Wednesday, January 22, 2014

हीरक दीवस और हुरडे की दावत (दूसरा भाग)


दूसरे दिन सभी लोग छ: बजे के आस-पास ही उठ गये. मन में सवाल आया कि इतने लोग और हाजत हुई तो नंबर कब आयेगा. खैर, जैसे-तैसे सब कामों से निपटकर हम तैयार होने लगे. इस बीच चाय आयी और अशोक और उनके ससुर जी ने उत्‍तर और दक्षिण के शर्मा व सर्मा की बात छेड़ दी. कल रात में कारगील युद्ध रचने पर जे एन दीक्षित द्वारा लिखी किताबों में आये ब्‍योरे पर लंबी चर्चा हो चुकी थी. चर्चा से मुत्‍तासीर अशोक ने आदि देव-पुरूष, ऋषि-मुनि, वर्ण, जाति व समाज की संरचना के बारे में चर्चा की. चर्चा के बाद अशोक के ससुर जी से भी बात हुई. वे पेशे से मेकानिकल इंजीनियर रहे और सात साल पहले रिटायर होने तक किरलोस्‍कर पम्‍पस के लिए काम किया. वे अपने काम की थोड़ी-बहुत जानकारी पिछली रात ही दे चुके थे जिसका कुछ और विस्‍तार आज कर दिया. उनकी विशेषज्ञता पम्‍प्स की क्रिटीकल टेक्नॉलॉजी विकसित करने की रही जो परमाणु बिजली उत्‍पादन, इसरो के उपग्रह संबंधी परीक्षणों व अन्‍य बिजली उत्‍पादित करने वाले भारी सयंत्रों से जुड़ी है. उन्‍होंने खास तौर पर बताया कि किस तरह देश में पहली बार सोडियम को द्रव्‍य रूप में रखने वाले परमाणु बिजली फास्‍ट ब्रिडर के लिए 42 करोड़ की लागत से तीन पंप तैयार किये गये. उनकी बातें सुनकर उनके प्रति गौरव और बढ़ गया. वे भी कर्मशील, कुछ कर-गुजरने की भावना रखनेवाले व्‍यक्‍ति लगे. अब भी कई देशी-विदेशी कंपनियों में एडवाइज़र के रूप में वे कार्यरत हैं. मन कह रहा था कि नहीं आते तो कितना-कुछ मिस हो जाता. इतने लोगों से मिलना, इतनी जानकारियॉं !

बीच-बीच में अंदर से तैयार होने के आदेश सुनायी देने लगे और हम तैयार हो गये. तैयार होकर नीचे गये तो पोहे और शीरे का गरम नाश्‍ता तैयार था. पोहे खाकर दस बजे तक सभी बस में बैठ गये खेत पर जाने के लिए.

बस में बच्‍चा-पार्टी ने अंत्‍याक्षरी खेलना शुरू कर दिया. 10 से 14 साल उम्र के बच्‍चों को 50, 60 और सत्‍तर के दशक के हिट गीत सही बोलों के साथ गाते सुन मैं तो हैरान रह गया. आज के दौर में बड़ों को भी जो गीत याद न हो ऐसे शानदार गीतों से सजी अंत्‍याक्षरी बच्‍चे खेल रहे थे. नये गानों के अलावा लता, रफी, गीतादत्‍त, आशा, किशोर, मन्‍नाडे द्वारा गाये गीत इनसे सुन बहुत आनंद आ रहा था. कल रात के गीत और नृत्‍य के बाद आज की अंत्‍याक्षरी देख एक बात तो लगी कि महाराष्‍ट्र में अब भी बचपन, संगीत, नाटक, कला-संस्‍कृति, पढ़ने-पढ़ाने की आदत, किस्‍सागोई सब जिंदा है. पढ़ाई के अलावा यहॉं के बच्‍चे किसी न किसी क्षेत्र में अपने शौक को मॉंजते हैं और उसे परवान चढ़ाते हैं. इसी बीच खेत आ चुका था और यहॉं दुम हिलाकर खुशी इजहार करता खेत का लाड़ला कुत्‍ता व दो बैल स्‍वागत कर रहे थे.

बस से उतरकर हम खेत देखने गये. एक तरफ गन्‍ना, चना तो पीछे हरे-भरे केले और जवारी की खेती देख दिल बाग-बाग हो गया. पूरी तरह से बायो खेती. खेत देखते-देखते सबने हाथ में हरी-बूट लेकर ताजे चनों से पेट वजनदार किया. वापस आने तक खेत के रखवालों ने हुरडा खिलाने का इंतजाम कर दिया था.

