एक खूबसूरत विशाल और भव्‍य मंदिर प्राचीन धरोहर के रूप में खड़ा है जो इतिहास श्रुति बन अपूर्ण खड़ा है. इसकी छत ऊपर से अपूर्ण और द्वार नहीं हैं. द्वारनुमा कमान का ऊपरी हिस्‍सा देखने पर खण्‍डित दिखायी पड़ता है. इससे लगता है कि यहॉं पर भी आक्रमण हुआ होगा.

मन कर रहा था कि यहॉं भी किसी से मिलकर और जानकारी इस इमारत के बारे में ली जाए. पर धूप, देरी और दूरी ने चलने पर मजबूर कर दिया. और, यहॉ से हम सॉंची के लिए निकल पड़े.




शाम 6.00 बजे के आस-पास हम सॉंची पहुँचे. सॉंची भोपाल के बाद विदिशा से 10-12 किलोमीटर पहले पड़ता है. सीधे सॉंची स्‍तूप की टिकट खिड़की के पास गाड़ी रोक पूछे तो पता चला कि और 15-20 मिनट में यह बंद होने वाला है तो इसे सुबह के लिए छोड़ हम एम पी टूरिज्‍़म के होटल चले आए. पहुँचते ही हमने कमरे लेकर सामान रखा और पनीर, प्‍याज तथा  आलू की पकोड़ी के साथ पहले चाय आर्डर की. सुबह की इडली-पूरी हजम हो चुकी थी. बिना समय गँवाए हमने स्‍विमिंग पुल देखा और स्‍टाफ से साफ-सफाई कर लाइट जलाने कह दिया. फ्लड लाइट तो नहीं थी पर मीडियम साइज (15 मीटर लंबा) पुल में कम रोशनी में आधा घण्‍टे तैराकी कर हम ताजादम हो गए. हेमन्‍त जी तब तक आई पी एल मैच का आनंद उठाते अकेले खान-पान का मजा ले रहे थे. इस बीच हम सब भी तैयार होकर खाने चले गए. कमरे में लौटते-लौटते छोनू को तेज बुखार चढ़ आया था. गाड़ी में लगातार पीछे बैठे रहने से खराब सड़क के झटके, गर्मी और थकान से बुखार मामूली बात थी. मेडिकल किट से दवाई निकाल दवाई खिलाई और उसे आराम करने कह दिया. हमें चिंता तो हो रही थी कि ये और न बढ़े. बस एक दिन की बात है और फिर कल हम भोपाल से हैदराबाद वापस चले जाएंगे. खैर, सुबह तक बुखार कम था. हम तैयार होकर 8.00 बजे के बाद नाश्‍ता किए और हमारी श्रीमती जी, साली और मैं विश्‍व प्रसिद्ध सॉंची स्‍तूप देखने चले गये. बच्‍चे और हेमन्‍त जी नहीं आए.

सुबह 9.00 बजे के आस-पास हम भीतर गए. प्रवेश पर मैंने जगह-जगह रूक ऑडियो कमेंट्री वाला इलेक्‍ट्रानिक गाइड हेडफोन सहित ले लिया. यहॉं ये सुविधा 68 रुपये देने पर मिल जाती है. पूरे एक घण्‍टे तक हर विवरण प्‍वाईंट्स पर रूक कर सुना जा सकता है. इसे इलेक्‍ट्रानिकगाइड कहते हैं जो भारतीय सर्वेक्षण विभाग ने तैयार करवाया है.

यहॉं वर्तमान में तीन स्‍तूप हैं. अशोक के समय से लेकर 5वीं शताब्‍दि तक बने स्‍तूप. चूने और मिट्टी (गच्‍ची) से बनी भारत की यह सबसे पुरानी निर्मित इमारत है. 2300 साल पुरानी. संसद भवन की तरह एकदम गोल स्‍तूप को घेरी 36.5 मीटर की दीवार लाइम स्‍टोन / लाल पत्‍थर से बनी है. इसमें शिलाएं आड़ी और खड़ी रख चौखड़ीं या चौकोन के रूप में बनायी गयी है. स्‍तूप अर्द्ध गोलाकार गुंबद की शक्‍ल में है जिसकी ऊँचाई 16.4 मीटर है. स्‍तूप की चार दिशाओं में ईसा पूर्व पहली सदी में सातवाहन राजाओं द्वारा बनाये गये चार तोरण द्वार है जिन पर बुद्ध के बोधिसत्‍व के रूप में पूर्व में और पश्‍चात लिये गये 500 जन्‍मों की कथाएं तराश कर उकेरी गई हैं. अर्द्धगोलाकार स्‍तूप पर एक छतरी और चौकोरनुमा आसान बना है जो प्रतीक रूप में बुद्ध के अस्‍तित्‍व का प्रतीक माना जाता है. वास्‍तव में ये स्‍तूप बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार करने और उनकी कथाओं को संरक्षित करने की दृष्‍टि से बनाये गये ताकि इस धर्म के अनुयायी यहॉं आकर भगवान बुद्ध की तरह ध्‍यानमग्‍न होकर ज्ञान प्राप्‍ति या उसका मार्ग तलाश सकें. तोरणों पर उकेरी कथाओं में बुद्ध के गुजरने के पश्‍चात कुशीनगर, कपिलवस्‍तु और वैशाली के मल्‍लाहों में उनकी अंतिम क्रिया करने के अधिकार को लेकर यूद्ध हुआ था जिसे जीवतं तरीके से दक्षिणी तोरणद्वार पर तराशकर दर्शाया गया है. ये सभी तोरण कला के अद्भुत नमूने हैं.

