Wednesday, February 16, 2011

प्रधानमंत्री बेबाक ......... 'हम भी मुँह में ज़बान रखते हैं'

....... कार्यालय से लौटा तो आज प्रधानमंत्री जी द्वारा बुलायी गयी प्रेस कॉन्फ्रेंस नहीं देख पाने की बेचैनी थी। सात बजे के एन डी टी वी के समाचार देखने का इंतेजार कर रहा था। और सात बजे। समाचार में पी एम के बारे में की गई रिपोर्टिंग से संतुष्टि नहीं हुई। लगा कि पूरी कॉन्फ्रेंस देखनी चाहिये। संयोग से डीडी न्यूज़ पर रिकॉर्डिंग आ रही थी सो देखी।
स्कूल के समय से अब तक देश के पीएम के कार्यकाल याद करने पर वाजपेयी जी और अब मनमोहन सिंह जी ही अपने किए गए काम के लिए याद आते हैं (और राष्‍ट्रपति के रूप में डॉ कलाम. कारण इन तीनों के कोई व्‍यक्‍तिगत स्‍वार्थ नहीं रहे और निजी स्‍वार्थों के लिए कभी इन्‍होंने अपने पदों का दुरपयोग नहीं किया. इन तीनों के समय देश की गरिमा और साख पूरे विश्‍व में बढ़ी और बनी. इनका योगदान सर्वस्‍व सराहा गया. पूरे विश्‍व में ये सम्‍माननीय आज भी बने हुए हैं)  इन्दिरा जी, राजीव गांधी, नरसिम्हा राव, चंद्रशेखर जी, वीपी सिंह, देव गौड़ा, आई के गुजराल सभी याद हैं पर पूरे कार्यकाल के कामकाज के आधार पर नहीं पर कुछ खास कामों के लिए। इसमे दूसरों कि अपनी-अपनी राय हो सकती है।
मनमोहन सिंह जी जबसे प्रधानमंत्री बने हैं तब से उनसे एक परफारमर की अपेक्षा बनी और उम्‍मीद जागी कि अब जरूर कुछ अच्‍छा होगा. उनका पहला कार्यकाल बहुत बेहतरीन रहा और गॉंधी परिवार के बाहर दूसरी बार प्रधानमंत्री बनने वाले वे दूसरे व्‍यक्‍ति बने. दूसरे कार्यकाल से और भी उम्‍मीदे बँध गयीं.अंग्रेजी की कहावतानुसार 'स्‍पीच इस गुड बट साइलेंस इस गोल्‍डन' प्रिंसिपल पर चलते हुए वे कलम और शासन चलाते रहे. मीडिया, पार्टियॉं, विपक्ष  उन्‍हें कमजोर, कटपुतली, निष्‍क्रिय, लाचार प्रधानमंत्री कहते रहे. पर, वे पूरी शालीनता के साथ शॉंत-चित्‍त रखते हुए काम करते रहे. न्‍यूक्‍लियर समझौता, सर्वशिक्षा अधिकार, नरेगा, सेना का आधुनिकीकरण, पे रिविजन आदि... कई प्रमुख लिये गये निर्णयों पर अडिग रहते हुए देश के साफ छविदार नेता बनने में  वे कामयाब रहे.

