Sunday, January 31, 2010

शनिवार, ३० जनवरी २०१०

श्रद्धांजलि, बापू


बापू के निर्वाण दिवस पर
श्रद्धांजलि, बापू
परशुराम राय





राजघाट पर अब भी,
बापू,
अग्निकुण्ड में
सत्य, अहिंसा की ज्वाला
जलती है,
या लगता है
सत्य, अहिंसा के
सजल नयन से
बापू!
देख रहे तुम भारत को।
ये ही दोनों कदम तुम्हारे
अन्तरिक्ष से
नाप रहे -
भारत की धरती।
पूर्वाग्रहों की जड़ता को
नाम दिया
सत्याग्रह का-
उत्तराधिकारी
जो बताते आपका,
अपनी ही
गलती से
गलती करना
सीख रहे हम।
तलवार गलाकर
तकली गढ़ी जो आपने
कब की बन गई
फिर तलवारें।
प्रजातंत्र के तीनों बन्दर
अब तो
न अपनी बुराई करते हैं
न सुनते हैं और न ही
देखते हैं।
उनकी मंगलवाणी भी
करती
अमंगल घोषणा।
किंकर्त्तव्य-विमूढ़ हो
भारत
दे रहा तुम्हें
श्रद्धांजलि
बापू!
दे रहा तुम्हें
श्रद्धांजलि, बापू
श्रद्धांजलि, बापू।
---0---राय साहब,
जैसे मैंने पहले कहा था कि जहॉं व्‍यक्‍ित, विचार या कविता अलग नहीं होते  वहॉं.....
'शोला हूँ, भड़कने की गुजारिश नहीं करता.
 सच मुँह से निकल जाता है, कोशिश नहीं करता'.


स्‍पष्‍टवादी परशुराम यदि आज गॉंधी के हिन्‍दुस्‍तान को देखेंगे तो शायद हम सबको ऐसा ही देश दिखाई देगा. यह कविता नहीं गॉंधी और उनके दर्शन की तरह आज के सच का निचोड़ है.

जहाँ कवि और कविता एक हो जाए तो कहने को कुछ नहीं रह जाता.

बापू से आशीष मॉंगते हुए कि वे हम सबको सद्बुद्धी दें.


होमनिधि शर्मा.

Saturday, January 23, 2010

'श्रद्धा की मधुशाला के बहाने'


डा. हरिवंश राय बच्चन की पुण्य तिथि १८ जनवरी पर श्रद्धांजलि - परशुराम राय, आर्डिनेंस फैक्‍ट्री, कानपूर


साकी बाला के हाथों में
भरा पात्र सुरभित हाला
पीने वालों के सम्मुख था
भरा हुआ मधु का प्याला
मतवालों के मुख पर फिर क्यों
दिखी नहीं थी जिज्ञासा
पीने वाले मतवाले थे
फिर भी सूनी मधुशाला ।। 1 ।।



मधु का कलश भावना का था
नाम आपका था हाला
पीने वाले प्रियजन तेरे
कान कान था मधुप्याला
तेरी चर्चा की सुगंध सी
आती थी उनके मुख से
यहॉ बसी थी तेरी यादें
और सिसकती मधुशाला ।। 2 ।।



छूट गए सब जग के साकी
छूट गई जग की हाला
छूट गए हैं पीने वाले
छूट गया जग का प्याला
बचा कुछ भी, सब कुछ छूटा
जग की मधुबाला छूटी
छोड़ गए तुम अपनी यादें
प्यारी सी यह मधुशाला ।। 3 ।।



मृत्यु खड़ी साकी बाला थी
हाथ लिए गम का हाला
जन-जन था बस पीनेवाला
लेकर सॉसों का प्याला
किंकर्तव्यमूढ़ सी महफिल
मुख पर कोई बोल थे
चेहरों पर थे गम के मेघ
आँखों में थी मधुशाला ।। 4 ।।



पंचतत्व के इस मधुघट को
छोड़ चले पीकर हाला
कूच कर गए इस जगती से
लोगों को पकड़ा प्याला
बड़ी अजब माया है जग की
यह तो तुम भी जान चुके
पर चिंतित तू कभी होना
वहाँ मिलेगी मधुशाला ।। 5 ।।



वहाँ मिलेंगे साकी तुमको
स्वर्ण कलश में ले हाला
इच्छा की ज्वाला उठते ही
छलकेगा स्वर्णिम प्याला
करें वहॉ स्वागत बालाएँ
होठों का चुम्बन देकर
होगे तुम बस पीने वाले
स्वर्ग बनेगा मधुशाला ।। 6 ।।



मन बोझिल था, तन बोझिल था
कंधों पर था तन प्याला
डगमग-डगमग पग करते थे
पिए विरह का गम हाला
राम नाम है सत्य बोला
रट थी सबकी जिह्वा पर
अमर रहें बच्चन जी जग में
अमर रहे यह मधुशाला ।। 7 ।।



दुखी न होना ऐ साकी तू
छलकेगी फिर से हाला
मुखरित होंगे पीने वाले
छलकेगा मधु का प्याला
नृत्य करेंगी मधुबालाएँ
हाथों में मधुकलश लिए
सोच रहा हूँ कहीं बुला ले
फिर से तुमको मधुशाला ।। 8 ।।