स्‍तूपों की जब खोज हुई तो यहां बुद्ध से जुड़ा कोई अवशेष नहीं मिला. इतिहासकार ये भी कहते हैं कि बुद्ध कभी यहां आए भी नहीं थे. केवल स्‍तूप तीन गुप्‍तकालीन माना जाता है उसमें बुद्धके दो शिष्‍यों के अवशेष एक पत्‍थर की पेटी में अंग्रेज आक्रमणकारी को मिले थे. पहले इन्‍हें इंग्‍लैण्‍ड ले जाया गया था जो अब वापस लाकर प्रवेश द्वार के पास बने श्रीलंका मंदिर में रखे गये हैं. इन्‍हें दर्शन के लिए साल में एक बार शायद नवंबर माह में खोला जाता है. इस समय यहॉं पूरी दुनिया से लोग आते हैं.

इन स्‍तूपों के अलावा मौजूदा खण्‍डहर देख लगता है कि यहां 45 मंदिर / इमारतें थीं. इनमें एक मंदिर दो मंजिला है. एकदम आखिरी हालत में बचा और खड़ा. दूर से इसमें कुछ दिखाई तो नहीं देता पर यह गुप्‍तकालीन है. इसकी विशेषता यह है कि इसकी दूसरी मंजिल पर जो मूर्ति विद्यमान है वह ब्राह्ण समाज की श्रेष्‍ठ विचारधारा को बौद्ध धर्म में अपनाये जाने को दर्शाती है. नीचे बुद्ध की मूर्ति है. यह मंदिर भारत में शुरूआती मंदिर निर्माण कला का एक संरक्षित नमूना है. संभवत: पॉंचवी सदी या इसके आस-पास ही भारत में मंदिर निर्माण कला का विकास हुआ था. इससे पहले मंदिर हमारे यहॉं अस्‍तित्‍व में नहीं थे.  

एक घण्‍टे से भी ज्‍यादा यहां घूमने –देखने के बाद निकल आए भोपाल रवाना होने. कुछ फोटो आदि खींच गाड़ी में बैठ हम होटल आए जो बामुश्‍किल एक किलोमीटर होगा. अब तक छोनू सो रही थी. देखा तो बुखार कम था और हम सब निकल पड़े.

भोपाल यहॉं से लगभग 50 किलोमीटर दूर है. सॉंची से चार-पॉंच किलोमीटर की दूरी पर जाते हुए हमने देखा की कर्क रेखा गुजरती है (दि ट्रापिक ऑफ कैन्‍सर) का निशान. तभी एक और बात याद आयी कि उज्‍जैन से भूमध्‍य रेखा भी गुजरती है. याने भारत का एकदम मध्‍यभाग और केन्‍द्र बिन्‍दु उज्‍जैन है. यह शून्‍य स्‍थान है जहॉं से गणना शुरू और आकर समाप्‍त होती है. संभवत: इसी गणितीय आधार और वैज्ञानिकता के चलते स्‍थान को महाकाल भी कहा जाता है. याने जहॉं से सृष्‍टि और समाप्‍ति दोनों ही होती हो. 