दूसरी पारी के चलते हाल ही में सामने आये घोटालों, भ्रष्‍टाचार, तेलंगाना, आतंकवाद, नक्‍सलवाद, माओवाद, महँगाई, न्‍याय प्रणाली की टिप्‍पणियों, प्राकृतिक विपदाओं आदि से काफी समय से घिरे मनमोहन सिंह ने आज चुप्‍पी तोड़ ही दी. संसद का एक पूरा सत्र जे पी सी की मॉंग की बली चढ़ गया. देश और जनता का कुछ फायदे का काम नहीं हो पाया. मुझे भी लग रहा था कि वे आखिर बोल क्‍यों नहीं रहे. खैर,  वे आज बोले. सुनकर प्रसन्‍नता हुई. लगभग 16 इलेक्‍ट्रानिकी चैनल के संपादकों के साथ खुशनुमा माहोल में किये सवाल-जवाब सुनकर लगा कि 80 की उम्र के करीब पुहुँचकर वे और भी सशक्‍त और मजबूत हो गये हैं. उनसे 2 जी स्‍पेक्‍ट्रम, ईसरों के देवास और एन्‍थ्रेक्‍स का मामला, सी ए जी, महँगाई, प्रशासन में कामकाज के तरीकों की चूक, पीएमओ द्वारा सूचनाओं की जानकारी लीक किए जाने संबंधी, आंतरिक और बाहरी कलह, विपक्ष के हमलों और जेपीसी की मॉंग, इन सबकी नैतिक जिम्‍मेदारी, तेलंगाना, माओवाद, उल्‍फा, तमिलनाडु, केरल में होने वाले आगामी चुनावों, केन्‍द्रीय मंत्रियों के डिस्‍क्रिएशनरी पॉवर्स को समाप्‍त करने, आने वाले बजट, क्रिकेट वर्ल्‍ड कप सहित दुनिया में तेजी से बदल रहे राजनीतिक घटनाक्रम ट्यूनिशिया, मिस्र, यमन, ईरान आदि के भारत पर असर से जुड़े सवालों का उन्‍होंने बड़े ही बेबाकी और साफ मन से जवाब दिया.  मसलन कि इन पूरे मामलों की क्‍या आप नैतिक जिम्‍मेदारी लेते हैं. क्‍या आप से इन सब मामलों में कहीं न कहीं कोई चूक हुई, इन घटनाओं पर शर्मिंदगी महसूस होती है आदि...  इस पर उन्‍होंने बड़े साफ मन से कहा कि हॉं मुझसे चूक हुई होगी लेकिन इतनी नहीं जितनी कि आप लोग बता रहे हैं. नैतिक जिम्‍मेदारी लेने से भी इन्‍कार नहीं किया और कहा कि जो कुछ भी हुआ उसे नहीं होना चाहिए था लेकिन इसका अर्थ ये नहीं कि हर बार पद छोड दिया जाए और हर छ: माह में चुनाव कराये जाएं. मनमोहन जी के साथ बहुत ही तगड़े और अनुभवी नेता हैं. प्रणव मुखर्जी, ए के अंटनी, वि़ मोइली, चिदंबरम, कपिल सिब्‍बल, जयपाल रेड्डी, पुरंदेश्‍वरी, प्रफुल पटेल आदि जो महत्‍वपूर्ण पदों पर हैं. कुछ एस एम कृष्‍णा, विलासराव देशमुख और शरत पवार जैसे लोग भी हैं जिनकी जगह दूसरे नेता भी हो सकते हैं. यहीं आकर उन्‍होंने यू पी ए की मजबूरी का सहारा लिया. अर्थात इन्‍हें गठबन्‍धन की राजनीति के कारण सरकार में रखना मजबूरी है जिसे विपक्ष और अन्‍य इनकी लाचारी समझते हैं (भूलना नहीं चाहिए कि बी जे पी सरकार के एन डी ए के 27 घटक थे जिनमें से अधिकतर सरकार में शामिल थे.) पर इससे संबंधित एक खास बात उन्‍होंने कही कि सरकार में बहुत कुछ उनके मन-माफि़क नहीं है पर चलाना जरूरी है. आज तक किसी प्रधानमंत्री ने सार्वजनिक तौर पर इतना खुलकर नहीं कहा जिससे पता चलता है कि वे चीज़ों से अन्‍जान नहीं है और समय आने पर जो भी होगा, दुरुस्‍त करने से चूकेंगे नहीं.
दुनिया के राजनीतिक परिदृश्‍य में, किसी भी देश में प्रजातांत्रिक ढंग से दोबारा चुनी गयी सरकार के मुखिया बनने पर राष्‍ट्रप्रमुखों को एक सी परिस्‍थितियों का सामना करना पड़ा है.  मनमोहन जी भी इससे जुदा नहीं हैं. प्रधानमंत्री को सवालों के जवाब देते हुए सुनते और यह सब लिखते हुए मुझे 'वक्‍त' फिल्‍म का एक डायलाग याद आ रहा है कि 'चुनॉय सेठ, जिनके घर शिशे के हुआ करते हैं वे दूसरों के घर पर पत्‍थर मारा नहीं करते'.....मनमोहन जी पर उम्र हावी नहीं है बल्‍िक उन्‍होंने एक पूछे गये प्रश्‍न के जवाब में मेच्‍यूर्ड दार्शनिक अंदाज में कहा कि 'एक सिविल सर्वेण्‍ट से वित्‍त मंत्री और अब प्रधानमंत्री बनने में बहुत अंतर है जहॉं बहुत कुछ आपके मन मुताबिक नहीं हो सकता है फिर भी सबको साथ लेकर सरकार और देश चलाना कर्तव्‍य है जिसका पालन करते हुए मैं रोज सीख रहा हूँ. ऐसा कहते समय कोई शर्मिंदगी नहीं दिखाई दी बल्‍कि विनम्रता, साफ़गोई और सख्‍ती में कोई कमी नहीं दिखाई दी. उनके इस कान्‍फ्रेंस के कई मतलब निकाले जा सकते हैं जैसे 'फेस वाश', छवि सुधार (फेस करेक्‍शन) आदि पर देश के सामने आकर जिम्‍मेदारीपूर्वक खुले बयान देना उनकी प्रतिबद्धता और साहस को दर्शाता है जिस पर हमें संदेह नहीं करना चाहिए. देश एक मजबूत और समझदार शासक के हाथ में है यह बात आज पुन: लगी.  

कहना और भी है. 
यह साक्षात्‍कार अवश्‍य देखें रिपिट टेलिकास्‍ट या नेट पर.  

