Tuesday, January 12, 2010


विचार ही संस्‍कारों की नींव होते हैं या कहें कि विचार ही संस्‍कार होते हैं.

फिल्‍म लगान में जावेद अख्‍तर के गीत की ये पंक्‍तियॉं
1. 'ओ मितवा, सुन मितवा, तुझको क्‍या डर है रे..
    ये धरती अपनी है अपना अंबर है रे, तो आजा रे....।'
2. ' ओ पालन हारे, निरगुण और न्‍यारे, तुम्‍हरे बिन हमरा कौनू नाहीं.'


इसी तहर फिल्‍म रंग दे बसंती का गीत
' ए साला, अभी-अभी, हुआ यकीं। के आग है मुझ में कहीं । रू-ब-रू रौशनी है.......


साल 2003-04 की बात है. छोनू लगभग तीन-चार साल की रही होगी. सामान्‍यत: बच्‍चे खाना खाने सताते हैं. सो छोनू भी थोड़ा सताया करती थी. हम दोनों में गीत-संगीत के प्रति लगाव होने से छोनू में भी गीत-संगीत सुनने की आदत बन पड़ी थी. जब भी टी वी पर ये गीत आते छोनू घर में या आस-पास जहॉं भी हो आ जाया करती थी और टी वी पर गाने देखने लगती. कई बार गीत सुनकर नींद में से भी जाग जाती.  अक्‍सर वह खाना खाते समय फिल्‍म फिज़ा का टाइटल गीत तथा इन्‍ा गीतों को लगाने की  फरमाईश करती और इन गीतों को सुनते हुए भोजन करती. विशेषकर लता जी की आवाज़ में गाए गीत को सुनकर वह खो जाती. उसे पता भी नहीं चलता कि वह खाना खा चुकी है.


मैं मन ही मन उसे देखकर सोचा करता कि बच्‍चों में कितनी साफ-सुथरी समझ होती है. वे कैसे इन गीत-गज़ल और कविताओं का सीधे-सीधे मतलब समझते और ग्रहण करते हैं. आज छोनू कुछ बड़ी हो गई है पर उसमें ये सब मतलब व्‍यवहार बनकर दिखाई देने लगे हैं. किसी हिन्‍दी लेक्‍चरर या प्रोफेसर से इन गीतों के अर्थ पूछो तो वह कम से कम घंटे भर का लेक्‍चर पिला दें.  जिससे पिल-पिले होकर गिर पड़ने तथा अपच और अजीर्ण हो जाने का खतरा अलग. 

अब जब वह मेरे साथ टहलने जाती है तो चलते- चलते इंसानी हक़ की बात करती है. समाज में व्‍याप्‍त असमानता और अव्‍यवस्‍था पर सवाल करती है. वह भी बिलकुल सीधे-सीधे कि कुछ लोग एकदम गरीब, भूखे, सताये हुए क्‍यों होते हैं. खासकर बच्‍चे. हम क्‍यूं नहीं इनकी मदद कर सकते. समाज में आदमी-आदमी के बीच भेदभाव और दूरी क्‍यूं है. जातियॉं किसने बनायीं. यदि मंदिर-मस्‍जिद हमारे भगवान, खु़दा का घर है तो इसके अतराफ दीवारों के पास लोग कचरा क्‍यूं फेंकते हैं. आटो और बस वाले आपस में सवारियों को लेकर लड़ते क्‍यूं हैं. ट्राफिक पुलिस वाला सड़क पर खड़ा खाली देखता क्‍यूं रहता है. हम जब कार में जाते हैं तो किसी बस स्‍टैण्‍ड के पास खड़े जान-पहचान के आदमी को देखकर उसे अपने साथ क्‍यूं नहीं ले जा सकते, कम से कम कुछ दूर तक छोड़ क्‍यूं नहीं  सकते और ऐसे ढेरों प्रश्‍न?

जब फिल्‍म रंग दे बसंती आयी तो वह इस फिल्‍म के गीत गुनगुनाने लगती. उसने कहा बाबा रंग दे बसंती फिल्‍म टी वी पर आने वाली है , हम  देखेंगे. दोनों ने पूरी फिल्‍म देखी. फिल्‍म के दौरान वह बिल्‍कुल नहीं  उठी.  उसके कहने पर मैंने फिल्‍म देखी और इसका गीत मेरे ब्‍लाग बनाने और कुछ लिखने की प्रेरणा बन कर उभरा.