इसी उत्‍साह को लिए हम दोपहर तक भोपाल पहुँच चुके थे. एकदम दोपहर का समय था जब हम तुला-उल मस्‍जिद देखने पहुँचे. भोपाल एकदम हैदराबाद जैसा लगा. हिन्‍दू-मुस्‍लिम समुदाय की बहुलता. वैसे ही पुरानी इमारतें, छोटी सड़कें, अस्‍त-व्‍यस्‍त ट्राफिक, सड़कों पर लगी दुकानें और कई चीज़ें बेचते ठेले या बण्‍डियॉं. इस बीच मस्‍जिद से कुछ पहले सड़क किनारे गाड़ी रोक संतरे खरीदे जो बदमज़ा थे. कुछ ही देर में हम मस्‍जिद के अंदर थे. एकदम विशाल बरामदे वाली तीन गुंबद की मस्‍जिद. इसे भोपाल की रानी शाहजहॉं बेगम ने 18 वीं सदि में बनवाना शुरू किया था जो 1901 के आते-आते अधूरी रह गई. बाद में इसकी तामीर पूरी की गई. यहॉं  करीब दस हजार लोग एक साथ नमाज पड़ सकते हैं. हमने देखा इस कलात्‍मक मस्‍जिद के गुंबदो के नीचे मुख्‍य चबूतरे पर एक बड़ा मदरसा चल रहा है. यहॉं धार्मिक तालीम के साथ अन्‍य विषय भी बच्‍चों को पढ़ाये जाते हैं. बच्‍चे तो गाड़ी में ही बैठे रहे. हमने कुछ देर बिताने के बाद 12 बजे की दोपहरी के जलते फर्श पर ठहर एक-एक फोटो खींच ली और निकल पड़े. कुछ सेकण्‍ड और ठहर जाते तो शायद तलवों में छाले आ जाते, फर्श इतना जल रहा था.

रास्‍ते में हमने ताल-तलैया भी देखा पर यहॉं उतरे और रुके नहीं. बरघी डैम और नर्मदा जी में नौकाविहार करने के बाद यहां इच्‍छा नहीं हुई. कुछ देर न्‍यू मार्केट में घूमे और कुछ खरीददारी करनी चाही. पर कुछ खास मिला नहीं. दो-चार नमूने के चूर्ण और चना जोर गरम अवश्‍य खाए. बाकियों ने नारीयल पानी पिया. एक अच्‍छी बात यह हुई कि पिछले कई दिनों से मेरी सैण्‍डल में कुछ चुभने का अहसास हो रहा था जो चुभन बढ़कर यात्राभर सताती रही. यहॉं खड़े-खड़े मोची से कहकर इसमें लगी कील निकलवायी तो पैरों और दिल को राहत मिली. यहॉं से हम एम पी टूरिज्‍म की होटल पलाश आए और पहले से बुक कर रखा लंच किया. करीब दो घण्‍टे यहॉं ए सी में बिताकर स्‍टेशन चल पड़े.

पहुँचकर पता चला कि कर्नाटक संपर्क क्रान्‍ति गाड़ी 35 मिनट लेट है. 4 बजे की जगह 4.45 बजे आयी और हम वापसी के लिए चल पड़े. चूँकि टिकट हमने दिल्‍ली से ले रखा था और बोर्डिंग भोपाल से थी तो कन्‍फर्म टिकट थे पर एक जगह नहीं. चार एक जगह तो, दो दूसरी जगह. अच्‍छी बात ये थी कि एक ही डिब्‍बे में सब थे. सामान्‍यत: शांत और एडजस्‍ट कर लेने वाली महिलाएं यहॉं सामान रखने की जगह खाली करने के लिए लड़ पड़ीं. कह रही थीं कि वे संख्‍या में 80 हैं और लखनऊ से अखिलेश यादव का कार्यक्रम कवर कर लौट रही हैं. हमने इन सब बातों की परवाह किए बिना अपनी जगह बनायी और उनकी कुड़-कुड़ के बीच यात्रा समाप्‍त करने चल पड़े.
जैसे ही सुबह काचीगुड़ा स्‍टेशन पहुँचे तो जैसी खुशी जबलपुर मॉं की जन्‍मभूमि पहुँच हुई थी वैसी ही अपनी जन्‍मभूमि हैदराबाद पहुँच हुई. घण्‍टे भर में घर पहुँच चुके थे और यात्रा की ऊर्जा शरीर से तो दृश्‍य ऑंखों में घूम रहे थे. यह सच है कि एम पी अजब है, सबसे गजब है. अतुल्‍य भारत महसूस करना हो तो एम पी हमें अवश्‍य घूमना चाहिए.

जल्‍द यात्रा पर लौटने की कामना सहित,
समाप्‍त.  