होमनिधि शर्मा

Monday, February 14, 2011

ये तिरंगा उम्र भर कश्मीर पर लहराएगा .. http://zealzen.blogspot.com/2011/01/blog-post_25.html

दिव्‍या जी, नमस्‍कार. सबसे पहले तो मेरा ब्‍लाग देखने के लिए धन्‍यवाद. मैं बरसों सोचता रहा कि एक ऐसा माध्‍यम होना चाहिए जिसके द्वारा हम अपनी बात एक-दूसरे तक बिना किसी रुकावट के पहुँचा सकें. इंटरनेट के आ जाने से यह सिद्ध हो पाया. आप और हम एक-दूसरे से परिचित भले ही न हो, इंटरनेट और इस पर हिन्‍दी के सहारे हमारा लेखन हमें सबसे जोड़ता चला जा रहा है.
जहॉं तक कश्‍मीर का सवाल है. मेरे अपने अध्‍ययन और जानकारी से कह सकता हूँ कि हमने इस मुद्दे को ठीक से हल नहीं किया और न ही हमारी नीति ही इस पर स्‍पष्ट है. कल ही की बात है पी डी पी की महबूबा मुफ्ती ने अपने प्रेसेंटशेन में कश्‍मीर के कुछ भाग को चीन का हिस्‍सा घोषित किया है और इस पर सरकार खामोश है. 26 जनवरी के अवसर पर यासीन मलिक की तिरंगा न फहराने की खुली चुनौती और उस पर की गई कार्रवाई बताती है कि सरकार इस मुद्दे पर दो तरफा नीति अपनायी हुई है और ना ही पूरी ताकत लगा रही है. अब तक जितनी सरकारे आयीं, सबने मुस्‍लिम वोट की राजनीति के आगे देश को शर्मसार किया है. आतंकियों को पनाह देने वाले और खुद आतंकी हम आम जन से ज्‍यादा सुरक्षित और मजे में है. सवाल देश-भक्‍ति का नहीं राजनीतिक स्‍वार्थ का है. प्रजातंत्र का सबसे बड़ा डिमेरीट यही है कि यदि इसके प्रतिनिधि इसका इस्‍तेमाल स्‍वार्थपरक उद्येश्‍यों के लिए करते हैं  तो यह सुसाइडल साबित होता है. ईश्‍वर इनको सद्बबुद्धि दे कि ये कश्‍मीर को मिस्र से जोड़कर देख रहें हैं और सरकार काला चश्‍मा पहने बैठी है. भारत के विदेश मंत्री यू एन ओ में पुर्तगाली मंत्री का भाषण पढ़ते हैं और इस भूल पर खेद तक व्‍यक्‍त नहीं करते अपितु इसे ग्‍लोरिफाई कर कहते हैं कि 'दूसरों का भाषण पढ़ना कोई गलत बात नहीं है. मैं क्‍या कर सकता हूँ मेरे सामने ढेरों कागजात थे अत: ऐसा हो गया.' अब ऐसे विदेश मंत्री का कहना हो तो एक दिन कश्‍मीर देकर कहेंगे ये तो देना ही था...... 
कश्‍मीर पर क्रमागत ऐतिहासिक जानकारी देकर जागरुक करने के लिए धन्‍यवाद और आपके रेल में दिखाये गये साहस पर बधाई. प्रेरणापद संस्‍मरण.

होमनिधि शर्मा

Tuesday, February 8, 2011

राष्ट्रीय ध्वज की अवधारणा

........हर साल की तरह इस बार भी मुझे कार्यालय में 26 जनवरी, गणतन्त्र दिवस के अवसर पर कार्यक्रम संचालित करना था। इस अवसर पर हमारी गणतांत्रिक व्‍यवस्‍था, संविधान, शासन प्रणाली, इतिहास, जीवन-दर्शन को वर्तमान हालात से जोड़ते हुए, किसी न किसी राष्‍ट्रीय महत्‍व के मुद्दों पर कार्यक्रम के संचालन के दौरान कुछ कहना एक परंपरा सी बन गई है.  इस परंपरा से जुड़ने का अवसर मुझे मारवाड़ी हिन्‍दी विद्यालय, बेगम बाजार, हैदराबाद में पढ़ते हुए प्राप्‍त हुआ.  विद्यालय भले ही हिन्‍दी माध्‍यम का रहा हो पर प्रधानाध्‍यापक डॉ युगलकिशोर शर्मा (संस्‍कृत और हिन्‍दी भाषा के विद्वान),  डॉ  बालागुरु जी (सामाजिक अध्‍ययन के जानकार और पुस्‍तकों के लेखक),          श्री ईश्‍वरअय्या जी (पारम्‍परिक और आधुनिक गणित और अंग्रेजी के रोचक गुरु), श्री रघुनाथ राव जी (जीव-विज्ञान विशेषज्ञ) डॉ रामकृष्‍ण दाण्‍डिमे (भौतिक-रसायन विशेषज्ञ) डॉ नारायण रेड्डी और श्री सुब्‍बाराव जी (तेलुगु) व अन्‍य गुरुजनों ने देश-भक्‍ति की भावना कूट-कूट कर भरी.  जीवन मूल्‍य और संस्‍कार देकर हमें ज्ञान के साथ संस्‍कारित किया. मैं और मेरे साथी छात्र दोस्‍त आज भी फक्र महसूस करते हैं कि हम एक मामूली विद्यालय में इतने बढि़या विद्वान अध्‍यापकों से पढ़े. आज  सोचकर सुखद आश्‍चर्य होता है कि उस समय के अध्‍यापक डॉक्‍टरेट जिनसे हम पढ़े. मेरे हिन्‍दी और राजभाषा के क्षेत्र में होने का भी एक बड़ा कारण मेरी स्‍कूली शिक्षा है. 
     खैर इसी प्रकार की दिलो-दिमाग की स्‍थिति होती है हर साल सो इस बार भी एक-दो दिन पहले से मन में चल रहा था कि किस खास बात पर इस बार बात की जाए. मन में आया कि हमारे ध्वज की अवधारणा के बारे में कार्यक्रम के दौरान कुछ जानकारी दूँ . इस संबंध में कुछ जानकारी थी तो कुछ जमा की। बाद में लगा कि इसे संकलित कर एक रूप दे दिया जाए तो सभी के काम आएगी. सो प्रस्‍तुत है.....

भारतीय तिरंगे का इतिहास


"सभी राष्‍ट्रों के लिए एक ध्‍वज होना अनिवार्य है। लाखों लोगों ने इस पर अपनी जान न्‍यौछावर की है। यह एक प्रकार की पूजा है, जिसे नष्‍ट करना पाप होगा। ध्‍वज एक आदर्श का प्रतिनिधित्‍व करता है। यूनियन जैक अंग्रेजों के मन में भावनाएं जगाता है जिसकी शक्ति को मापना कठिन है। अमेरिकी नागरिकों के लिए ध्‍वज पर बने सितारे और पट्टियों का अर्थ उनकी दुनिया है। इस्‍लाम धर्म में सितारे और अर्ध चन्‍द्र का होना सर्वोत्तम वीरता का आहवान है।"

"हमारे लिए यह अनिवार्य होगा कि हम भारतीय मुस्लिम, ईसाई, ज्‍यूइश, पारसी और अन्‍य सभी, जिनके लिए भारत एक घर है, एक ही ध्‍वज को मान्‍यता दें और इसके लिए मर मिटें।"

- महात्‍मा गांधी
     प्रत्‍येक स्‍वतंत्र राष्‍ट्र का अपना एक ध्‍वज होता है। यह एक स्‍वतंत्र देश होने का संकेत है। भारतीय राष्‍ट्रीय ध्‍वज की अभिकल्‍पना आन्‍ध्र-प्रदेश के पिंगली वेंकय्या ने की थी. इसे इसके वर्तमान स्‍वरूप में 22 जुलाई 1947 को आयोजित भारतीय संविधान सभा की बैठक के दौरान अपनाया गया था जो अंग्रेजों से स्‍वतंत्रता मिलने से कुछ ही दिन पूर्व की गई थी। इस ध्‍वज को पहली बार फहराने महिला स्‍वातंत्र्य वीर श्रीमती हंसा मेहता ने श्री नेहरू को सौंपते हुए कहा था कि यह ध्‍वज इस देश की समस्‍त महिलाओं की ओर से राष्‍ट्र को एक भेंट और सलाम है जिसकी लाज आप सबको बचाए रखना है. 
    इसे 15 अगस्‍त 1947 और 26 जनवरी 1950 के बीच भारत के राष्‍ट्रीय ध्‍वज के रूप में अपनाया गया और इसके पश्‍चात भारतीय गणतंत्र ने इसे अपनाया। भारत में ‘’तिरंगे’’ का अर्थ भारतीय राष्‍ट्रीय ध्‍वज है।
    भारतीय राष्‍ट्रीय ध्‍वज में तीन रंग की क्षैतिज पट्टियां हैं, सबसे ऊपर केसरिया, बीच में सफेद ओर नीचे गहरे हरे रंग की प‍ट्टी और ये तीनों समानुपात में हैं। ध्‍वज की चौड़ाई का अनुपात इसकी लंबाई के साथ 2 और 3 का है। सफेद पट्टी के मध्‍य में गहरे नीले रंग का एक चक्र है। यह चक्र अशोक की राजधानी के सारनाथ के शेर के स्‍तंभ पर बना हुआ है। यह धर्म चक्र निरन्‍तरता का प्रतीक है. इसका व्‍यास लगभग सफेद पट्टी की चौड़ाई के बराबर होता है और इसमें 24 तीलियां है।

तिरंगे का विकास

यह जानना अत्‍यंत रोचक है कि हमारा राष्‍ट्रीय ध्‍वज अपने आरंभ से किन-किन परिवर्तनों से गुजरा। इसे हमारे स्‍वतंत्रता के राष्‍ट्रीय संग्राम के दौरान खोजा गया या मान्‍यता दी गई। भारतीय राष्‍ट्रीय ध्‍वज का विकास आज के इस रूप में पहुंचने के लिए अनेक दौर से गुजरा। एक रूप से यह राष्‍ट्र में राजनैतिक विकास को दर्शाता है। हमारे राष्‍ट्रीय ध्‍वज के विकास में कुछ ऐतिहासिक पड़ाव इस प्रकार हैं:
1906 में भारत का गैर आधिकारिक ध्‍वज
1907 में भीका‍जीकामा द्वारा फहराया गया बर्लिन समिति का ध्‍वज
इस ध्‍वज को 1917 में गघरेलू शासन आंदोलन के दौरान अपनाया गया
इस ध्‍वज को 1921 में गैर अधिकारिक रूप से अपनाया गया
इस ध्‍वज को 1931 में अपनाया गया। यह ध्‍वज भारतीय राष्‍ट्रीय सेना का संग्राम चिन्‍ह भी था।
भारत का वर्तमान तिरंगा ध्‍वज
प्रथम राष्‍ट्रीय ध्‍वज 7 अगस्‍त 1906 को पारसी बागान चौक (ग्रीन पार्क) कलकत्ता में फहराया गया था जिसे अब कोलकाता कहते हैं। इस ध्‍वज को लाल, पीले और हरे रंग की क्षैतिज पट्टियों से बनाया गया था।
द्वितीय ध्‍वज को पेरिस में मैडम कामा और 1907 में उनके साथ निर्वासित किए गए कुछ क्रांतिकारियों द्वारा फहराया गया था (कुछ के अनुसार 1905 में)। यह भी पहले ध्‍वज के समान था सिवाय इसके कि इसमें सबसे ऊपरी की पट्टी पर केवल एक कमल था किंतु सात तारे सप्‍तऋषि को दर्शाते हैं। यह ध्‍वज बर्लिन में हुए समाजवादी सम्‍मेलन में भी प्रदर्शित किया गया था।
तृतीय ध्‍वज 1917 में आया जब हमारे राजनैतिक संघर्ष ने एक निश्चित मोड लिया। डॉ. एनी बीसेंट और लोकमान्‍य तिलक ने घरेलू शासन आंदोलन के दौरान इसे फहराया। इस ध्‍वज में 5 लाल और 4 हरी क्षैतिज पट्टियां एक के बाद एक और सप्‍तऋषि के अभिविन्‍यास में इस पर बने सात सितारे थे। बांयी और ऊपरी किनारे पर (खंभे की ओर) यूनियन जैक था। एक कोने में सफेद अर्धचंद्र और सितारा भी था।
अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के सत्र के दौरान जो 1921 में बेजवाड़ा (अब विजयवाड़ा) में किया गया यहां आंध्र प्रदेश के एक युवक ने एक झंडा बनाया और गांधी जी को दिया। यह दो रंगों का बना था। लाल और हरा रंग जो दो प्रमुख समुदायों अर्थात हिन्‍दू और मुस्लिम का प्रतिनिधित्‍व करता है। गांधी जी ने सुझाव दिया कि भारत के शेष समुदाय का प्रतिनिधित्‍व करने के लिए इसमें एक सफेद पट्टी और राष्‍ट्र की प्रगति का संकेत देने के लिए एक चलता हुआ चरखा होना चाहिए।
वर्ष 1931 ध्‍वज के इतिहास में एक यादगार वर्ष है। तिरंगे ध्‍वज को हमारे राष्‍ट्रीय ध्‍वज के रूप में अपनाने के लिए एक प्रस्‍ताव पारित किया गया । यह ध्‍वज जो वर्तमान स्‍वरूप का पूर्वज है, केसरिया, सफेद और मध्‍य में गांधी जी के चलते हुए चरखे के साथ था। तथापि यह स्‍पष्‍ट रूप से बताया गया इसका कोई साम्‍प्रदायिक महत्‍व नहीं था और इसकी व्‍याख्‍या इस प्रकार की जानी थी।
22 जुलाई 1947 को संविधान सभा ने इसे मुक्‍त भारतीय राष्‍ट्रीय ध्‍वज के रूप में अपनाया। स्‍वतंत्रता मिलने के बाद इसके रंग और उनका महत्‍व बना रहा। केवल ध्‍वज में चलते हुए चरखे के स्‍थान पर सम्राट अशोक के धर्म चक्र को दिखाया गया। इस प्रकार कांग्रेस पार्टी का तिरंगा ध्‍वज अंतत: स्‍वतंत्र भारत का तिरंगा ध्‍वज बना।

ध्‍वज के रंग

भारत के राष्‍ट्रीय ध्‍वज की ऊपरी पट्टी में केसरिया रंग है जो देश की शक्ति और साहस को दर्शाता है। बीच में स्थित सफेद पट्टी धर्म चक्र के साथ शांति और सत्‍य का प्रतीक है। निचली हरी पट्टी उर्वरता, वृद्धि और भूमि की पवित्रता को दर्शाती है।

चक्र

इस धर्म चक्र को विधि का चक्र कहते हैं जो तीसरी शताब्‍दी ईसा पूर्व मौर्य सम्राट अशोक द्वारा बनाए गए सारनाथ मंदिर से लिया गया है। इस चक्र को प्रदर्शित करने का आशय यह है कि जीवन गति‍शील है और रुकने का अर्थ मृत्‍यु है।

ध्‍वज संहिता

     26 जनवरी 2002 को भारतीय ध्‍वज संहिता में संशोधन किया गया और स्‍वतंत्रता के कई वर्ष बाद भारत के नागरिकों को अपने घरों, कार्यालयों और फैक्‍ट‍री में न केवल राष्‍ट्रीय दिवसों पर, बल्कि किसी भी दिन बिना किसी रुकावट के फहराने की अनुमति मिल गई। अब भारतीय नागरिक राष्‍ट्रीय झंडे को शान से कहीं भी और किसी भी समय फहरा सकते है। बशर्ते कि वे ध्‍वज की संहिता का कठोरता पूर्वक पालन करें और तिरंगे की शान में कोई कमी न आने दें। 
     सुविधा की दृष्टि से भारतीय ध्‍वज संहिता, 2002 को तीन भागों में बांटा गया है। संहिता के पहले भाग में राष्‍ट्रीय ध्‍वज का सामान्‍य विवरण है। संहिता के दूसरे भाग में जनता, निजी संगठनों, शैक्षिक संस्‍थानों आदि के सदस्‍यों द्वारा राष्‍ट्रीय ध्‍वज के प्रदर्शन के विषय में बताया गया है। संहिता का तीसरा भाग केन्‍द्रीय और राज्‍य सरकारों तथा उनके संगठनों और अभिकरणों द्वारा राष्‍ट्रीय ध्‍वज के प्रदर्शन के विषय में जानकारी देता है।
     26 जनवरी 2002 विधान पर आधारित कुछ नियम और विनियमन हैं कि ध्‍वज को किस प्रकार फहराया जाए:

क्‍या करें

  • राष्‍ट्रीय ध्‍वज को शैक्षिक संस्‍थानों (विद्यालयों, महाविद्यालयों, खेल परिसरों, स्‍काउट शिविरों आदि) में ध्‍वज को सम्‍मान देने की प्रेरणा देने के लिए फहराया जा सकता है। विद्यालयों में ध्‍वज आरोहण में निष्‍ठा की एक शपथ शामिल की गई है।
  • किसी सार्वजनिक, निजी संगठन या एक शैक्षिक संस्‍थान के सदस्‍य द्वारा राष्‍ट्रीय ध्‍वज का आरोहण/प्रदर्शन सभी दिनों और अवसरों, आयोजनों पर अन्‍यथा राष्‍ट्रीय ध्‍वज के मान सम्‍मान और प्रतिष्‍ठा के अनुरूप अवसरों पर किया जा सकता है।
  • नई संहिता की धारा 2 में सभी निजी नागरिकों के लिए अपने परिसरों में ध्‍वज फहराने का अधिकार देना स्‍वीकार किया गया है।

क्‍या न करें

  • इस ध्‍वज को सांप्रदायिक लाभ, पर्दे या वस्‍त्रों के रूप में उपयोग नहीं किया जा सकता है। जहां तक संभव हो इसे मौसम से प्रभावित हुए बिना सूर्योदय से सूर्यास्‍त तक फहराया जाना चाहिए।
  • इस ध्‍वज को आशय पूर्वक भूमि, फर्श या पानी से स्‍पर्श नहीं कराया जाना चाहिए। इसे वाहनों के हुड, ऊपर और बगल या पीछे, रेलों, नावों या वायुयान पर लपेटा नहीं जा सकता।
  • किसी अन्‍य ध्‍वज या ध्‍वज पट्ट को हमारे ध्‍वज से ऊंचे स्‍थान पर लगाया नहीं जा सकता है। तिरंगे ध्‍वज को वंदनवार, ध्‍वज पट्ट या गुलाब के समान संरचना बनाकर उपयोग नहीं किया जा सकता।
होमनिधि शर्मा 
     

    आचार्य जानकीवल्‍लभ शास्‍त्री :: एक साक्षात्‍कार http://manojiofs.blogspot.com पर अवश्‍य पढ़ें (5) पांचवां भाग :: उद्दाम जिजीविषा, (4) चौथा भाग :: निराला निकेतन : निराला जीवन : निराला परिचय (3) तीसरा भाग :: निराला निकेतन और निराला ही जीवन (2) दूसरा भाग : कुत्तों के साथ रहते हैं जानकीवल्लभ शास्त्री! (1) पहला भाग-अच्छे लोग बीमार ही रहते हैं!

    मनोज कुमार जी,  पहले तो क्षमा चाहूँगा कि पिछले एक वर्ष से आपके ब्‍लाग से गायब हूँ. पढ़ना जारी है परन्‍तु संपर्क न हो पाया.
    कुछ कार्य जीवन में ऐसे होते हैं जिससे करने वाले धन्‍य और कृतार्थ महसूस करते हैं. शास्‍त्री जैसे उद्भट शख्‍सियत से मिलकर और उन्‍हें हम सबसे मिलाकर आप कृतार्थ हो गये हैं. आपके समस्‍त परिजन और करण जी बधाई के हक़दार हैं. मैं व्‍यक्‍तिगत रूप से आपका आभार व्‍यक्‍त करता हूँ कि आपका यह साहित्‍येतिहासिक कार्य आने वाले समय में अपनी महती भूमिका निभायेगा.
    कुछ लोग अपने जीवन, विचार और व्‍यवहार से ऋषित्‍व को उपलब्‍ध होते हैं. विश्‍वास जानिये, शास्‍त्री जी को पढ़कर ऐसा ही लगा जैसे मैं विनाबा भावे और गॉंधी जी को देख रहा हूँ. वैसे बिहार की मिट्टी ही कुछ ऐसी है कि एक से एक सामाजिक, साहित्‍यक, राजनैतिक और ऐतिहासिक महापुरूष जन्‍म लेते रहे हैं. बाबू राजेन्‍द्र प्रसाद हों या ला़.ब.शास्‍त्री या जानकीवल्‍लभ शास्‍त्री जी, ऐसा लगता है 700 बी सी में नालन्‍दा में बने दुनिया के पहले विश्‍वविद्यालय की विरासत को क़ायम रखने ये युगपुरूष होते आ रहे हैं. 
    ये भी उतना ही सच है कि धिक्‍कार है इस व्‍यवस्‍था और इसके शासकों पर कि वे अपने युगपुरषों का ध्‍यान रखना और सम्‍मान करना नहीं जानती. दुनिया के शासकों ने सुकरात के पहले से अब तक सबके साथ यही व्‍यवहार किया है. जो शासक की गाते हैं वे इनाम पाते हैं. पद्मश्री ठुकराना दर्शाता है कि शास्‍त्री जी जीवन मूल्‍यों और नैतिकता की कितनी कद्र करते हैं. मुझे इन क्षणों में वाजपेयी जी कि वह पंक्‍तियॉं याद आ रही हैं 'हार नहीं मानूँगा, रार नहीं ठानूँगा, काल के कपाल पर लिखता हूँ, मिटाता हूँ, गीत नया गाता हूँ......'
    यदि उनके रचना संसार से भी अंश ब्‍लाग पर पढ़ने को मिलें तो श्रेयस्‍कर होगा. 
    पुन: कोटि-कोटि बधाई़्

    होमनिधि शर्मा

    Tuesday, February 1, 2011

    नव वर्ष की शुरूआत मैं सृजन की टेक धारे हूँ ............... से

    प्रोफेसर ऋषभदेव शर्मा से बात करने और उनकी कविता या रचनाएँ पढ़ने में कोई अंतर नहीं है। जब भी उनसे बात होती है, वे नपे-तुले अंदाज़ और सीधे तरीके से अपनी बात रखते हैं चाहे विषय कोई भी हो। लेखनी में तो सपाट बयानी और तेवर देखते ही बनते हैं। उनकी तेवरियाँ पढ़कर तो उन्हे "आज के क्रांतिवीर" कहें तो गलत नहीं लगेगा। गद्य हो या पद्य उनके विचार और भाषा का संयोजन जैसे पाठक के लिए तस्वीर बन कर दिखाई देते हैं। अधिकतर लेखक और रचनाकार भाषा में उलझकर रह जाते हैं। लेकिन ऋषभदेव जी के साथ ऐसा नहीं है। उनका व्यक्तित्व, विचार और भाषा एक साथ चलते हैं। हाल ही में भेजी हुई उनकी यह रचना अपने ब्लॉग पर रखते हुए मुझे खुशी हो रही है : 



    सोमवार, ३१ जनवरी २०११


    मैं सृजन की टेक धारे हूँ

    तुम सदा आक्रोश में भरकर
                   मिटाने पर उतारू हो;
    मैं सृजन की टेक धारे हूँ.