क्रूर काल साकी कितना हूँ
भर दे विस्मृति का हाला
खाली कर न सकेगा फिर भी
लोगों की स्मृति का प्याला
इस जगती पर परिवर्तन के
आएँ झंझावात भले
अमर रहेंगे साकी बच्चन
अमर रहेगी मधुशाला ।। 9 ।।



अंजलि का प्याला लाया हूँ
श्रद्धा की भरकर हाला
भारी मन है मुझ साकी का
ऑखों में ऑसू हाला
मदपायी का मतवालापन
ठहर गया क्यूँ पाता नहीं!
अंजलि में लेकर बैठा हूँ,
श्रद्धा की यह मधुशाला ।। 10 ।।

नमस्‍कार राय साहब,
यह ब्‍लाग (मनोज) तो आप ही के ज़रिये आज पढ़ने को मिल रहा है. सच कहूँ तो आपकी इस रचना का बड़ा इंतज़ार था. शायद शुरू के दो-तीन लोगों में मैं रहा हूँगा जिसे यह रचना आपने लिखते ही सुनाई थी. आज जैसे ही रचना देखी लगा आप सामने सोफे पर आमने-सामने बैठे रचना सुना रहे हों. सारी स्‍मृतियॉं एक चलचित्र बनकर ऑंखों के आगे चल रही हैं. संभवत: रचना सुनाने का समय भी इतनी ही रात्रि का रहा होगा. मुझे याद है यह रचना आपने रेल यात्रा करते समय लिखी थी. वह भी शायद बच्‍चन जी की पुण्‍यतिथि पर. मेरे अब तक की साहित्‍यिक गतिविधियों के दौरान शायद ही इतनी सटीक रचना बच्‍चन जी की मधुशाला या उनके जीवन के फलसफे पर किसी ने लिखी होगी. यह कहूँगा कि हम सब मिलकर जैसी श्रद्धांजलि बच्‍चन जी को देना चाहते थे वह आपने इसे लिखकर दे दी है. हम सब इस खास रचना के लिए आभारी हैं. मैं इस ब्‍लाग के माध्‍यम से लिखना चाहूँगा कि भले ही कम रचनाएं आपने लिखीं होंगी पर उन रचनाओं का शिल्‍प, कथ्‍य और गांभीर्य पाठक में एक पात्रता की मॉंग करता हैं. रचनाएं पढ़कर पाठक को लगता है कि मेरा भी क्‍लास ऊँचा हो गया है. बहुत तीव्र अनुभूतियॉं आपके काव्‍य में मैंने महसूस की हैं, बल्‍िक कहूँगा कि आधुनिक काव्‍य में शास्‍त्रीय ढंग से बिम्‍बों का प्रयोग बहुत कम ही कवि इतने ढंग से कर पाते हैं. मुझे याद है आप कविता समझने का तरीका भी बताया करते थे. यह कोरी प्रशंसा नहीं अपितु दशाधि वर्षों से भी अधिक समय से आप से जुड़े रहने और कई घण्‍टों व दिनों की चर्चाओं के बाद यह कह रहा हूँ. मुनासिब बात कहना और मुनासिब व्‍यवहार करना यह आपका स्‍वभाव है जो आपकी रचनाएं बोलती हैं. जब कविता बोलने लग जाए तो समझने के लिए कुछ अधिक शेष नहीं रह जाता. रह जाता है तो बस उसे अपनाना.

आपकी और भी रचनाओं, खासकर अन्‍यान्‍य विषयों पर लेखों की प्रतीक्षा है. आशा है आप अपने विचारों से हमें लाभान्‍वित करते रहेंगे. मनोज कुमार जी को भी बधाई कि बहुत सराहनीय कार्य यह ब्‍लाग आरंभ कर उन्‍होंने किया है. यह उनका ब्‍लाग नहीं बल्‍िक हम सबका ई-चबूतरा है जिस पर हमसब साथ नहीं बैठते बल्‍कि हमारे लिखे विचार बैठ बतियाते हैं.

होमनिधि शर्मा

Monday, January 18, 2010

राजभाषा कार्यशाला के बहाने महबूबनगर और 'पिल्‍ललमर्री'