Tuesday, April 23, 2013

अमरकंटक से जबलपुर


अमरकंटक से जाते समय वहॉं के स्‍टाफ से एक बात और पूछी की क्‍या यहॉं बर्फ भी गिरती है तो उन्‍होंने बताया कि हॉं जनवरी में बर्फ भी गिर जाती है कभी-कभी. घाट उतरना था, सो बस स्‍टैण्‍ड के पास रुक ऑंवला सुपारी ले लिये. जिस डिब्‍बेनुमा दुकान पर रुके थे उसके साथ तीन-चार और भी दुकानें थीं. सभी महिलाएं चला रही थीं. अमरकंटक जैसी जगह यह देख बहुत खुशी हुई. मैंने जिस दुकान से ऑंवला खरीदा उसमें एक छोटी बच्‍ची भी थी. जिज्ञासावश पूछा कि क्‍या स्‍कूल भी जाती हो तो कहा कि हॉं 9वीं कक्षा में पढ़ती हूँ. सुबह-शाम मॉं की मदद करती हूँ. इस कम उम्र में यह अहसास और लगाव देख लगा कि यह लड़की एक दिन जरूर कुछ बनेगी. वैसे अब तक यात्रा में एक बात और गौर करने वाली दिखाई दी कि स्‍त्री भ्रूण हत्‍या रोकने के लिए और समाज में स्‍त्रियों के मान-सम्‍मान की रक्षा संबंधी जागरुकता के लिए गॉंव, जिले और कस्‍बों में कई जगह दीवारों पर बने और लगे पोस्‍टर बैनर दिखे. याने हरियाणा और राजस्‍थान वाली दीमक यहॉं भी है.
जबलपुर से कान्‍हा, कान्‍हा से अमरकंटक तथा यहां से जबलपुर के लिए सड़क भी बहुत अच्‍छी है. अब तक की यात्रा में लगा कि सड़कों पर विशेष ध्‍यान दिया गया है. आजकल हीरो होण्‍डा गाड़ी के विज्ञापन में बात कही जाती है कि जो सड़क शहर से गॉंव की तरफ जाती है वही गॉंव से शहर की तरफ भी जा सकती है. यहॉं ये सच भी लगा. एक सड़क गॉंव के लिए बहुत कुछ ला देती है. और यहीं से शुरू होता है गॉंव में शहर का जमना और हावी होना. पूराने पर नये का जोर और राज.
इन्‍हीं साफ-सुथरी सड़कों से होते हम जबलपुर के रास्‍ते पर थे. बीच में दो घण्‍टे बाद उत्‍तम ड्राइवर ने इंडियन आयल के पेट्रोल पंप के पास गाड़ी रोकी. कहा कि ये नया ढाबा है. यहॉं रुकेंगे, मुझे डीजल भी डलाना है. हम भी हेमन्‍त जी को छोड़ पेट्रोल पंप पर गये और निवृत्‍त हो लिए. लौटकर अमरकंटक के मिश्र जी खानसामा द्वारा पैक नाश्‍ता किए. यहॉं नाश्‍ते में पोहे इडली का विकल्‍प है. बढि़या बनाये जाते हैं. गरम थे. सभी ने खाए. साथ ही, हेमन्‍त जी ने आलू पराठा भी आर्डर कर दिया तो एक-एक कर चार सबने चट कर लिये. ये पराठे पिछले साल इन्‍हीं दिनों शिमला होते हुए दिल्‍ली आते समय चंडीगढ़ बार्डर पर पंजाबी ढाबे के लजीज़ पराठों की याद दिला रहे थे. बड़े स्‍वादिष्‍ट. पराठों की चटख और इसके साथ मक्‍खन और दही की मिठास तो अब भी जबान पर है. लगे हाथ हमारी बेगम ने बच्‍चे को नीबू पानी बनाने कहा. गर्मी के मारे नीबू में से नी (रस) गायब और केवल बू थी. आड़ा काटने से उसमें रस नहीं आया तो उसे नीबू काटने की क्‍लास अटेण्‍ड करनी पड़ी. यहॉं से चल पड़े सीधे जबलपुर.

