Saturday, February 13, 2010

'ब्लेसिंग' लघुकथा , समीक्षा और टिप्‍पणी


ब्लेसिंग 

-- मनोज कुमार

में आई कम-इन सर?
यस कम इन।
गुड मार्निंग सर।
मार्निंग
कैन आई सिट सर?
ओह यस-यस प्लीज ।..................अरे तुम ? अगर तुम अपने ट्रांसफर की बात करने आए हो, तो सॉरी, तुम जा सकते हो।
नहीं सर मैं तो...आपके...........।
देखो तुम जब से इस नौकरी में हो, यहीं, इसी मुख्यालय में ही काम करते रहे हो। तुम्हारे कैरियर के भले के लिए तुम्हें अन्य कार्यालय में भी काम करना चाहिए। और गोविन्दपुर में जो हमारा नया ऑफिस खुला है , उसके लिए हमें एक अनुभवी स्टाफ की आवश्यकता थी। हमें तुमसे बेहतर कोई नहीं लगा।
सर मैं तो इस विषय पर बात ही नहीं करने आया। मैं तो उसी दिन समझ गया था जिस दिन ट्रांसफर ऑर्डर निकला था कि आपने जो भी किया है मेरी भलाई के लिए ही किया है। मैं तो कुछ और ही बात करने आया हूँ।
ओ.के. देन ... बोलो...............।
सर वो,.............थोड़ा लाल बत्ती जला देते । कोई बीच में न आ जाए।
देखो तुम घूम-फिर कर कहीं ट्रांसफर वाली बात तो नहीं करोगे।
नहीं सर। बिल्कुल नहीं। कुछ पर्सनल है सर।
क्या?
सर मेरे पिता जी काफी बूढ़े हो गए हैं। उनकी इच्छा थी कि मैं एक गाड़ी खरीदूँ और उन्हें उस गाड़ी में इस पूरे महानगर में घुमाऊँ।
तो इसमें मैं तुम्हारी क्या मदद कर सकता हूँ ?
सर ! बस आपकी ब्लेसिंग चाहिए। आप तो इसी महीने के अन्त में सेवानिवृत होकर चले जाएंगे। सुना है आपके पास एक गाड़ी है।
हां है तो। वो 80 मॉडल गाड़ी हमेशा गराज में पड़ी रहती है।
सर उसे .....आप ............।
अरे बेवकूफ वो तुम्हारे किस काम आएगी। पिछले चार सालों में उसकी झाड़-पोछ भी नहीं की गई है। उसे तो कोई पांच हजार में भी नहीं खरीदेगा। उससे ज़्यादा तो उसे मुझे अपने होमटाउन ले जाने का भाड़ा लग जाएगा। मैं तो उसे यहीं छोड़................।
सर मैं खरीदूंगा सर। आप बीस हजार में उसे मुझे बेच दीजिए।
पर...................लेकिन .......गराज..........नहीं ...नहीं।
सर। प्जीज सर। नई गाड़ी तो मेरी औकात के बाहर है। कम से कम इससे मैं अपने माता-पिता का सपना उनके प्राण-पेखरू उड़ने के पहले पूरा तो कर लूंगा।
यू आर टू सेंटिमेंटल टूवार्डस योर पैरेंट्स। आई शुड रिस्पेक्ट इट। ओ.के. ... डन। आज से, नहीं-नहीं अभी से गाड़ी तुम्हारी।
थैंक्यू सर।... पर एक प्रॉब्लम है सर।
क्या?
आपकों तो मालूम है कि मैं गाड़ी चलाना ठीक से नहीं जानता। नया-नया सीखा हूं। अब मेरे घर, माधोपुर से तो इस ऑफिस तक का रास्ता बड़ा ठीक-ठाक है, भीड़-भाड़ भी नहीं रहती, किसी तरह आ जाऊंगा। पर सर आप तो जानते ही हैं कि गोविन्दपुर का रास्ता....................... वहां तो शायद मैं इस कार को नहीं ले जा पाऊँगा।
दैट्स ट्रू। ब्लडी दैट एरिया इज भेरी बैड। पूरा रास्ता टूटा-फूटा है। उस पर से भीड़ भाड़, .... यू हैव ए प्वाईंट।...............मिस जुली.......जरा इस्टेब्लिशमेंट के बड़ा बाबू को ट्रांसफर ऑर्डर वाली फाईल के साथ बुलाइए।
थैंक्यू सर। गुड डे सर।
*** **** **** **** **
परशुराम राय जी मूलत: अध्‍यापक का स्‍वभाव रखते हैं और गाहे-बगाहे उन्‍हें यह कार्य करते हुए भी देखा है. आयु और अनुभव के मामले में भी वे मनोज जी और हमसे बड़े और अनुभवी हैं. चर्चा और बातचीत करते हुए किसी भी विषय के हमेशा मूल में जाना और वहॉं से आगे बढ़ना उनका एक स्‍वाभाविक गुण है. इसी कारण वे एक सुलझे हुए होमियोपैथ चिकित्‍सक भी हैं जो उन्‍होंने अपने स्‍वाध्‍याय से सीखकर आर्डिनेन्‍स फैक्‍ट्री, मेदक, आन्‍ध्र-प्रदेश में लगभग 20 वर्षों तक मुफ्त चिकित्‍सा सेवा की. सामान्‍यत: हम किसी डॉक्‍टर, वकील आदि पेशेवर व्‍यक्‍ितयों के पास जाते हैं तो पहले यह पता कर लेते हैं कि क्‍या वह अपने काम आयेगा अथवा नहीं. लघुकथा पर की गयी टिप्‍पणी पर भी अपनी बात करने से पहले मुझे यह आवश्‍यक लगा कि समीक्षक को थोड़ा जान-पहचान लें तो उनके द्वारा की गई समीक्षा की मौलिकता, मान्‍यता और प्रामाणिकता का महत्‍व ज्‍यादा सहजता से स्‍वीकार्य और ग्राह्य हो पायेगा.
मैंने मूल कथा और समीक्षा दोनों ही पढ़ीं. मेरे विचार से किसी भी रचना की अच्‍छी समीक्षा वही हो सकती है जिसमें पाठक और समीक्षक को लगभग एक समान प्रतीती होती है. ऐसा ही कुछ राय साहब की समीक्षा पढ़कर लगा. बिल्‍कुल एक चिकित्‍सक की भॉंती या डाक्‍टरी ज़बान में कहूँ तो बड़ी क्‍लिनिकल एनालिसिस इस लघुकथा की राय साहब ने की है. इस टिप्‍पणी के माध्‍यम से मनोज कुमार जी को एक कथाकार के रूप में और राय साहब को एक समीक्षक के रूप में उभर कर आने के लिए बधाई प्रेषित करता हूँ. आए दिन कुछ-न-कुछ पढ़ना होता ही रहता है लेकिन जो ईमानदार प्रयास गंभीरतापूर्वक इस माध्‍यम से किया जा रहा है वह तहेदिल से बधाई का हक़दार है.
जहॉं तक लघुकथा को परिभाषित करने का प्रश्‍न है यह 'लघुकथा' नामकरण से ही जाहीर हो जाता है जैसे फिल्‍म और लघुफिल्‍म. याने कथा मगर छोटी. सामान्‍यत: कथा नाम से रामायण जैसी लंबी कथा का आभास होता है. अत: कहानी के अंग धारण कर संक्षेप में कथा कहना लघुकथा कहा जा सकता है.

