Thursday, October 25, 2012

'कल्‍पना' के बाद हैदराबाद से 'भास्‍वर भारत'

कुछ महीनों पहले डॉ राधेश्‍याम शुक्‍ल जी का फोन आया और बताया कि एक राष्‍ट्रीय स्‍तर की पत्रिका हैदराबाद से निकालने की योजना है और इस कार्य में सहयोग की अपेक्षा है. शुक्‍ल जी की योजना थी अत: बेखटके सहयोग का वायदा हो गया. पत्रिका के बारे में ज्‍यादा जानकारी तो नहीं मिल पायी संभवत: आरंभिक चरण में कार्य था उस समय. कुछ समय बाद जब पुन: फोन पर बात हुई तो योजना कार्य रूप ले चुकी थी. गुरूमित्र डॉ एम वेंकटेश्‍वर जी ने भी इसकी विस्‍तार से जानकारी दी और इससे जुड़ने का न्‍यौता दिया. अब वायदा दुगना हो गया था.

देखते-ही-देखते 21 अक्‍तूबर आ गया और मैं सपरिवार पत्रिका के विमोचन कार्यक्रम में भाग लेने पहुँच गया. सबसे पहले जो बात मेरे और परिजनों के दिमाग में आयी थी कि पत्रिका के नाम में भास्‍वर क्‍यों? इसके बिना भी पत्रिका का नाम पूरा लगता है. फिर अर्थ जानने लगे तो हमारे सहयोगियों ने भी इसकी पड़ताल की. मेरे बड़े भाई बृहस्‍पति जी ने भी यही कहा कि भास्‍वर क्‍यों? नाम ऐसा हो जो तुरंत ही दिल-ओ-दिमाग पर बन जाए. श्रीरामसिंह शेखावत और हमने अर्थ की दृष्‍टि से इसके महत्‍व को समझने का प्रयास किया तो लगा कि 'शाइनिंग इंडिया' इसका अर्थ है. मुझे तो इसमें प्राचीन भारत की तेजस्‍वीता का भाव रखे जाने की बात ज्‍यादा सही लगी. संभवत: परम्‍परागत रूप से 'भास्‍वर' शब्‍द का प्रयोग किया गया है. शुक्‍ल जी का संपादकीय भी इसी ओर इंगित करता है.

खैर, 19 अक्‍तूबर को वेंकटेश्‍वर जी ने समझाते हुए स्‍पष्‍ट कर दिया कि यह शाइनिंग के ही अर्थ में है. हैदराबाद से 'कल्‍पना' (अपने समय की स्‍तरीय साहित्‍यिक राष्‍ट्रीय पत्रिका) के बंद होने के बाद से किसी राष्‍ट्रीय स्‍तर का प्रकाशन लंबे समय से ड्यू था. इस सूखे को दूर करने के लिए शुक्‍ल जी को श्रेय जाता है कि एक रिस्‍की सही पर साहसिक कदम उठाकर उन्‍होंने स्‍तरीय पत्रिका का प्रकाशन आरंभ किया है. 

क्रिकेट या किसी भी खेल में खासकर कहा जाता है कि ओपनिंग अच्‍छी होनी चाहिए. पत्रिका का पहला अंक हाथ में आने के बाद छपाई देख पढ़ने का मन बना और मंच के शुभकामना संदेशों के क्रम को छोड़ बाहर निकल पड़ा कि काम खत्‍म कर इसे पहले पढ़ा जाय. 

कल से आज तक प्रकाशित पत्रिका के सभी स्‍तंभ पढ़ डाले. वैसे पत्रिका और किताब के फर्क को शब्‍द नहीं दे पाने की बेचैनी भी थी. यह भी वेंकटेश्‍वर जी ने 19 को डीनर पर बात करते-करते दूर कर दी और कहा कि पत्रिका को 'लिटरेचर इन हरी' भी कहा जाता है तो जैसे बहुत दिनों की बेचैनी शांत हो गयी. अक्‍सर डीनर पर लंबी बातचीत के दौरान वे कई बातें बताते और समझाते हैं. मैं उनके साथ डीनर को हमेशा 'ए डीनर विथ मास्‍टर' कहता हूँ. खुले दिल से गप लड़ाना और बातों - बातों में अन्‍जान और जटिल बातें समझाना हमारे मिलने का सार रहा है. 