होटल कलचूरी में लगा आर्ट

सुबह सात बजे निकले थे और लगभग 11.30 बजे  230-40 किलोमीटर पार जबलपुर पहुँच गये. पूरे रास्‍ते कहीं कोई इंडस्‍ट्री नहीं दिखाई दी. यह एक और विशेषता इस क्षेत्र की दिखी. शायद यह भी एक वजह हैं यहॉं जंगल और जमीन अब तक बचे हैं. जबलपुर के कलचूरी होटल पहुँचे तो गेट पर ही गाड़ी रोक दी गयी. पता चला कि भीतर गवर्नर साहब का कार्यक्रम चल रहा है. अंदर गए तो पता चला कि छत्‍तीसगढ़ के गवर्नर गोंड व अन्‍य आदिवासियों से जुड़े किसी कार्यक्रम में आए हुए हैं और लंच तक कार्यक्रम चलेगा. इस वी आई पी वातावरण के दबदबे में हमें रूम आदि मिल गए. बाहर से भीतर तक एकदम आलीशान होटल. लगा कि कलचूरी राजाओं के नाम अनुसार होटल है. संभवत: यह जबलपुर के सबसे अच्‍छी होटलों में एक अवश्‍य होगी. बढ़िया हास्‍पिटालिटी और खूबसूरत आरामदायक कमरे. लगा कि एक दिन रुकना काफी नहीं. यहां अलग से आना पड़ेगा.          