आज मुझे खुशी है कि छोनू देखने-समझने लगी है. शायद मुझमें भी बालपन में समझ रही होगी पर हम किसी से बोल नहीं पाते  थे या यह उस समय के उसूलों के खिलाफ़ था. यदि विचार संस्‍कार बन जाय तो बाद में आने वाली डिग्रियॉं ज्‍यादा सार्थक व अर्थवान बन सकती हैं.


सो कुल मिलाकर कहने के दो तात्‍पर्य हैं. 1. हम सबसे कुछ ना कुछ सीख सकते हैं. खासकर अपने और आस-पास के बच्‍चों से यह सीखा जा सकता है कि उन्‍हें जब कुछ पसंद आता है तो उसमें कुछ न कुछ होता जरूर है. खासकर कोई गीत या फिल्‍म पसंद आ जाए तो वे उसके अर्थ और कंटेंट को अच्‍छी तरह समझते हैं तथा इन्‍हें व्‍यवहार में लाते हैं . ऐसा हम क्‍यों नहीं करते? जिन मुद्दों पर हमें बात करनी चाहिए, जो जिम्‍मेदारी हमें निभानी चाहिए वह हम क्‍यों नहीं निभाते ? 
आशय कि भटक जाएं तो बच्‍चे बड़ों की राह बन सकते हैं.


2. साहित्‍य पढ़ा-पढ़ाया जाता है हित साधने के लिए. विधा चाहे जो भी हो, आज साहित्‍य के नाम पर जिस तरह की रचनाएं लिखी जा रही हैं वे नेम-फेम के लिए अधिक और साहित्‍य के अर्थ में कम होती हैं. क्‍या वे पाठक तक पहुँचती हैं? किस स्‍तर और किस उम्र के पाठक आज की कविता, कहानियों को समझ पाने में समर्थ हैं? एक बड़ी बात कहना या सही बात कहना जितना जरूरी है उससे ज्‍यादा जरूरी उसके कहने का तरीका और अंदाज होता है. जावेद अख्‍तर ने जितनी आसानी और सीधे तरीके से इन गीतों में एक आम आदमी की हालत व  उसके हक की बात की है और दूसरे गीत से जिस तरह मंदिर-मस्‍जिद के दायरे को मिटाया है वह एक मिसाल है. 


विधा चाहे जो हो. रचनाकार का रचनाकर्म तभी सफल हो सकता है जब पाठक देख-पढ़कर उसे आत्‍मसात कर ले. जब रचनाकार, रचना और समाज एक-दूसरे में इस तरह समाहित हो जाएं कि उन्‍हें अलग करना मुश्‍िकल हो जाय. रचना और पाठक के स्‍तर व उम्र  का भेद  मिट जाए  तब अवश्‍य ही कोई रचना अपने साहित्‍य धर्म को पूरा करती है.  अन्‍यथा,  एम़ ए पढ़ें या शोध कर लें. व्‍याख्‍याता हों या प्रोफेसर, बच्‍चे परीक्षाएं पास करने की मजबूरी में कुछ पढ़-सुन लेंगे और साहित्‍य पर परीक्षाएं भारी पड़ती रहेंगी. बच्‍चे यूनिवर्सिटी और साहित्‍य से यूँ ही दूरी बनाते जाएंगे.


2 comments:

  1. प्रिय होमनिधि शर्मा जी,
    आपने अपना ब्लॉग बनाकर बहुत ही सराहनीय कार्य किया है. हमलोग आपके ब्लॉग पर सार्थक गपशप करते रहेंगे.
    मैं ऐसा मानकर चल रहा हूँ कि आप हिंदी टाइपिंग के लिए या तो रेमिंगटन या फोनेटिक की-बोर्ड प्रयोग कर रहे हैं. इसलिए शब्दों की संरचना में कुछ विसंगतियां हैं. आप INSCRIPT MODE से टाइप करने का प्रयास करें, सारी दिक्कतें दूर हो जाएंगी. इसके लिए मैं क्षमाप्रार्थी हूँ, लेकिन आपको हर समय सहयोग देने के लिए तैयार हूँ.
    आपका अपना
    अरुण कुमार मंडल

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  2. Priya Sharmaji,

    Aapne blog ki shuruat ki hame hardik prasanta hui. Gadya mein aapke vichar to padne mil rahe hain apki nutan kavitaye bhi blog mein sammilit kare to hamari prasanta mein char chand lag jayenge.

    Aapka
    Basant Prasad

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