    पत्थरों में गुल खिलाए
    पानियों में बिजलियाँ ढूँढीं,
    रेत से मीनार चिन दी
    बादलों को चूमने को,
    सिंधु को मैंने मथा है
    और अमृत भी निकाला.
    तुम सदा से बेल विष की ही
                   उगाने पर उतारू हो,
    मैं सृजन की टेक धारे हूँ.


    o
    मैं धरा को बाहुओं पर तोलता हूँ,
    हर हवा में स्नेह-सौरभ घोलता हूँ;
    मैं पसीना नित्य बोता हूँ,
    स्वर्ण बन कर प्रकट होता हूँ;
    आग के पर्वत बनाए पालतू मैंने,
    हिमशिखर पर घर बना निश्चिंत सोता हूँ.


    और तुम चुपचाप आकर
    भूमि को थर-थर कँपाते,
    भूधरों को ही नहीं,
    नक्षत्र-मंडल को हिलाते.
    तुम विनाशी शक्तियों के पुंज हो;
    तुम कभी दावाग्नि, बड़वानल कभी;
    तुम महामारी, महासंग्राम तुम.
    तुम सदा से मृत्यु का जादू
                    जगाने पर उतारू हो,
    मैं सृजन की टेक धारे हूँ.


    o
    लोग रोते हैं बिलख कर
                      तो तुम्हें संतोष मिलता.
    डूबती जब नाव, मरते लाख मछुआरे,
                           तुम्हें संतोष मिलता.
    आदमी जब ज़िंदगी की भीख माँगे,
    हादसा जब आदमी को कील टाँगे;
    हर दिशा में रुदन-क्रंदन,
    आदमी की शक्तियों का
                            शक्ति भर मंथन,
                     तब तुम्हें संतोष मिलता.


    बालकों के आँसुओं पर मुस्कराते हो,
    औरतों की मूर्च्छना पर राग गाते हो;
    झोंपड़ी की डूब पर आलाप भरते हो,
    लाख लाशों को गिरा शृंगार करते हो;
    सोचते हो आज तुम जीते-
                          हराया आदमी को,
    सोचते हो आज तम जीता -
                          हराया रोशनी को.


    पर नहीं! तुम जानते हो -
    मैं सदा ही राख में से जन्म लेता हूँ,
    ध्वंस के सिर पर उगाता हूँ नई कलियाँ;
    दर्द हैं, संवेदना, अनुभूतियाँ हैं पास मेरे,
    चीर कर अंधड़, बनाता हूँ नई गलियाँ.


    ओ प्रलय सागर!
    तुम्हारी रूद्र लहरों को प्रणाम!
    काल-जिह्वा-सी
    'सुनामी' क्रुद्ध लहरों को प्रणाम!
    तुम कभी नव वर्ष में भूकंप लाते हो,
    तो कभी वर्षांत में तांडव मचाते हो!
    तुम महा विस्तीर्ण, अपरंपार हो, निस्सीम हो!
    जानता हूँ मैं कि छोटा हूँ बहुत ही तुच्छ हूँ,


    पर तुम्हारे सामने
    मैं सिर उठाए फिर खड़ा हूँ;
    हूँ बहुत छोटा भले
    पर मौत से थोड़ा बड़ा हूँ.
    तुम सदा रथचक्र को उलटा
                    चलाने पर उतारू हो,  मैं सृजन की टेक धारे हूँ.




    कार्यालय आकर जैसे ही मेल देखा, आपका लिंक मिला. वास्‍तव में आप सृजन के टेकधारी हैं. कविता पढ़ते-पढ़ते दुष्‍यंत कुमार की बापू पर लिखी रचना 'मैं फिर जनम लूँगा.....' और बच्‍चन तथा निराला की बीच-बीच में से कुछ पंक्‍तियॉं याद आती रहीं. गांधीजी की पुण्य तिथि पर यह रचना पढ्ना मेरे लिए उन्हे याद करते हुए अपने आप को आईने में देखने का एक मौका साबित हुआ।  एक मुक्कमिल रचना जिसमें सृष्‍टि के क्रम से जुड़ा सब कुछ है. एक ब्रम्‍हा तो एक शिव, एक सलिला तो एक ज्‍वालामुखी, एक पावक तो एक पर्वत और इन सबके अलावा हमेशा की तरह एक 'तू' तो और 'मैं' है या वाजपेयी जी की ज़ुबान में कहूँ तो 'हार नहीं मानूँगा, रार नहीं ठानूँगा, काल के कपाल पर, लिखता हूँ, मिटाता हूँ, गीत नया गाता हूँ..........' जब कविता पढ़कर लिखने का मन करे तो सच्‍ची और सबकी कविता होती है.
    बार-बार पढ़ने और हमेशा याद रखने लायक सर्जन के लिए पुन: आभार, 

    घर आकार फिर पढ़ा और अपनी भावनाओं सहित इसे पोस्ट कर रहा हूँ। 
    http://rishabhakeekavitaen.blogspot.com/2011/01/blog-post_31.html
    होमनिधि शर्मा
    ३१ जनवरी २०११ ९:४७ पूर्वाह्न