बरघी डैम में क्रूस पर 
सामान रख यहॉं से बरगी डैम देखने रवाना हुए. लगभग 45 किलोमीटर दूर नर्मदा नदी पर बना यह विशाल और खूबसूरत डैम है. बताया गया कि नर्मदा पर 30 से अधिक डैम बने हैं. पर यह सच में विशाल और विस्‍तृत. हमने तो अब तक केरल, हिमाचल और उत्‍तराखंड के ही कुछ डैम यात्रा मे देखे थे. पर जैसे बताया गया कि जबलपुर में यहॉं अवश्‍य जाएं. एकदम साफ और ताजे पानी से लबालब भरा और गहरा डैम. यहॉं एम पी टूरिज्‍म का रेस्‍टॉरेंट भी है. हमारा लंच कलचूरी में था. हमने अनुरोध कर इसे यहां ट्रान्‍सफर करवा लिया था. यहॉं स्‍पीड और क्रूस दो तरह की बोटिंग होती है. स्‍पीड पॉंच-सात मिनट की और क्रूस 45 मिनट की. 45 मिनट वाली मे बैठने 20 लोग कम से कम होने चाहिए. पूछा तो पता चला कि इसमें समय लगेगा. हमसे पहले केवल दो लड़कियॉं एक घण्‍टे से ज्‍यादा समय से इंतजार कर रही थी. तो संख्‍या 8 ही हुई. कुछ देर बैठे तो संख्‍या बढ़ी और 15-20 मिनट में ही टिकट खरीदने की घोषणा के साथ हम नीचे चल पड़े. शानदार बोट. और लोग आने की चक्‍कर में 15-20 मिनट बोट पर ही इंतजार करना पड़ा. जब सबने हो-हल्‍ला किया तो वह चल पड़ा. कड़ी धूप में छल-छल चमकते पानी पर बोटिंग एक सुखद आश्‍चर्य था. अंडाकार रूप में घुमाते क्रूस चली. एक परिवार छोटे बालक को नचाने के बहाने बीट संगीत पर झूमने लगा. समा और बंध गया. कोने में एक बड़ी उमर का जोड़ा भी था जो चुप-चाप फोटो, वीडियो एक-दूसरे के लेता जा रहा था. उनकी आंखों में अपने को जवॉं महसूस कर दूसरों के साथ होने के भाव साफ देखे जा सकते थे. वह दो इंतजारी लड़कियां भी अपने मार्डन होने का सबूत दे रही थीं. हमने भी दिल भर फोटो-वीडियो लिये. आश्‍चर्य लगा कि रविवार होते हुए भी इतनी खूबसूरत जगह लोग कम. अगर हैदराबाद में ऐसा स्‍पाट हो तो बोटिंग की एडवान्‍स कराना पड़ जाए. बोट लौटी. एक-एक कर सब डगमगाते उतरे. पगडण्‍डी पर चलती वे दोनेां लड़कियों का किसी संदर्भ में हिन्‍दी में गिनती नहीं जानने में एक-दूसरे से आगे होने का बड़ बोलापन देख लगा कि यह अंग्रेजी और कितना सत्‍यानाश करेगी हमारा. खैर, भूख के अंदाजे से बोट पर जाने से पहले ही खाना आर्डर कर चुके थे कि बोट आते देख वह खाना लगा दे. ऐसा ही हुआ. एकदम लज़ीज खाना. कड़ी-पकौड़ा तो क्‍या कहूँ. लाजवाब. लिख भी रहा हॅूं तो पानी आ रहा है. खूब खाए और टुन्‍न होकर गाड़ी में बैठ गये भेड़ाघाट जाने. यह भी काफी दूर है यहॉं से.
पहली बार छोटी और खराब सड़क से रू-ब-रू हुए. सड़क इतनी खराब कि अब तक की पूरी अच्‍छी सड़क पर ये भारी. गड्ढों में सड़क. खाना तो लग रहा था पता नहीं कौनसे सुराख से बाहर आ जाए. हमारी साली को तो दो जेल्‍यूसिल एकदम लेना पड़ा. लगभग 15-20 किलोमीटर के इस पैच के बाद साफ सड़क आयी तो सबके मुँह से निकला अम्‍मॉं! सड़क आ गई’. ड्राइवर से पूछे और कितनी दूर, तो लगभग इतना और बताया. बहरहाल, शाम 5.00 बजे के आसपास भेड़ाघाट पहुँचे. जल्‍दी-जल्‍दी किनारे चलते, भेड़ाघाट देखे. देखते ही बोल पड़े वॉव! नर्मदा के बहाव का विकराल रूप. संगमरमर की पहाडि़यों में खाईनुमा होकर गिरता जलप्रपात. एकदम दूधिया पानी. अमरकंटक में केवल एक कुंड से निकल इतना पानी कहॉं से आता होगा. यह प्रकृति का अद्भुत नजारा देख विश्‍वास नहीं होता. उत्‍तर में तो समझ आता है कि नदियों में पानी ग्‍लेशियर से पिघल कर हिमालय से आता होगा. पर यहॉं कैसे? अब भी यह भरोसा नहीं होता. सदियों से इतना पानी बह रहा है. ऐसा लगा सबको तारने केवल ये एक ही नदी काफी है. भारत की नियागारा फाल्‍स’. अवश्‍य देखना चाहिए. मॉं ने जाने से पहले ही कह दिया था कि इस जगह जरूर जाना चाहिए. यहॉं कुछ मिनट भी नहीं हुए कि एक आदमी आ गया. साहब तीस रूपये दो तो मैं छलांग लगाकर दिखाऊँ. मुझे विश्‍वास नहीं हुआ. 50 फीट लगभग से इतने तूफानी बहाव में छलांग लगाना. अदम्‍य साहस की बात. वह कूदा और हम देखते रह गये. एक मिनट के भीतर ही वह कूदा, तैर कर निकला और ऊपर आ गया. सलमान खान ने किया, नहीं किया, पता नहीं पर उस आदमी ने तो आज कुछ तूफानी कर दिखाया. यहॉं हमने तीन-तीन की फोटो भी खिंचवायी. मैंने भी कई फोटो लिये. धूप सीधे पानी पर पड़ रही थी तो इन्‍द्रधनुष पानी में मनोरम दृश्‍य और पानी का रोशनी से प्‍यार जाहिर कर रहा था. ये इन्‍द्रधनुष ऐसे लग रहा था मानो किसी विशाल खूबसूरत माथे पर खड़ा चन्‍द्रनुमा टीका हो. कई लोग यहॉं किनारे पैर डालकर बैठे तो कुछ भीगने का मजा ले रहे थे. समय की कमी ने मुझे यह कसक दे दी. याने अगली बार जाने कुछ तो बाकी रहना चाहिए. किनारे संगमरमर के छोटे-बड़े पत्‍थरों में कलाकारी करते कलाकारों की दुकानें. एक से एक खूबसूरत पत्‍थर पर काम. दिल तो कर रहा था कि हर एक के पास कुछ न कुछ खरीदूँ. इस अहसास को समझ श्रीमती जी बोलती रही अजी चलो, चलो, देर हो रही है’. मैं आगे-पीछे होते चल पड़ा. घाट के उुपर यहॉं आसमानी झूला (रोप वे) भी बना है. हम कम समय के चलते इसमें नहीं बैठ पाये.
लाल संगमरमर



