Wednesday, March 31, 2010

एक लघुकथा और समीक्षा

बुढ़ापा

-- मनोज कुमार
देवी मां के दर्शन के लिए पहाड़ की ऊँची चढ़ाई चढ़ कर जाना होता था। सत्तर पार कर चुकी उस वृद्धा के मन में अपनी संतान की सफलता एवं जीवन की कुछेक अभिलाषा पूर्ण होने के कारण मां के दरबार में शीष झुकाने की इच्‍छा बलवती हुई और इस दुर्गम यात्रा पर जाने की उसने ठान ली। चिलचिलाती धूप और पहाड़ की चढ़ाई से क्षण भर को उसका संतुलन बिगड़ा और लाठी फिसल गई।
पीछे से अपनी धुन में आता नवयुवक उस लाठी से टकराया और गिर पड़ा। उठते ही अंग्रेजी के दो चार भद्दे शब्‍द निकाले और चीखा, ऐ बुढि़या देख कर नहीं चल सकती।
पीछे से आते तीस साल के युवक एवं 35 साल की महिला ने सहारा दे उस वृद्धा को उठाया। युवक बोला,भाई थोड़ा संयम रखो। इस बुढि़या का ही देखो IAS बेटा और डॉक्‍टर बेटी है। पर बेटे का प्रशासनिक अनुभव और बेटी की चिकित्‍सकीय दक्षता भी इसे बूढ़ी होने से रोक नहीं सका। और वह नालायक संतान हम ही हैं। पर भाई मेरे - बुढ़ापा तुम्‍हारी जिंदगी में न आए इसका उपाय कर लेना।

ऑंच पर 'बुढ़ापा'

मनोज ब्‍लाग के आरंभ से अब तक बहुत कुछ बेहतरीन, स्‍तरीय और ज्ञानवर्द्धक सामग्री हमें पढ़ने मिली है. जहॉं तक लघुकथा का प्रश्‍न है यह कैसी होती है और क्‍या होती है जैसे प्रश्‍न प्रतिक्रिया और फोन के माध्‍यम से चर्चा में थे. आज जैसे ही 'बुढ़ापा' लघुकथा मनोज कुमार जी की पढ़ी, लगा मनोज जी और परशुराम राय जी के आदेश का पालन करते हुए ऑंच में हाथ धर दूँ.

इससे पहले मैंने अपनी प्रतिक्रियाएं व्‍यक्‍त की हैं विशेषकर मनोजकुमार, परशुराम राय और हरीशप्रकाश गुप्‍त के लेखन को लेकर. विशेषकर 'ब्‍लेसिंग' और 'रो मत मिक्‍की' इन दो लघुकथाओं पर काफी प्रतिक्रियाएं भी प्राप्‍त हुईं. परन्‍तु 'ब्‍लेसिंग' मेरे विचार से अबतक एक अच्‍छा उदाहरण थी लघुकथा की. लेकिन, 'बुढ़ापा' पढ़ने के बाद यह क्‍या होती है और कैसे होती है, प्रश्‍न खत्‍म हो जाते हैं.
विषय, पात्र, शैली और प्रस्‍तुति की दृष्‍टि से एकदम गुँथीहुई, अर्थ से लबरेज़, मर्मस्‍पर्शी, बोधगम्‍य और शिक्षाप्रद कथा. यह एक 'क्‍लासिक एक्‍साम्‍पल' हो सकता है लघुकथा का.

कथा पढ़कर स्‍पष्‍ट है कि कथालेखन से पूर्व लेखक के मन और मस्‍तिष्‍क में कई ड्राफ्ट फ्रेम बने और जब यह अंतिम रूप में सामने आई तो इसकी शुरूआत से लगता है कि जैसे यह गुलज़ार या श्‍याम बेनेगल की किसी बेहतरीन हिन्‍दी फिल्‍म का पहला दृश्‍य हो. इसे लिखा नहीं रचा गया है. पूरी कथा में प्रस्‍तुति बिम्‍बाम्‍बत्‍मक है. कमाल यह है कि किसी पात्र का नाम नहीं है और पढ़ते हुए इसकी कहीं कमी नहीं खलती. बिना पात्रों के नाम दिए कथा लिखना यह लेखक की वैचारिक गहराई और कलात्‍मकता का परिचायक है. अधिकतर रचनाएं पात्रों के नाम से प्रचलित और अमर होती हैं जैसे गोदान उपन्‍यास का 'होरी'. पर, बिना पात्र का नाम लिए रचना प्रचलित हो पाए यह लेखन और कथ्‍य का निकष है.
इस कथा में समाज के चार ऐसे जिन्‍दा चरित्र हैं जो हर मोड़ पर दिखाई पडते हैं. बुढ़िया (मॉं, दादी, नानी आदि के रूप में) याने एक बेकार व लाचार बोझ भरी औरत जिसकी किसीको आवश्‍यकता नहीं होती. अल्‍हड़ नवयुवक जो सामान्‍यत: अक्‍सर बड़ों के साथ अशिष्‍टता से पेश आते देखे जा सकते हैं. दूसरी ओर आज के वक्‍त के मुताबिक डाक्‍टरी पढ़ी बेटी और आई ए एस बेटा जो स्‍वयं तो युवा, शिक्षित, प्रतिष्‍ठित और संपन्‍न हैं पर संस्‍कारी व जिम्‍मेदार भी हैं. इनका उस नवयुवक के साथ गाली देने पर विनयशीलता से पेश आना उसकी मानसिक स्‍थिरता और सिचुएशन हैंडलिंग को दर्शाता है कि है कि एक आई ए एस अधिकारी केवल शिक्षित नहीं होता अपितु जीवन व्‍यवहार में उस ज्ञान को शामिल भी करता है. अंत में उसके द्वारा कहा गया वाक्‍य किसी मार और श्राप से बढ़कर है.
'युवक बोला,“भाई थोड़ा संयम रखो। इस बुढि़या को ही देखो IAS बेटा और डॉक्‍टर बेटी है। पर बेटे का प्रशासनिक अनुभव और बेटी की चिकित्‍सकीय दक्षता भी इसे बूढ़ी होने से रोक नहीं सका। और वह नालायक संतान हम ही हैं। पर भाई मेरे - बुढ़ापा तुम्‍हारी जिंदगी में न आए इसका उपाय कर लेना।”
यदि बुढ़ों का और बुढ़ापे का आदर क्‍या होता है कोई पूछे तो उसे यह कथा सुना देना काफी होगा.

कथा के कुछ और भी पहलू हैं जिसे पढ़कर आनंद लिया जा सकता है. कुल मिलाकर एक बेहतरीन लघुकथा मनोज जी ने लिखी है जिसके लिए वे बधाई के हक़दार हैं.

होमनिधि शर्मा

Wednesday, March 24, 2010

इन्कलाब ! जिंदाबाद !!

साभार मनोज से

मंगलवार, २३ मार्च २०१०

इन्कलाब ! जिंदाबाद !!

नाम आज कोई याँ नहीं लेता है उन्हों का !
जिन लोगों के कल मुल्क ये सब ज़ेर-ए-नगीं था !!
नमस्कार !
अखबार के एक पन्ने पर छपे विज्ञापननुमा नज़ारे से एक ख्याल आया। शहीद-ए-आज़म भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव ने वर्षों पूर्व आज ही के दिन 23 मार्च 1931 को वतन की राह में हँसते-हँसते फांसी के तख्ते को चूम लिया था। तो आओ "जो शहीद हुए हैं उनकी जरा याद करो कुर्बानी !" शाहीद-ए-आजम के जिन्दगी की मुख़्तसर झांकी !
-- करण समस्तीपुरी

"हज़ारों साल नर्गिस अपनी बेनूरी पे रोती है !
बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदावर कोई पैदा !!"

अंग्रेजों के अधीन भारत के पंजाब प्रान्त के लायालपुर जिले के खटकर कलां गाँव में रहता था सरदार अर्जुन सिंह का परिवार। इसी परिवार के किशन सिंह संधू और विद्यावती के
घर जब 27 सितम्बर 1907 को नवजात बालक की किलकारी गूंजी तो दादा अर्जुन सिंह ने उसे नाम दिया, 'भगत.... भगत सिंह !'
"ओ मेरे अहबाब ! क्या-क्या नुमाया कर गए !
बी.ए किये, नौकर हुए, पेंशन मिली और मर गए !!"
आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद से प्रभावित दादा ने पोते को शिक्षा के लिए लाहौर के डी.ए.वी हाई स्कूल भेजा। 'पोथी पढि-पढि तो जग मुआ.... ।' वतनपरस्ती के जज्बे वाले परिवार के वारिश भगत सिंह का जन्म तो किसी और उद्देश्य के लिए हुआ था। महात्मा गाँधी के असहयोग आन्दोलन को बड़ी तवज्जो से देख रहे थे।
भगत सिंह तब लाहौर के नॅशनल कॉलेज में थे। पंजाब हिंदी साहित्य सम्मलेन की व्याख्यान प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार जीता। भगत सिंह का यह व्याख्यान अनेक विरोक्तियों से लवरेज था, जिसने प्रो विद्यालंकार जी को बरबस आकर्षित किया। बाद में विद्यालंकार जी की प्रेरणा पर ही भगत सिंह ने रामप्रसाद 'बिस्मिल' और असफाक-उल्ला खाँ की पार्टी हिंदुस्तान रिपब्लिकन असोशिएसन के सदस्य बन गए। 1928 में दिल्ली में देश भर के क्रांतिकारियों की रैली हुई थी डेल्ही में, 'कीर्ति किसान पार्टी' के बैनर तले। भगत सिंह इसके महासचिव थे। देश भर में आजादी की चिंगारी को हवा देते रहे।

"सरफरोसी की तमन्ना अब हमारे दिल में है ! देखना है जोर कितना बाजू-ए-कातिल में है !!"