मेरी दृष्‍िट में कहानी शब्‍द 'कहना' से बना है जबकि कथ से कथित और कथन तथा कथा. अत: दोनों की आब्‍जेक्‍टिविटी में अंतर ज्ञात पड़ता है. कथन में कोई पहले से कही हुई बात कथा के ज़रिये संदेश के रूप में साबित होती हुई नज़र आती है तो कहानी में घटनाएं विषयानुसार या कथानक अनुसार एक क्रमागत रूप में कही जाती हैं, और इनके बहाने कोई सीख सामने आती है. समीक्षित लघुकथा में भी 'ब्‍लेसिंग' शीर्षक से ही बिना पूरी कथा पढ़े यह बात समझ में आ जाती है कि कहानी का अंत इसी के असर को साबित करेगा कि 'ब्‍लेसिंग' ही इस कथा के मूल केन्‍द्र में है जो अंत में सिद्ध होता है.

कुल मिलाकर मेरी ऐसी प्रतीती है.

पुन: एक बार इस ब्‍लाग के प्रत्‍येक सदस्‍य को बधाई और शुभकामनाएं.


होमनिधि शर्मा

4 comments:

  1. आपके पत्र (ई-मेल} का अब क्या जवाब दूँ? इस तरह के प्यार की तो मैंने कल्पना भी नहीं की थी। प्रोत्साहन के लिए आभारी हूँ...

    ReplyDelete
  2. कली बेंच देगें चमन बेंच देगें,
    धरा बेंच देगें गगन बेंच देगें,
    कलम के पुजारी अगर सो गये तो
    ये धन के पुजारी
    वतन बेंच देगें।



    हिंदी चिट्ठाकारी की सरस और रहस्यमई दुनिया में प्रोफेशन से मिशन की ओर बढ़ता "जनोक्ति परिवार "आपके इस सुन्दर चिट्ठे का स्वागत करता है . . चिट्ठे की सार्थकता को बनाये रखें . नीचे लिंक दिए गये हैं . http://www.janokti.com/ ,

    ReplyDelete