गुलाबी संगमरमर
लगभग 500 फीट गहरा पानी
दूधीय चट्टान 
सामने नदी की दूसरी ओर पहाड़ी चढ़कर दुकान से खींची फोटो लिये और कार में बैठ नदी में नौकाविहार करने चल पड़े. यहॉं भी घाट पर काफी नीचे जाना पड़ता है सीढ़ियों से. काफी लोग खड़े थे. दो नाव लगी थी. पूछा तो कहने लगे पहले से बुक है. और दो-तीन को पूछे तो वे आपस में बात कर कहने लगे अभी वो देखो बोट आ रही है. उसमें बैठना. सब अव्‍यवस्‍था लगी. कोई टिकट काउण्‍टर नहीं, कोई इंचार्ज नहीं. केवटों के ग्रूप बने हैं. वे स्‍थानीय भाषा में बात कर ज्‍यादा रूपये ऐंठने की चक्‍कर में दिखे. मनमर्जी पैसा पूछा तो मैंने 15-20 मिनट बाद एक चबुतरे पर बने खुले ऑफिस नुमा टेबल के पास एक आदमी को पकड़ पूछा कि यहॉं बोटिंग का क्‍या तरीका है. उसने कहा आदमी के 31 रूपये दो और बैठ जाओ. लेकिन कोई आने तैयार ही नहीं. बड़ी मुश्‍किल से एक बोट में उसने कई लोगों के पुकारे के बाद 15-20 लोगों को नाव में बैठाया. बैठते ही केवट उतर गये. वे आपस में कहा-सुनी करने लगे. किसी तरह 10 मिनट में दूसरे केवट दिनेश, लालू और उसके साथी बोट में आ गए और सबको हिदायत देकर नाव खेवने लगे. नाव चली. संगमरमर की पहाड़ियों और चट्टानों के बीच गंभीर मुद्रा में बहती सघन बहाव की नर्मदा. पता नहीं नाव में बैठते ही लगा नदी गहरी होगी. कुछ पचास एक मीटर चलते ही पूछने पर दिनेश ने अपना नया रूप दिखाया कवि और शायरनुमा गाइड. सख्‍त, गठीले आंग का दुबला बीस-एक साल का दिनेश. और चप्‍पू पर चलते उसके हाथ और रसभरी तुकबंद कमेंट्री ऐसे लग रहा था पानी पर चप्‍पू की थाप और उसका काव्‍य संगीत पैदा कर रहा है. यहां भी छोटे-छोटे बच्‍चे 8,10 और 12 साल के, बोट में बैठने से पहले कह रहे थे, साहब 20 रूपये दो मैं नदी में छलांग लगाऊँगा. वो बीच की पहाड़ी पर तैर कर जाउुँगा और कूदूँगा. एक लड़के से पूछा तो बताया कि 9 वीं कक्षा में पड़ता है. परीक्षा हो गई है इसलिए अब छलांग लगाने आ जाता हूँ. कुदरत के करीब रहें तो यह हमें क्‍या और कैसे बनाती है. अंदाज लगाएं. जिस गहरी नदी में बोट में सवार होकर डर रहे थे, उसमें ये बालक साफ-सुथरा मैदान समझ खेल-कूद रहे थे. भगवान करे वहॉं के सभी बच्‍चे ऐसे ही साहसी, बहादुर और कुदरत के करीब रहें. यह सब देखते हम नदी में पहाड़ियों में खो चुके थे. मैं पानी में बीच-बीच में हाथ डाल मजे ले रहा था. दिनेश कभी कहता ये देखो, संगमरमर की ब्‍लैक अण्‍ड वहाइट पहाड़ी, तो दूसरी तरफ कभी गुलाबी चट्टान 100-150 फीट ऊँची तो कभी इतनी ही ऊँची नीली चट्टानें. और पानी 250 फीट गहरा, 350 फीट गहरा. लगभग एक-देढ़ किलोमीटर जाने के बाद दो दूधिया चट्टानों के बीच कहा कि यहॉं पानी 600 फीट गहरा और मगरमच्‍छ (अब नहीं है) तो सांसे सबकी थम गयी. मैंने इतने में दो बड़े भँवर देखे. दिनेश यह देख सावधान हो गया. लगभग चार-पॉंच सौ मीटर बहुत गहरे पानी में आगे आ चुका था सो लालू को घुमाने का ईशारा किया. खतरा लगा. एक जगह नाव चट्टान के एकदम पास में चली गयी और चप्‍पू टकरा भी गये. मुझे अहसास हुआ कि पानी के विपरित नौका चलाना कितना कठिन होता है. हम अबतक लगभग दो से ज्‍यादा किलोमीटर अंदर आ चुके थे. दूसरी नौकाएं कुछ छोटी और कमजोर होने से पानी के बहाव में ताप नहीं ला सकती थी इसीलिए बहाव के बीच ही एकाध किलोमीटर पर रुक गयीं. दिनेश ने 30 की जगह हर आदमी से 50 रुपये लेने की बात कह हमें बहुत आगे तक ले गया. उसकी कमेंट्री और हाथ पूरे एक घण्‍टे चलते रहे. ये नजारा और ये क्षण हमारे लिये अद्भुत था. डर, साहस और रोमांच का आकर्षण. ऐसे क्षणों में आदमी को भीतर ही भीतर ये अहसास हो जाता है कि वह निर्भीक और साहसी है या डरपोक. क्‍योंकि कुछ क्षण ऐसे आते हैं जब आपको लगता है कि अब गया, अब कुछ हुआ. होता नहीं केवल लगता है और ये क्षण बता देता है कि आप असल में क्‍या हैं. खैर, वापसी सुखद रही. दिनेश कह रहा था कि आज पानी का बहाव तेज है. बरघी से पानी बहुत तेज आ रहा है. इतने में वापसी में करीब 100 फिट ऊँची चट्टान से एक 10-12 साल की उम्र का लड़ाका जोर-जोर से आवाज दे रहा था. साहब बीस रूपये देंगे तो मैं यहॉं से छलांग लगा दूँगा. लालू ने कहा सर ये सच में कूद जाएगा. मैंने पूछा कुछ नहीं होगा. तो, बताया सर ये और भी छोटे थे तब से छलॉंग लगाते आ रहे हैं. ठीक है, कहने पर लालू ने कहा कूद जइयो, बीस रूपये मिरे से ले लेना’. बस लड़ने ने छलांग लगा दी. मैंने छोनू से कहा देख बेटा वह कूदकर ऊपर भी आ गया और बैक स्‍ट्रोक तैर कर आ रहा है. ये देख लगा हमारी रोज की स्‍विमिंग पूल की स्‍विमिंग रेंगने के बराबर भी नहीं है. ये लड़के तो नर्मदा के बहाव के जैसे अंग हैं. पानी पे ये यूँ तैरते हैं जैसे ज़मीन पे ुफुदक-फुदक रस्‍सी लेकर पैरों से कूदती कोई बालिका. ऐसे साहसी बालकों को क्‍या बुखार, खॉंसी, नजला सताएगा. ऋतिक रोशन को तो सबने ड्यू के लिए विज्ञापन में ऐसी ही छलांग लगाते देखा पर जो सच में हमने देखा वह डर के आगे जीत ही थी. याने डर को जितना जल्‍दी जीत लो उतना अच्‍छा तो इन साहसी और निर्भीक बालकों की तरह हो सकते हैं.