सभी लोग तीन-चार समूह में हुरडा खाने बैठ गये. अजीत जी, उनके बहनोई, दोस्‍त और चचेरे भाई ने सबको कौला भुना जवारी का हुरडा खिलाना शुरू किया. हुरडे के साथ भुनी और छिली नमकीन फल्‍ली, फल्‍ली की लालमीर्च से बनी सूखी चटनी और गुड़ परोसा गया ताकि हुरड़े के साथ ये सब मुँह लगाया जा सके. चटनी देख रहा नहीं गया तो थोड़ी सी चख ली. मुँह में रखते ही ऑंखों में पानी भर आया. बस हाथ झटकना और चिल्‍लाना बाकी था, इतनी तेज़ थी फल्‍ली की सूखी चटनी. बच्‍चों का खाना होने के बाद हम पॉंच-छह लोग हुरडे के करीब बैठ गये और गरम-गरम भुना और हाथ से घिस साफ किया हुरडा दिया जाने लगा. क्‍या गज़ब का स्‍वाद कह नहीं सकता. एक दम मुलायम, मीठे हुरडे के हरे मोतीयों से दाने. बीच-बीच में चटनी, भुनी फल्‍ली और भुनी प्‍याज स्‍वाद को और चटखदार बना रहे थे. पेट घट होने तक हुरडा खाना हुआ और रसीली बातों का सिलसिला अनवरत चलता रहा. हँसना, खाना और बोलना लगातार. इसे खाकर पानी नहीं पीया जाता इसलिए अदरक घसकर, नमक और जीरे पाउडर के साथ मिलायी गयी गाय के असली दूध से बने दही की छॉंछ परोसी गयी. तीन 20-20 लीटर की क्‍यान में छॉंछ थी. पहली ही बार में एक क्‍यान खत्‍म हो गयी. जो भी मुँह से गिलास लगाता तुरंत फिर भरने के लिए आगे कर देता. सभी ने छक कर छॉंछ पी. इतना खाकर दिमाग सुंद और ऑंखे मुँद रही थीं. सब इधर-उधर पसरने की जगह ढूँढ रहे थे. अधिकतर मर्द एक-एक कर पसर गये. मैं भी लगभग आधा घण्‍टा झाडों के साये में बहती बयार के बीच लेट लिया. लगा कि ज़मीन की गोद में खाकर लेटने पर ऐसा आराम मिलता है तो यहॉं खेत जोतकर कैसी नींद आती होगी. निश्‍चित ही अंबानी से ज्‍यादा सुकून की नींद किसान सोता होगा.  

अजीत जी ने तीन बजे खाने का समय बता दिया था पर किसी के पेट में इतनी जगह थी नहीं की और खाना खा सके. सबने पेट हल्‍के करने के तरीके तलाश लिये. मैं भी अशोक के ससुर जी के साथ खेत से दूर एक-दो किलोमीटर निकल लिया. रास्‍ते में अशोक के ससुर जी ने और भी बारिकी से अपने कामकाज के खास अनुभव सुनाये. इस बीच हेमन्‍त जी भी हमारे साथ जुड़ गये. लगभग घण्‍टा भर गुजारकर हम वापस खेत पर लौट आये तो खाना तैयार था. जवारी की कड़क व नरम रोटी, बैंगन की रसेदार सब्‍जी, बगारे चॉंवल और गेहूँ की गुड़ से बनी खीर. भूख तो नहीं थी पर खाना देख रोक नहीं पाया और खीर छोड़ बाकी मेनू चट कर गये. खाना धूम थ्री था. सबने खाने का दनका दिया और टुन्‍न हो गये. फिर छॉंछ की बारी थी. एक आखिरी बची क्‍यान भी एक-एक कर सबने खाली कर दी. मजा आ गया ! हालत ऐसी कि पेट भारी होने से मुँह से बात आना मुश्‍किल. फिर लेट लिये और इधर-उधर कर अजगर की तरह खाना पेट में बिठाने लगे. ऐसा भी लगा कि कहीं इतने खाने के बाद आ जाए तो ! गए समझो. राम-राखे कुछ नहीं हुआ. सबका खाना होने तक बस वापस आ गयी थी. इसी बीच निकलते समय हेमन्‍त जी ने अपने नये फोन से चन्‍द उनके और मेरे यादगार फोटो लिये जो अभी आने हैं. भीतर हाथ धोने गए तो अजीत जी गाय का दूध निचोड़ रहे थे. एक देगची में पौन भरते ही उन्‍होंने हेमन्‍त जी से पीने के लिए कहा. हेमन्‍त जी मान भी गये और स्‍वाद चखा. उन्‍हें देख मैं भी चखने से रोक नहीं पाया. पहली बार ऐसे कच्‍चा ताजा गाय का दूध पीने का मौका मिला. यदि हुरडा मीठा तो दूध उससे भी मीठा और मस्‍त. पेट में जगह नहीं थी वरन् देगची खाली हो जाती.

सब बस में बैठ गये और टाटा-बाय-बाय करते निकल पड़े. मैं तो अजीत और अलका व उनकी मॉं को लख-लख दुआऍं दे रहा था कि क्‍या लोग हैं जो इतने लोगों को खुद मेहनत कर सुख और आनंद दे रहे हैं. भगवान इन्‍हें अच्‍छा रखे.

बस में बैठते ही बच्‍चा पार्टी ने फिर अंत्‍याक्षरी शुरू कर दी. इस बार तो दो दल बन गये. हमारा एक दल तो बच्‍चों का एक. गानों से सब बच्‍चे हो गये थे. हर तरह के गाने गाये और घर आने तक यह मौज-मस्‍ती चलती रही. सबकी ऑंखों में खुशी और चेहरों पर उल्‍लास दमक रहा था. ऐसा लगा बहुत जल्‍द यह पिकनिक खत्‍म हो गयी.

हम बस से उतरे तो सामने टोयोटा की लिवा कार खड़ी थी. हमारे मौसा ससुर ने नासिक से फोन पर बताया कि शर्मा जी हमने दूसरी नयी गाड़ी खरीदी है, देखकर बताना कैसी है. हमें संयोग से मॉं तुलजाभवानी के दर्शन करने उस्‍मानाबाद जिले जाना था. हम तीनों और सुचित्रा (मौसेरी साली) को लेकर विकी के साथ तुलजापुर निकल पड़े. लगभग 45 किलोमीटर की दूरी पर यह मंदिर स्‍थित है. सुबह ही दर्शन करने की इच्‍छा थी पर समय की कमी के चलते शाम में जाना पड़ा. साढ़े सात बजे वहॉं पहुँचकर विशेष दर्शन की लाइन में लगे तो आधे घण्‍टे में मॉं के एकदम नज़दीक से दर्शन कर बाहर लौट आये. यहीं पर मंदिर की दीवार से सटा चिंतामणि पत्‍थर है जहॉं मनोकामना कर हाथ रखने पर यह अपने-आप दाहिनी ओर घूम जाता है. याने कामना पूरी होगी. यदि बॉंए घूमे तो पूरी नहीं होगी. और, यदि यह स्‍थिर रहे तो काम में देरी के योग का पता चलता है. कहते हैं कि शिवाजी महाराज यहीं आकर अपनी कामनाओं के पूरा होने का पता लगाते थे. हमने भी इसका लाभ उठाया.

इस तरह दर्शन कर हम सब रात 9.30 बजे तक लौट आये और बिना कुछ पेट को ओर तकलीफ दिये कुछ ही देर में एक-एककर बात करते-करते लंबे होते गये. हेमन्‍त जी भी बस से हैदराबाद के लिये रवाना हो चले थे और हमें सुबह निकलना था.

सभी सुबह उठे और तुरत-फुरत तैयार होकर 8.30 बजे तक निकल पड़े. अशोक को हमारे बाद जाना था और उनके ससुर जी अलसुबह ही पूना के लिए चल पड़े थे. विदाई दुखभरी होती है. इतने लोगों के बीच इतने प्‍यार से कटे समय की गठरी और यादों की पोटली लेकर सामान के वजन के साथ हम भी हैदराबाद लौट आये. वापसी में सभी गेट के बाहर छोड़ने आये तो उनके और हमारी ऑंखों में दूर जाने का ग़म फिर मिलने की उम्‍मीद के साथ दिखायी दे रहा था. यही तो करीब रिश्‍तों के दूर रहने पर होता भी है. बस! तो अगली बार तक के लिए अलविदा.  (समाप्‍त).


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