पत्रिका की छपाई उत्‍तम दर्जे की है. अच्‍छे जी एस एम का कागज और फोर कलर प्रिंटिंग इसे आकर्षक बनाती है. यदि नाम से जोड़कर कंटेंट पर ध्‍यान दिया जाय तो एक पत्रिका में जैसे सामान्‍यत: स्‍तंभ होते हैं वे सभी स्‍तंभ इसमें भी हैं. करेंट इश्‍यूस से लेकर भाषा-संस्‍कृति विषयक सभी बातें शामिल हैं. जहॉं तक कंटेंट की बात है अरविंद केजरीवाल, कुडनकुलम या तेलंगाना विषयक जानकारी केवल सूचनाप्रद है जो पहले से ही समाचारों में आ चुकी है. इसमें इन्‍वेस्‍टीगेटिव जर्नलिज्‍़म की कमी दिखाई दी. यदि ऐसा हो पाता तो इन विषयों पर क्‍या खास और अलग है, इस पत्रिका के माध्‍यम से दिखाई पड़ता.  

शुक्‍ल जी का संपादन नि:संकोच सराहनीय है. वार्ता छोड़ देने के बाद से लगातार उन्‍हें पढ़ते रहने का जो क्रम टूट गया था वह एक साथ चार विषयों पर ( दो सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों पर तो एक-एक साहित्‍यिक-सांस्‍कृतिक और ऐतिहासिक दृष्‍टि से) लिखे लेख पढ़कर काफी हद तक दूर हो गया. 'महारास' और 'हेमू' पर लिखे दोनों लेख शुक्‍ल जी के साहित्‍यिक-ऐतिहासिक और दार्शनिक दृष्‍टि व कलमकारी के अनूठे नज़ीर हैं. आरंभ से ही उनके इन सामाजिक, सांस्‍कृतिक, राजनैतिक और दार्शनिक दृष्‍टि से लिखे गये लेखों का मैं कायल रहा हूँ और पढ़ते ही तुरंत फोन पर बात कर चर्चा-परिचर्चाएं भी होती रही हैं. विशेषकर उनकी 'बोलती शैली और स्‍पष्‍ट विचारक्रम व प्रवाह' बांधे रखता है सो ऐसा ही आज भी महसूस हुआ. लगा कि लिखकर बात की जाए.  

शुक्‍ल जी की इस आद्योपांत उपस्‍थिति के पीछे पत्रिका के आरंभ की दृष्‍टि से एक और बात भी लगी कि संपादक होने के नाते कैप्‍टन और ओपनिंग खिलाड़ी की भूमिका निभाने का एक गहरा अहसास शुक्‍ल जी के साथ चल रहा था. ताकि, पत्रिका एक अच्‍छा स्‍कोर खड़ा कर सकें. डॉ भरत झुनझुनवाला, मुजफ्फर हुसैन, गुरमीत बेदी, गु.नीरजा और एस राधाकृष्‍णा आदि समाचारात्‍मक और सूचनापरक लेख से अंक को सहारा देते नज़र आये. 

एक और बात भी लगी कि एक ही अंक में एक ही विषय पर एक साथ एक के बाद एक चिंता प्रकट करते और सराहना करते दो लेख प्रकाशित हैं 'विश्‍व हिन्‍दी सम्‍मेलन पर'. लेखक हैं प्रो. ऋषभदेव शर्मा (हिन्‍दी के नाम पर हो रहा तमाशा) और प्रो. गोपेश्‍वर सिंह (..... और संपन्‍न हो गया विश्‍व हिन्‍दी सम्‍मेलन). वैचारिक स्‍वतंत्रता की दृष्‍टि से ठीक हो सकता है पर पत्रिका के नज़रिये से यह नवीनता ही ज्‍यादा लगी. 