दिनांक 7 जनवरी को महाप्रबंधक, बीएसएनएल के निमंत्रण पर महबूबनगर जाना था. सुबह 7.40 बजे काचीगुड़ा रेल्‍वे स्‍टेशन से मैं और रामचन्‍द्रन जी रेलगाड़ी में सवार हुए और गाड़ी महबूबनगर चल पड़ी. महबूबनगर की यह मेरी पहली यात्रा थी. मैं उत्‍सुक था कि दो घण्‍टे के सफ़र से आन्‍ध्र-प्रदेश के एक जिले तक पहुँचा जा सकता है. वह भी मात्र 35 रु का रेल किराया देकर. स्‍टेशन पर लगभग तीन-चार सौ लोग खडे़ थे. तुंगभद्रा एक्‍सप्रेस जो कर्नुल तक जाती है सिकंदराबाद से चलती है और लगभग वहीं से भर जाती है. श्रीमती गायत्री, बी एस एन एल की हिन्‍दी अधिकारी ने हमें पहले ही बता दिया था कि शायद काचीगुड़ा से सीट ना मिले. चूँकि 74 वर्षीय युवामन रामचन्‍द्रन जी मेरे साथ थे सो मैं अपने से आधी उम्र का बनकर तैयार खड़ा था कि जैसे ही गाड़ी की गति धीमी हो जाए और चलती गाड़ी में चढ़ने लायक स्‍िथति बनेगी मैं चढ़ जाऊँगा और वैसे ही किया. नतीजतन मात्र तीन-चार सीटें डिब्‍बे में खाली थी सो दो पर हम काबिज़ हो गये. सुबह-सुबह मेरे सहयोगी राजभाषाकर्मी श्री करण 6.30 बजे घर आ गए थे स्‍टेशन छोड़ने और हम कानबजती ठंड में स्‍टेशन निकल पड़े. ठंडा पानी नहाने की आदत के बावजूद ठंड काट रही थी. स्‍टेशन पहुँचते ही रामचन्‍द्रन जी ने नाश्‍ते और काफी की पेशकश की तो मैं इन्‍कार नहीं कर सकता था सो पार्सल नाश्‍ता लेकर फुट ओवर ब्रिज चढकर अगले प्‍लैटफार्म पर गए. वहीं ठहरे-ठहरे मैंने नाश्‍ता किया और बाद में दोनों ने गरम काफी पी ही थी कि गाड़ी आ गयी और हम चल पड़े.  

इस दौरान बहुत कुछ अनुभव हुआ. यात्रा चाहे छोटी हो या बड़ी तैयारी उतनी ही करनी पड़ती है. यहॉं भी जाते समय हाथ में सूटकेस छोड़ सबकुछ था. कई यात्राएं की होंगी परन्‍तु हमेशा एक दिन पहले से दिल-ओ-दिमाग यात्रा करना शुरू कर देता है. कौनसे कपड़े पहनने हैं. सुबह उठकर दाड़ी जरूर बनानी है. जूते पालिश हुए या नहीं. पर्स में पैसे पर्याप्‍त हैं या नहीं. पेट ठीक रखना है. कोई जरूरी दवाई हो तो उसे भी साथ रखना है. इनके अलावा क्रेडिट कार्ड, आई-कार्ड रखा है या नहीं आदि-इत्‍यादि. और इन सब पर घर वाले भी मानसिक रूप से तैयार रहेंगे कि रेल से बाहर जा रहे हैं. आप हैदराबाद में रोज 50 कि.मी. दूर जाएं-आएं उतनी मानसिकता प्रभावित नहीं होती जितनी कि सुरक्षित रेल यात्रा पर जाने से होती है. साधन और स्‍थान कितना असर डालते हैं यह महसूस किया जा सकता है.

तेलंगाना का ज्‍वलंत मुद्दा भी रेल में बैठते समय दीमाग में था. लगभग 12 वर्ष भानूर में काम करने से मेदक जिले के इलाकों और वहॉं के हालात का कुछ पता था तो इसी प्रकार बचपन से करीमनगर और निजामाबाद जाते-आने रहने से इन जिलों और यहॉं के गॉवों का हालचाल भी थोड़ा-बहुत पता था पर लोगों की भीड़ बता रही थी कि महबूबनगर इनसे कुछ हटकर है. सुना और देखा था कि लोग बंबई-पूना रोज आते-जाते हैं. यहॉं भी देख ऐसा ही लग रहा था. पर सवाल था कि महबूबनगर से लोग हैदराबाद आएं समझ में आता है पर यहॉं से महबूबनगर जाएं समझ में नहीं आ रहा था. खैर, कुछ ही देर में यह जिज्ञासा शांत हो गयी. मेरे बगल में एक व्‍यापारी और एक विद्यार्थी बैठा था और रामचन्‍द्रन जी के बाजू संयोग से बीएसएनएल का ही एक अधिकारी और एक विद्यार्थी. बातचीत सुनकर पता लगा कि महबूबनगर में राज्‍य और केन्‍द्र सरकार के कार्यालयों में काम करने वाले अधिकतर लोग इस रेल से आवा-जाही करते हैं और बच्‍चे इंजीनियरिंग और मेडिकल की पढ़ाई के लिए जाते-आते हैं. रेल का माहोल पूरी तरह सरकारी. कुछ लोग अखबार पढ़ रहे थे. कुछ तेलंगाना-आन्‍ध्रा चर्चा. कुछ वेतन संशोधन की तो कुछ अपने-अपने साइड बिजनेस या फिर बच्‍चों की पढ़ाई-लिखाई व अपने ट्रान्‍सफर के विषयों पर बातचीत कर रहे थे. ट्रेन में एक बात दिखाई दी. बास और सब-आर्डिनेट यात्री और सहयात्री थे. इनके सुख-दुख एक समान होने के कारण व्‍यवहार में आदमीयत दिखाई दे रही थी. अन्‍यथा बॉसेज की गर्दने और भौंए अक्‍सर तनी हुई रहती हैं.  इनके लिए अक्‍सर अपना दुख, दुख होता है पर दूसरे का दुख अक्‍सर परेशानी अड़चन और बहाना. बीच-बीच में रामचन्‍द्रन जी से भी बात हो रही थी. वे भी अपने सात-आठ वर्ष महबूबनगर जाने-आने के अनुभव सुना रहे थे.

यह सब देख-दिखाते रेल में गरमा-गरम समोसे, जाम (अमरूद), शू-पालीशवाला, इडली-वडेवाला, चाय-काफी, पानीवाला अपने-अपने खास अंदाज में आते रहे और हम खुशबू सूंघते महबूबनगर पहुँच गए. शुरू में तो गाड़ी धीमे चली. लग रहा था देर हो जाएगी. पर स्‍टेशन पहुँचकर समय देखा तो 10.15 बजे थे. लोग खुश थे. समय से पहुँचने पर. फुटओवर ब्रिज पार कर बाहर निकले. गायत्री जी अगुवाई के लिए खड़ीं थी. गाड़ी में बैठे रोड पार बी एस एन कार्यालय था. ठंड कम हो चुकी थी. सो हम दोनों एक-एककर सबसे पहले बाथरूम जाकर अपने-अपने स्‍वेटर उतार सो-काल्‍ड खुद को गेस्‍ट बनाकर बाहर निकले और सीधे सम्‍मेलन कक्ष गए. समय हो चुका था. प्रोजेक्‍टर लगा था. इंतेजाम के मुताबिक पेनड्राइव से प्रेसेंटेशन और फाण्‍ट लोड कर चेक कर लिया. इतने में जीएम के यहॉं से मिलने का बुलावा आया. परिचय हुआ. जी एम देखते ही गैर-हिन्‍दी भाषी लगे. रंग-रूप से यहॉं के स्‍थानीय निवासी. परिचय हुआ. चाय आयी. बातचीत में खुले तो पता चला कि कन्‍याकुमारी से कश्‍मीर तक सभी बड़े शहरों में उनकी पोस्‍टिंग हो चुकी है. हम दोनों की प्रस्‍तुति के विषयों के बारे में जानकारी ली. मेरा विषय संसदीय राजभाषा समिति और उसकी प्रश्‍नावली था. इसीसे जुड़ा सन् 2008 के आखिर का श्रीनगर का वाकिया  उन्‍होंने सुनाते हुए बताया कि उनके वहॉं प्रधान रहते हुए समिति आयी थी. संयोजनकर्ता भी वही थे. और, श्रीनगर होने के कारण सुरक्षा इंतेजाम और अन्‍य व्‍यवस्‍थाएं कितनी मुश्‍किलें पैदा करती हैं इसका जिक्र  भी किया. कड़े सुरक्षा बंदोबस्‍त के बीच 13 एम पी सदस्‍य और सचिवीय सहयोगी पहुँचे जिनके इंतेजामात पर लाखों में खर्च आया और जिस दिन निरीक्षण बैठक हुई उसमें बी एस एन एल की ओर से कोई मुरलीधर नाम के वरिष्‍ठ अधिकारी मौजूद थे जिनके हस्‍ताक्षर प्रश्‍नावली में थे. बातचीत-चर्चा कई बातों पर हुई परन्‍तु ये अहिन्‍दी भाषी मुरलीधर के हस्‍ताक्षर देख अध्‍यक्ष महोदय बिफर गए और सख्‍त लहजे में पूछ बैठे कि आपने अपने हस्‍ताक्षर के आखरी तीन अक्षर अलग क्‍यों लिखे हैं और इनका क्‍या अर्थ होता है बताएं. उन्‍होंने murli dar लिखा था जिसमें अंतिम तीन अक्षरों से वहाँ के मुस्‍लिम बिरादरी की पहचान होती है जबकि धर dhar लिखने पर हिन्‍दु बिरादरी की. यह एक आम तरीका है नाम से बिरादरी पहचानने का. डार मुस्‍लिम बिरादरी तो धर समूचे पंडित बिरादरी (हिन्‍दू) की पहचान है. वे पूछ बैठे कि आप क्‍या हैं और क्‍या लिख रहे हैं. बड़ी मुश्‍किल से मुरलीधर महोदय ने उन्‍हें यह कहते हुए शांत किया कि दक्षिण प्रांत में यह इसी तरह स्‍पेल किया जाता है अत: यह मुरलीधर ही है मुरलीडार नहीं. तात्‍पर्य यह कि गए थे सीखाने, पहले सीखने मिल गया. अपनी तो चॉंदी हो गयी. शायद महबूबनगर नहीं जाता तो यह बात इतनी तफसील से जानने को नहीं मिलती. दूसरे वहॉं भोजन का इंतजाम. लगभग सभी मॉंसाहार का प्रयोग करते हैं और समिति के लिए शुद्ध शाकाहारी भोजन और बनानेवाला एक कड़ी चुनौती रही यह जानने को मिला. तीसरा जम्‍मू-श्रीनगर जाने वाले अपने परिवार को सुरक्षा कारणों से यहीं छोड़कर जाते हैं तथा ये सभी वहॉं के निवासियों के लिए केन्‍द्र सरकार के कारिंदे याने भारत सरकार के हैं, गैर-मुल्‍की. उनका फर्ज बनता है कि वे उनकी सेवा करें और जब वे रिवाल्‍वर-बन्‍दूकें लेकर कनपट्टी पर रख दें तो सह जाएं. माहोल काफी गंभीर हो चला था और कार्यशाला का समय भी.

इस बीच लगभग 11.30 बजे कार्यशाला आरंभ हुई. जी एम ने उद्घाटन में कई बातें दोहरायीं. इसके बाद मैंने और रामचन्‍द्रनजी ने एक-एककर अपने-अपने विषयों पर प्रस्‍तुति-सज्‍जित व्‍याख्‍यान दिये. बहुत ही अच्‍छे माहोल में बातचीत और चर्चा हुई. स्‍वयं जी एम महोदय विषय और प्रस्‍तुति से मुत्‍तासिर होकर पूरे 2.15 बजे तक बैठे रहे.  इसके बाद हमें भोजन के लिए एकमात्र उपलब्‍ध शाकाहारी होटल ले जाया गया. यहॉं बीएसएनएल की ओर से एक एजीएम और स्‍वयं गायत्री जी उपस्‍थित थीं. 


खाने के बाद दो घण्‍टे का समय बचा था. ए जी एम साहब ने कहा कि यहॉं पास में एक पर्यटन स्‍थल 'पिल्‍ललमर्री' है. देखने जाएंगे. मुझे कुछ नाम समझ में नहीं आया. रामचन्‍द्रनजी ने समझाया पर जब दो-तीन किलोमीटर दूर जगह पहुँचकर देखा तो एकदम सुख्‍ाद आश्‍चर्य हुआ. बच्‍चे वाला बड़ का पेड़.टिकट लेकर हम पेड़ देखने प्रवेश करे. पेड़ देखते ही एकदम बचपना दिल में कुलबुली करने लगा. इतना खूबसूरत और इतना बड़ा कि पेड़ पर चढ़ने, घॉंस पर बैठने-लोटने का मन करने लगा. लगभग चार एकड़ में फैला पेड़. यह सात सौ वर्ष पुराना वृक्ष है जिसकी हजारों शाखाएं झुकती हुई ज़मीन में समा गयीं और वहीं से एक-एक वृक्ष बनकर निकल पड़ीं. कई शाखाओं को काटकर पगडण्‍डी नुमा रास्‍ता बनाया गया है. मन तो कर रहा था कि वहीं दो-चार घण्‍टे लेट लूँ. काश गरमागरम खाना यदि बनाकर लाते और सब बैठकर खाते तो मज़े का अंदाजा लगाइए. पेड़ जैसे अपनी बाहें फैलाकर हमें बुला रहा था. अपनी आगोश में लेने पता नहीं कबसे खड़ा इंतज़ार कर रहा था. पूरा चमन खाली था. केवल हम चार लोग थे. गायत्री के कहने पर हमने कुछ तस्‍वीरें भी लीं. मैंने कहा मज़ा आ गया. यहॉं न आते तो यात्रा अधूरी रह जाती. इसी को लगे बाजू जमीन के टुकड़े पर छोटा डीर पार्क है. वह भी देखे. सब सूखा दिखाई दे रहा था. कहीं कुछ हरा-भरा नहीं था. एकदम चौंक गया. यह क्‍या दीवार के एक तरफ इतना हरा-भरा और घना पेड़ और दूसरी तरफ एकदम तड़की ज़मीन और खाने को तरसते तीन हीरण. बड़े खूबसूरत सिंगो वाले हीरण एकदम पास आकर आशा से देखने लगे कि हम कुछ खाने के लिये लाये हैं. यदि पता होता तो अवश्‍य ले जाते. बहुत दु:ख हुआ उनकी ऐसी हालत देखकर. न उनके लिये वहॉं खाने का इंतजाम दिखा न पानी का. बेचारे बेजु़बान जानवर. इसीके सामने एक बड़े चबूतरे पर तीन मंदिर और एक विशाल नंदी रखा था. देखा, बड़ा खूबसूरत नंदी था 13वीं सदी का. लगा कि कोई शैवमत के राजा ने बनवाया होगा. इस बीच में रामचन्‍द्रन जी इसी चबूतरे की सीढियों पर बैठ गये थे. 74 बरस की उम्र में सुबह से दो बार फुट ओवर ब्रिज चढ़ना-उतरना. दो बार बीएसएनएल की दूसरी मंजिल पर जाना-आना. एक घण्‍टे से ज्‍यादा खड़े होकर लेक्‍चर देना. मुझे सीखा रहा था कि कमीटमेंट और सीन्‍सियारिटी के आगे शरीर भी कुछ नहीं कर सकता. भारी-भरकम शरीर और पैर में राड. कहीं भी कोई शिकन और थकन नहीं. पूरी ऊर्जा के साथ वे हमारे संग चल रहे थे. हमने कुछ तस्‍वीरें सेल में कैद की और इसके बाद चल पड़े बी एस एन एल कार्यालय जहॉं के परिसर के गेस्‍ट हाउस में आधा-घण्‍टे रुके और तैयार होकर ट्रेन के लिए चल पड़े. इस बीच में रास्‍ते में हमने एक-एक कप चाय पी. एक सरकारी जूनियर कालेज से छूटकर बच्‍चे बाहर आ रहे थे. उनके कपड़े, चाल-ढाल से गरीबी, पिछड़ापन झॉंक रहा था कि जिस जिले से कृष्‍णा नदी बहती है उसके पाटों पर बसा नगर गरीब और सूखा है. क्‍या यही तेलंगाना है, बरसों की राजनीतिक स्‍वार्थपरता का परिणाम है या सबकी अदूरदर्शिता का परिणाम. कॉलेज में पड़ते हुए हम एक-दूसरे को मूर्ख या जाहिल ठहराने के लिए कहा करते थे कि 'ये लाल बस से उतरा है इसे क्‍या पता या पालमूर से आया है'.
घर आकर जब नेट पर महबूबनगर के बारे में पड़ा तो पता चला कि इसीका एक नाम पालमूर भी है.
[formerly known as "Rukmammapeta" and "Palamooru". The name was changed to Mahabubnagar on 4th December 1890, in honour of Mir Mahbub Ali Khan Asaf Jah VI, the Nizam of Hyderabad (1869-1911 AD). It has been the headquarters of the district since 1883 AD.  The Mahabubnagar region was once known as Cholawadi or the land of the Cholas'.  It is said that the famous Golconda diamonds including famous "KOHINOOR" diamond came from Mahabubnagar district.] 