किस मजबूत मिट्टी का बने थे भगत सिंह.... उनके फौलादी इरादों की झलक तो तभी मिल गयी थी जब वे महज बीस साल की उम्र में पहली दफा जेल गए और देशी और विदेशी सभी राजनितिक बंदियों के लिए समान व्यवहार की मांग करते हुए जमा 64 दिनों तक उपवास किया था।
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की दो धाराएँ हो गयी थी। गांधीजी के नरम-दल की अपेक्षा 'लाल-बाल-पाल' का गरम नेतृत्व भगत सिंह को अधिक रास आता था। 30 अक्तूबर 1928 को अंग्रेजों द्वारा लाये गए 'साइमन कमीशन' के शांतिपूर्ण विरोध मार्च का नेतृत्व कर रहे लाला लाजपत राय पर ब्रिटिश पुलिस ने बर्बरता से लाठियां बरसाई। बुरी तरह चोटिल लाला जी बुढापे की दहलीज पर अंग्रेजी कहर झेल नहीं पाए और स्वर्ग सिधार गए। "लाला जी पर चली एक-एक लाठी अंग्रेजी हुकूमत के ताबूत में आखिरी कील होगी........" भगत सिंह ने लालजी की हत्या के दोषी पुलिस चीफ स्कॉट को मार गिराने की कसम खाई।
भगत सिंह के 'मिशन किल स्कॉट' में उनके साथी थे राजगुरु, सुखदेव और जय गोपाल। जय गोपाल पर था स्कॉट को पहचान कर भगत सिंह को इशारा करने का जिम्मा। पहचानने में भूल हुई और गोपाल के इशारे पर भगत सिंह ने लाहौर के डी.एस.पी सांडर्स पर गोलियां बरसा दी। लाहौर की पुलिस भगत सींह को पकड़ नहीं पायी। दाढ़ी और बाल कटा ऐसा भेष बदला कि जब तक कहे नहीं कोई न पहचाने। आज़ादी की लहर को देश भर में दौड़ाते रहे।

ब्रितानी हुकूमत अस्सेम्बली में 'डिफेन्स इंडिया एक्ट' लाने वाली थी। भगत सिंह के दल ने बिल को न लाने देने का फैसला किया। बिल लाया गया तो अस्सेम्बली में बम फेंका जाएगा। इस बार भगत सिंह के साथ थे बटुकेश्वर दत्त। 9 अप्रैल 1929 को लाहौर की अस्सेम्बली में दोनों ने आखिर बम तो फेंके ही साथ ही पर्चे भी बांटे जिस पर लिखा था, "बहरों को सुनाने के लिए धमाकों की जरूरत होती है....!" बम फेंकें के बाद वे वहाँ से भागे नहीं। 'इन्कलाब - जिंदाबाद' कहते हुए खुद को गिरफ्तार होने दिया।
"मेरा रंग दे बसंती चोला.... रंग दे बसंती चोला.... माये रंग दे........ !!"
केस चला। चंद अभियोग लगाए गए। फांसी की सजा सुनाई गयी। 23 मार्च 1931 को सुबह 8 बजे फांसी मुक़र्रर हुई। लेकिन भगत सिंह की लोकप्रियता और खौफ का आलम यह कि इस से पहले कि लोगों का शैलाव उमर जाय और फांसी में किंचित बाधा न पड़े समय से पूर्व 6 बजे ही फांसी पर चढ़ा दिया गया।


"मशलहत का है तकाजा वक़्त की आवाज़ है !
राह-ए-वतन में मरने का यही अंदाज़ है !
असल में जान-ए-वतन तू वस्ल में जान-ए-वतन !
शान है तेरी वतन से और तू शान-ए-वतन !!"

जेल की प्राचीर में गूंजता रहा 'इन्कलाब - जिंदाबाद !' शहीद हो गए मातृभूमि के वीर सपूत। सच तो यही है कि इन्ही जांबाजों के शहादत पर खिला वतन की आज़ादी का गुल। किन्तु क्या इतनी कीमती आज़ादी आज सार्थक और अक्षुण है ....... ? या फिर हमें और कीमत देनी पड़ेगी ? गर देनी पड़े कीमत तो तैयार हो जाओ !!
"शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर वरष मेले !
वतन पर मिटने वालों का यही बांकी निशां होगा !!"