नीरजा जी का लेख लगा जैसे एडजस्‍ट या फिल्‍लर किया गया हो पहले अंक में, वह भी आरंभ से चौथे नंबर पर. इसमें भी मूल कंटेंट कम और पत्रकारिता की दृष्‍टि से 'व्‍हाइट' के माध्‍यम से उद्धृत विचार ज्‍यादा प्रकाशित किये गये हैं लेख को खड़ा करने के लिये. नवलेखक प्रोत्‍साहन आवश्‍यक है पर खेल की दृष्‍टि से कहूँ तो मीडिल आर्डर भी मैच विनर से कम नहीं होना चाहिए.  

ऐसी ही बात राकेश श्रीवास्‍तव जी के विराट कोहली पर लिखे लेख को पढ़कर भी लगी. विराट कोहली के खेल के ऑंकड़ों सहित सारी बातें ज्‍यादा विस्‍तार से समाचारों में आ चुकी हैं. कोई विशेष पहलू इसमें भी दिखायी नहीं पड़ा.

विविध में 'श्रद्धांजलि' के तहत शहर के तीन जाने-माने व्‍यक्‍तियों का योगदान सहित विवरणात्‍मक समाचार प्रकाशित कर इन्‍हें याद किया जाना दिल को छूने वाली बात रही. इस बहाने देश-विदेश में इनके कार्यों से अन्‍यों को जानकारी और प्रेरणा प्राप्‍त होगी. 

इस अंक की एक उपलब्‍धि के रूप में श्री विजयदत्‍त श्रीधर द्वारा माधवराव सप्रे स्‍मृति समाचार-पत्र संग्रहालय पर दी गयी रोचक जानकारी है. इसकी जानकारी मुझे इससे पहले नहीं थी. हो सकता है बहुत पाठकों को भी नहीं हो. अत: यह निश्‍चित ही सभी के लिए पठनीय व संग्रहणीय है. 

अंत में सभी लेखक और योगदानकर्ताओं का संपर्क विवरण देना बहुत ही सही और जरूरी लगा. इस सोच के लिए बधाई!  

पुन: एक बार साहसिक कदम के लिए बहुत-बहुत बधाई व साधुवाद!  पत्रिका के आगामी अंको की इस बात के साथ शभकामनाएं कि समाचार पत्र को पत्रिका में तब्‍दिल करना कितना कठिन है और विशेषकर आज के क्षण-क्षण बदलते माहोल में, यह पूरी टीम की मेहनत देख अहसास होता है. 

सफलता की कामनाओं सहित,

होमनिधि शर्मा




3 comments:

  1. 26 अक्टूबर 2012 [शुक्रवार] को इस पत्रिका पर केंद्रित एक व्याख्यान ''भारतीय अस्मिता और भास्वर भारत'' का भी आयोजन किया गया आंध्र प्रदेश हिंदी अकादमी द्वारा.
    वहाँ आपकी अनुपस्थिति खली.
    अस्तु..

    आश्वस्त हुआ जा सकता है कि संपादक मंडल इन तमाम बातों पर ध्यान अवश्य देगा.

    आशा है, सानंद होंगे.

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    1. महोदय,
      धन्‍यवाद् आपके उत्‍तर के लिए. अकादमी में आयोजित कार्यक्रम की कोई सूचना नहीं थी. अन्‍यथा आने का प्रयास अवश्‍य करता. आगे कोई कार्यक्रम हो तो कृपया सूचित करें.

      होमनिधि शर्मा

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  2. स्वतन्त्र वार्ता के तथाकथित धर्मनिरपेक्षता के पथ पर चल पड़ने के बाद शुक्ल जी (एवं उनके साथ ही मुज़फ्फर हुसैन जी आदि) का अपने लिए नया मार्ग खोजना स्वाभाविक ही था. उन्हें हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं. मैं इस पत्रिका से सक्रिय रूप से जुड़ना पसंद करूंगा. आप कृपया इस बाबत मार्गदर्शन दें.

    जितेन्द्र माथुर

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