रास्‍ते में बताया गया कि यहीं से कुछ दूरी पर अलमपुर स्‍थान है जहॉं लगभग आठ-नौ सौ बरस पुराने चालुक्‍य/चोल वंश के समय बनाये गये ब्रह्मा जी के नौ मंदिर हैं.  प्राचीन, खूबसूरत और विशाल मंदिर.  कहा जाता है कि भारत में केवल दो जगह ब्रह्मा जी के मंदिर हैं एक पुष्‍कर में और दूसरा यहॉं.  अब इन्‍तज़ार है फिर से हैदराबाद से महबूबनगर और कर्नूल तक यात्रा कर भ्रमण करने का ताकि मैं और मेरे परिवार सहित सभी संगी-साथी सब देख-सुन सके. राजभाषा हमेशा सीखाती रही है और सीखाती रहेगी.

Wednesday, January 13, 2010

राजभाषा हिन्‍दी बनाम संस्‍कृत

अक्‍सर जब कभी कोई राजभाषा और हिन्‍दी पर सरकारी तौर पर कार्यक्रम आयोजित किये जाते हैं तो  कोई न कोई यह अवश्‍य पूछता है कि हिन्‍दी की जगह संस्‍कृत को राजभाषा बनाया जाता तो यह झंझट ही न होता. कार्यालय में भी मीटिंगों आदि में भी सबकी उपस्‍िथति में यही फुसफुसाहट देखने में आती है.

कल 12 जनवरी को मेरे एक वरिष्‍ठ साथी अधिकारी श्री के के रामचन्‍दर जी ने यही बात छेड़ी. इससे पहले भी वे कई बार प्रत्‍यक्ष और परोक्ष रूप से यह प्रश्‍न करते रहे और मैं समुचित उत्‍तर देता रहा. परन्‍तु, जब कल उन्‍होंने यह प्रश्‍न पुन: पूछा तो मुझे लगा कि इसका विस्‍तार से जवाब देना ही पड़ेगा.

मैंने कुछ बातें उनसे पूछीं कि जब हम आज़ाद हुए उस समय संस्‍कृत देश के किस और कितने भू-भाग में बोली और पढ़ी-लिखी जाती थी ?  क्‍या हम आज में जीते हैं कि बीते इतिहासकाल में.
क्‍या आप संस्‍कृत जानते हैं? यदि जानते हैं और आपने पढ़ी है तो कृपया मुझे भी सीखायेंगे. यदि नहीं जानते हैं तो कारण क्‍या?
चर्चा को आगे बढ़ाते हुए कहा कि यह देश कई संस्‍कृतियों और परम्‍पराओं से मिलकर बना है. हमने सामान्‍य वेशभूषा के मामले में धोती-कुर्ता छोड़ पैण्‍ट-शर्ट क्‍यों अपनाया?  इसलिए कि उस समय इसका चलन कम और पैण्‍ट-शर्ट का चलन अधिक था. यह बाबूओं और अफसरों का पहनावा था. पढ़े-लिखे और सभ्‍य आदमी की पहचान थी. इन सबके अलावा यह आम-ओ-खास का पहनावा बन चुका था. और बना तो यह भी उसी कॉटन के कपड़े से है. कपड़ा दोनों में एक ही है पर इसके रूप वक्‍त के मुताबिक अलग-अलग. ठीक इसी तरह सभी भारतीय भाषाओं में संस्‍कृत आधारभूत रूप में समायी हुई है. कुल मिलाकर देखें तो मूलस्रोत एक ही है. संस्‍कृत एक अलग भाषा न रहकर वह आते-आते सब भारतीय भाषाओं में समाहित हो गयी जिसे आज अलग नहीं किया जा सकता. संस्‍कृत आज किसी खास लिपि में बंध कर नहीं रह गयी. वह सबकी हो गयी. आज जितनी भी भाषाएं प्रयोग में हैं (तेलुगु, तमिल, कन्‍नड़ और मलयालम आदि), इनके नाम और लिपि भिन्‍न हो सकते हैं पर इनमें और अन्‍य भारतीय भाषाओं में यह आज भी प्रयुक्‍त और चलायमान है. भाषाएं और संस्‍कृतियॉं कभी समाप्‍त नहीं होतीं. समय और काल के अनुसार इनके रूप और प्रयोग में परिवर्तन आता रहता है.  यदि आन्‍ध्र-प्रदेश का ही उदाहरण लें तो तेलंगाना, रायलसीमा और आन्‍ध्र प्रांत में तेलुगु के बोलचाल के रूप अलग-अलग दिखायी देते हैं. तेलुगु समाचार देखने पर पता चलता है कि इसमें पिछले 40-50 बरसों में कितना परिवर्तन आया है. तेलुगु में अंग्रेजी और आम हिन्‍दी के बोलचाल के शब्‍द धड़ल्‍ले से इस्‍तेमाल किये जा रहे हैं. शायद सौ साल बाद तेलुगु का रूप क्‍या होगा कोई कह नहीं सकता. जिस वर्तमान में जो पीढ़ी होगी, वह जैसी और जो भाषाएं बोलेंगी उन्‍हीं में कामकाज भी होगा. अंग्रेजी का उदाहरण लें तो जैसी अंग्रेजी दो-तीन सौ बरस पहले बोली जाती थी, क्‍या आज बोली जाती है. हिन्‍दी में ही न जाने कितने अंग्रेजी शब्‍द समाहित हो चुके हैं. जब हमारे खान-पान, रहन-सहन, पहनावे आदि में इतने बदलाव आ चुके हैं तो भाषा में तो आना स्‍वाभाविक ही हैं. ये सभी परिवर्तन भाषा के बिना व्‍यक्‍त हो ही नहीं सकते. इन्‍हें भाषा में डालना और गढ़ना ही पड़ता है . भाषा एक डायनामिक टूल है जिस पर किसी एक व्‍यक्‍ित या समाज -विशेष का आधिपत्‍य नहीं हो सकता. जब कभी भी भाषाओं पर भाषाविदों के नियम-कानून लागू हुए वह चुपचाप दूसरे रास्‍ते समाज में नये रूपों में आती गयी. यह कोई सीधे वार या प्रतिकार नहीं करती. यह अपने-आपको काल और परिस्‍थिति के अनुसार व्‍यवस्‍थित कर लेती है. यही इसका सबसे बड़ा अनुशासन और गुणधर्म है.