बारिश में यहॉं भी नौका विहार बंद रहता है. लेकिन, चॉंदनी में आज भी यहॉं बोटिंग होती है. हजार-पन्‍द्रह सौ देकर नाव में चॉंद की रौशनी में नहाती दूधिया चट्टानों के बीच नदी के चौड़े पाट में नौका विहार करना कितना रोमांचित करने वाला और मनोरम होता होगा यह अनुभव करना अभी शेष है. ऊपर आते-आते मैंने एक मॉं से बुद्ध की बनी मूर्ति ली और छोनू का संगमरमर पर नाम खुदवाकर याद के रूप में साथ ले आया. इस पूरे नौका विहार के दौरान तथा यात्रा की शुरूआत से मेरे भाई बृहस्‍पति जी की एक बात बार-बार याद आती रही. जब वे बरसों पहले यहॉं विजयबहादुर सिंह जी के पास होकर घूमने आये थे और शमशेर बहादुर सिंह और अन्‍य के साथ नौका-विहार करते हुए काव्‍यपाठ का आनंद लिया था. नदी से बाहर निकल ऊपर आये तो साढ़े छ: - पौने सात बज चुके थे. बगल में स्‍थित देवी का शक्‍तिपीठ कहा जाने वाला चौंसठ योगिनी मंदिर के दर्शन नहीं कर पाये. यह भी सूर्यास्‍त के साथ बंद हो जाता है. लेकिन जितना हो चुका था, बस, लगा कि यात्रा हो गयी. यहॉं से निकल जबलपुर लौट चले.
रास्‍ते में होटल आने से पहले पटेल ने कहा कि साहब जैन मंदिर जरूर देखते जाना. यह खास है. आठ बज रहे थे. मंदिर के प्रांगण में गाड़ी रोक तेजी से मंदिर के दर्शन किए. यह मंदिर खास है. यहॉं सभी जैन ऋषि-मुनियों की छोटी-छोटी मूर्तियों को ब्रम्‍हाण्‍डनुमा नीले रंग के आसमान तले गुम्‍बद में स्‍थापित किया गया है. इससे यह पता चलता है कि ऋषि सर्वव्‍यापी होते हैं और इनकी विचारधार धर्म-जातियों से परे सर्वकालिक. याने भूलोक से ब्रह्मलोक तक.
होटल पहुँच थोड़ी देर स्‍विमिंग किए और भोजन कर सुबह सॉंची निकलने आराम. 

क्रमश: