अक्सर जब कभी कोई राजभाषा और हिन्दी पर सरकारी तौर पर कार्यक्रम आयोजित किये जाते हैं तो कोई न कोई यह अवश्य पूछता है कि हिन्दी की जगह संस्कृत को राजभाषा बनाया जाता तो यह झंझट ही न होता. कार्यालय में भी मीटिंगों आदि में भी सबकी उपस्िथति में यही फुसफुसाहट देखने में आती है.
कल 12 जनवरी को मेरे एक वरिष्ठ साथी अधिकारी श्री के के रामचन्दर जी ने यही बात छेड़ी. इससे पहले भी वे कई बार प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से यह प्रश्न करते रहे और मैं समुचित उत्तर देता रहा. परन्तु, जब कल उन्होंने यह प्रश्न पुन: पूछा तो मुझे लगा कि इसका विस्तार से जवाब देना ही पड़ेगा.
मैंने कुछ बातें उनसे पूछीं कि जब हम आज़ाद हुए उस समय संस्कृत देश के किस और कितने भू-भाग में बोली और पढ़ी-लिखी जाती थी ? क्या हम आज में जीते हैं कि बीते इतिहासकाल में.
क्या आप संस्कृत जानते हैं? यदि जानते हैं और आपने पढ़ी है तो कृपया मुझे भी सीखायेंगे. यदि नहीं जानते हैं तो कारण क्या?
चर्चा को आगे बढ़ाते हुए कहा कि यह देश कई संस्कृतियों और परम्पराओं से मिलकर बना है. हमने सामान्य वेशभूषा के मामले में धोती-कुर्ता छोड़ पैण्ट-शर्ट क्यों अपनाया? इसलिए कि उस समय इसका चलन कम और पैण्ट-शर्ट का चलन अधिक था. यह बाबूओं और अफसरों का पहनावा था. पढ़े-लिखे और सभ्य आदमी की पहचान थी. इन सबके अलावा यह आम-ओ-खास का पहनावा बन चुका था. और बना तो यह भी उसी कॉटन के कपड़े से है. कपड़ा दोनों में एक ही है पर इसके रूप वक्त के मुताबिक अलग-अलग. ठीक इसी तरह सभी भारतीय भाषाओं में संस्कृत आधारभूत रूप में समायी हुई है. कुल मिलाकर देखें तो मूलस्रोत एक ही है. संस्कृत एक अलग भाषा न रहकर वह आते-आते सब भारतीय भाषाओं में समाहित हो गयी जिसे आज अलग नहीं किया जा सकता. संस्कृत आज किसी खास लिपि में बंध कर नहीं रह गयी. वह सबकी हो गयी. आज जितनी भी भाषाएं प्रयोग में हैं (तेलुगु, तमिल, कन्नड़ और मलयालम आदि), इनके नाम और लिपि भिन्न हो सकते हैं पर इनमें और अन्य भारतीय भाषाओं में यह आज भी प्रयुक्त और चलायमान है. भाषाएं और संस्कृतियॉं कभी समाप्त नहीं होतीं. समय और काल के अनुसार इनके रूप और प्रयोग में परिवर्तन आता रहता है. यदि आन्ध्र-प्रदेश का ही उदाहरण लें तो तेलंगाना, रायलसीमा और आन्ध्र प्रांत में तेलुगु के बोलचाल के रूप अलग-अलग दिखायी देते हैं. तेलुगु समाचार देखने पर पता चलता है कि इसमें पिछले 40-50 बरसों में कितना परिवर्तन आया है. तेलुगु में अंग्रेजी और आम हिन्दी के बोलचाल के शब्द धड़ल्ले से इस्तेमाल किये जा रहे हैं. शायद सौ साल बाद तेलुगु का रूप क्या होगा कोई कह नहीं सकता. जिस वर्तमान में जो पीढ़ी होगी, वह जैसी और जो भाषाएं बोलेंगी उन्हीं में कामकाज भी होगा. अंग्रेजी का उदाहरण लें तो जैसी अंग्रेजी दो-तीन सौ बरस पहले बोली जाती थी, क्या आज बोली जाती है. हिन्दी में ही न जाने कितने अंग्रेजी शब्द समाहित हो चुके हैं. जब हमारे खान-पान, रहन-सहन, पहनावे आदि में इतने बदलाव आ चुके हैं तो भाषा में तो आना स्वाभाविक ही हैं. ये सभी परिवर्तन भाषा के बिना व्यक्त हो ही नहीं सकते. इन्हें भाषा में डालना और गढ़ना ही पड़ता है . भाषा एक डायनामिक टूल है जिस पर किसी एक व्यक्ित या समाज -विशेष का आधिपत्य नहीं हो सकता. जब कभी भी भाषाओं पर भाषाविदों के नियम-कानून लागू हुए वह चुपचाप दूसरे रास्ते समाज में नये रूपों में आती गयी. यह कोई सीधे वार या प्रतिकार नहीं करती. यह अपने-आपको काल और परिस्थिति के अनुसार व्यवस्थित कर लेती है. यही इसका सबसे बड़ा अनुशासन और गुणधर्म है.
संस्कृत अगर शास्त्रीय रूप में देखना चाहें तो बुद्ध और अशोक से पहले जाना होगा. जैसे ही ये एक विशेष अनुशासन में बांध दी गयी नये रूप में चलायमान हो गई.
अत: काल, परिस्थिति और जरूरत के मुताबिक ही किसी भी वस्तु या विषय का चयन अथवा उस पर सवाल किया जाना चाहिए तभी वह समचीनी लगता है अन्यथा केवल चुटकी लेने के अलावा कुछ नहीं जैसे कि इस राजभाषा के संदर्भ में .
होमनिधि शर्मा.
राजभाषा हिन्दी बनाम संस्कृत
ReplyDeleteहमलोगों को अक्सर इस प्रश्न से दो-चार होना पड़ता है. आपने बहुत ही तार्किक रूप से इस प्रश्न का उत्तर रखा है, हम राजभाषा कर्मियों के लिए आपके ये विचार बहुत ही अहम हैं. इस तरह के प्रश्नों को सही रूप से और तर्क के साथ रखने से पुनः वे दोबारा हठ करने के पहले दस बार सोचेंगे.
मैं आपके इन विचारों से पूरी तरह से सहमत हूँ. आशा है भविष्य में आपकी लेखनी से इसी प्रकार जीवंत लेख इस गपशप पर पढ़ने का सुअवसर मिलता रहेगा.
आपका हितैषी
अरुण कुमार मंडल