संस्‍कृत अगर शास्‍त्रीय रूप में देखना चाहें तो बुद्ध और अशोक से पहले जाना होगा. जैसे ही ये एक विशेष अनुशासन में बांध दी गयी नये रूप में चलायमान हो गई.

अत: काल, परिस्‍थिति और जरूरत के मुताबिक ही किसी भी वस्‍तु या विषय का चयन अथवा उस पर सवाल किया जाना चाहिए तभी वह समचीनी लगता है अन्‍यथा केवल चुटकी लेने के अलावा कुछ नहीं जैसे कि इस राजभाषा के संदर्भ में .


होमनिधि शर्मा.

Tuesday, January 12, 2010


विचार ही संस्‍कारों की नींव होते हैं या कहें कि विचार ही संस्‍कार होते हैं.

फिल्‍म लगान में जावेद अख्‍तर के गीत की ये पंक्‍तियॉं
1. 'ओ मितवा, सुन मितवा, तुझको क्‍या डर है रे..
    ये धरती अपनी है अपना अंबर है रे, तो आजा रे....।'
2. ' ओ पालन हारे, निरगुण और न्‍यारे, तुम्‍हरे बिन हमरा कौनू नाहीं.'


इसी तहर फिल्‍म रंग दे बसंती का गीत
' ए साला, अभी-अभी, हुआ यकीं। के आग है मुझ में कहीं । रू-ब-रू रौशनी है.......


साल 2003-04 की बात है. छोनू लगभग तीन-चार साल की रही होगी. सामान्‍यत: बच्‍चे खाना खाने सताते हैं. सो छोनू भी थोड़ा सताया करती थी. हम दोनों में गीत-संगीत के प्रति लगाव होने से छोनू में भी गीत-संगीत सुनने की आदत बन पड़ी थी. जब भी टी वी पर ये गीत आते छोनू घर में या आस-पास जहॉं भी हो आ जाया करती थी और टी वी पर गाने देखने लगती. कई बार गीत सुनकर नींद में से भी जाग जाती.  अक्‍सर वह खाना खाते समय फिल्‍म फिज़ा का टाइटल गीत तथा इन्‍ा गीतों को लगाने की  फरमाईश करती और इन गीतों को सुनते हुए भोजन करती. विशेषकर लता जी की आवाज़ में गाए गीत को सुनकर वह खो जाती. उसे पता भी नहीं चलता कि वह खाना खा चुकी है.


मैं मन ही मन उसे देखकर सोचा करता कि बच्‍चों में कितनी साफ-सुथरी समझ होती है. वे कैसे इन गीत-गज़ल और कविताओं का सीधे-सीधे मतलब समझते और ग्रहण करते हैं. आज छोनू कुछ बड़ी हो गई है पर उसमें ये सब मतलब व्‍यवहार बनकर दिखाई देने लगे हैं. किसी हिन्‍दी लेक्‍चरर या प्रोफेसर से इन गीतों के अर्थ पूछो तो वह कम से कम घंटे भर का लेक्‍चर पिला दें.  जिससे पिल-पिले होकर गिर पड़ने तथा अपच और अजीर्ण हो जाने का खतरा अलग. 

अब जब वह मेरे साथ टहलने जाती है तो चलते- चलते इंसानी हक़ की बात करती है. समाज में व्‍याप्‍त असमानता और अव्‍यवस्‍था पर सवाल करती है. वह भी बिलकुल सीधे-सीधे कि कुछ लोग एकदम गरीब, भूखे, सताये हुए क्‍यों होते हैं. खासकर बच्‍चे. हम क्‍यूं नहीं इनकी मदद कर सकते. समाज में आदमी-आदमी के बीच भेदभाव और दूरी क्‍यूं है. जातियॉं किसने बनायीं. यदि मंदिर-मस्‍जिद हमारे भगवान, खु़दा का घर है तो इसके अतराफ दीवारों के पास लोग कचरा क्‍यूं फेंकते हैं. आटो और बस वाले आपस में सवारियों को लेकर लड़ते क्‍यूं हैं. ट्राफिक पुलिस वाला सड़क पर खड़ा खाली देखता क्‍यूं रहता है. हम जब कार में जाते हैं तो किसी बस स्‍टैण्‍ड के पास खड़े जान-पहचान के आदमी को देखकर उसे अपने साथ क्‍यूं नहीं ले जा सकते, कम से कम कुछ दूर तक छोड़ क्‍यूं नहीं  सकते और ऐसे ढेरों प्रश्‍न?

जब फिल्‍म रंग दे बसंती आयी तो वह इस फिल्‍म के गीत गुनगुनाने लगती. उसने कहा बाबा रंग दे बसंती फिल्‍म टी वी पर आने वाली है , हम  देखेंगे. दोनों ने पूरी फिल्‍म देखी. फिल्‍म के दौरान वह बिल्‍कुल नहीं  उठी.  उसके कहने पर मैंने फिल्‍म देखी और इसका गीत मेरे ब्‍लाग बनाने और कुछ लिखने की प्रेरणा बन कर उभरा.

आज मुझे खुशी है कि छोनू देखने-समझने लगी है. शायद मुझमें भी बालपन में समझ रही होगी पर हम किसी से बोल नहीं पाते  थे या यह उस समय के उसूलों के खिलाफ़ था. यदि विचार संस्‍कार बन जाय तो बाद में आने वाली डिग्रियॉं ज्‍यादा सार्थक व अर्थवान बन सकती हैं.


सो कुल मिलाकर कहने के दो तात्‍पर्य हैं. 1. हम सबसे कुछ ना कुछ सीख सकते हैं. खासकर अपने और आस-पास के बच्‍चों से यह सीखा जा सकता है कि उन्‍हें जब कुछ पसंद आता है तो उसमें कुछ न कुछ होता जरूर है. खासकर कोई गीत या फिल्‍म पसंद आ जाए तो वे उसके अर्थ और कंटेंट को अच्‍छी तरह समझते हैं तथा इन्‍हें व्‍यवहार में लाते हैं . ऐसा हम क्‍यों नहीं करते? जिन मुद्दों पर हमें बात करनी चाहिए, जो जिम्‍मेदारी हमें निभानी चाहिए वह हम क्‍यों नहीं निभाते ? 
आशय कि भटक जाएं तो बच्‍चे बड़ों की राह बन सकते हैं.


2. साहित्‍य पढ़ा-पढ़ाया जाता है हित साधने के लिए. विधा चाहे जो भी हो, आज साहित्‍य के नाम पर जिस तरह की रचनाएं लिखी जा रही हैं वे नेम-फेम के लिए अधिक और साहित्‍य के अर्थ में कम होती हैं. क्‍या वे पाठक तक पहुँचती हैं? किस स्‍तर और किस उम्र के पाठक आज की कविता, कहानियों को समझ पाने में समर्थ हैं? एक बड़ी बात कहना या सही बात कहना जितना जरूरी है उससे ज्‍यादा जरूरी उसके कहने का तरीका और अंदाज होता है. जावेद अख्‍तर ने जितनी आसानी और सीधे तरीके से इन गीतों में एक आम आदमी की हालत व  उसके हक की बात की है और दूसरे गीत से जिस तरह मंदिर-मस्‍जिद के दायरे को मिटाया है वह एक मिसाल है. 


विधा चाहे जो हो. रचनाकार का रचनाकर्म तभी सफल हो सकता है जब पाठक देख-पढ़कर उसे आत्‍मसात कर ले. जब रचनाकार, रचना और समाज एक-दूसरे में इस तरह समाहित हो जाएं कि उन्‍हें अलग करना मुश्‍िकल हो जाय. रचना और पाठक के स्‍तर व उम्र  का भेद  मिट जाए  तब अवश्‍य ही कोई रचना अपने साहित्‍य धर्म को पूरा करती है.  अन्‍यथा,  एम़ ए पढ़ें या शोध कर लें. व्‍याख्‍याता हों या प्रोफेसर, बच्‍चे परीक्षाएं पास करने की मजबूरी में कुछ पढ़-सुन लेंगे और साहित्‍य पर परीक्षाएं भारी पड़ती रहेंगी. बच्‍चे यूनिवर्सिटी और साहित्‍य से यूँ ही दूरी बनाते जाएंगे.