Friday, October 26, 2012




ओ माइ गॉड के बहाने

भारत में कम से कम वैदिक काल से ईश्‍वर के होने-न होने को लेकर अध्यात्म के विद्वानों में बहस चली आ रही है. भिन्‍न-भिन्‍न अखाड़ों ने ईश्‍वर के नाम पर समाज को अपने-अपने अंगूठे के नीचे रखने का प्रयास सदैव किया है. ये अखाड़े भी देसी लोकतंत्र की तर्ज़ पर अनुयायियों के संख्या-बल में ही विश्वास करते आए हैंइसलिए, जैसे सारी दुनिया विभिन्न विज्ञानों पर आज शोध में व्यस्त है, उस समय हमारे शास्त्री मनुष्य, प्रकृति और किसी सम्भावित ईश्वरीय सत्ता के सरोकारों पर गहन चर्चा में जुटे थे. इसीके चलते भारतवासी दर्शन के सिरमौर होने का तमग़ा लगाए घूमते रहे हैं. इस चर्चा के प्रवाह में हमें दर्शन और तर्कशास्त्र के बेहतरीन ग्रंथ और जीवन-मूल्‍य भी बेशक मिले हैं.  
  
दुनिया में सबसे ज्‍यादा जवानी भारत में है. जीवन-शैली से आधुनिक प्रतीत होने वाली भारतीय तरुणाई,  लगता है शास्‍त्रोक्‍त ज्ञान-मार्ग से दूर जा चुकी है, तर्कातीत भक्ति-मार्ग से नहीं. बड़े भारी वैज्ञानिक हों, सूचना प्रौद्योगिकी इंजीनियर हों या फिर न्यायाधीशघर से पूजा-पाठ करके ही काम-धाम पर रवाना होते हैं. यह कहना कठिन है कि भारत में ईश्वर में जन्मजात आस्था में कमी आई है. फिर ऐसा क्‍या हो गया कि लोगो में आस्तिकता इंजेक्‍ट की जा रही हैयह सही है कि बड़ी संख्या में मत-मतान्‍तरों के रहते सम्भ्रम होना लाज़मी है.

इस माह ओ माइ गॉड आयी और टी वी बहस में परेश रावल, मिथुन चक्रवर्ती, अक्षय कुमार को पंडित, मौलवी, पादरी से बहस करते देखा तो फिल्‍म देखने की उत्सुकता जाग गयी. पुस्तक पढ़े बिना और फिल्‍म देखे बिना बात नहीं करनी चाहिए,लेकिन धार्मिक प्रतिनिधि यही इस बिना पर कर रहे थे कि फ़िल्मकार लोगों को सारे धर्मों के खिलाफ भड़का-उकसा रहे हैं,सभी धर्मों का अपमान कर रहे हैं. अत: इसे नहीं दिखाया जाना चाहिए या आपत्तिजनक हिस्‍से काटकर दिखाना चाहिए.

ओशो ने एक प्रसंग में कहा है कि किसी खिड़की पर यह लिखकर तख्‍ती टांग दो कि यहॉं झॉंकना मना है तो लोग वहीं झॉंकने लगेंगे. मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ. ईश्वर के पैरोकारों के फिल्‍म पर तख्‍ती टांगते ही मैंने फिल्‍म देख डाली. देख डाली,यहॉं तक तो ठीक था. लेकिन, आज के माहोल में बिना किसी शोर-शराबे के फिल्‍म पॉचवें हफ्ते में प्रवेश करने जा रही है तो लगा कि इस फिल्‍म को देखकर जो भी महसूस हुआलिखना चाहिए.
मैं दो फिल्‍मों को पिछले दस सालों की बेहतरीन फिल्‍मों की श्रेणी में रखना चाहूँगा. एक लगे रहो मुन्‍नाभाई और दूसरी ओ माई गॉड. ये दोनों ही फिल्‍में ऐसे विषयों को लेकर बनी हैं, जिन पर सबसे ज्‍यादा बहस और रोटी सिंकाई की दुकानें खोली गई हैं. गॉंधी के नाम पर सफेद खद्दरधारियों के काले कारनामों की पोल-पट्टी रोज़ ही खुल रही है. ख़ैर, इधर ईश्वर, अल्‍लाह और गॉड के नाम पर धर्म के ठेकेदार पाँच सितारा दुकानें खोलकर बैठे हैं. इनके बीच धर्म के प्रचार-प्रसार की गलाकाट प्रतियोगिता मची है. इसीकी पोल खोलती फिल्‍म ओ माई गॉड है. इस तरह की फिल्‍म बनाये जाने की सख्‍त जरूरत थी. हम जानते हैं देश में सिनेमा कितना प्रभावशाली माध्‍यम रहा है. फिल्‍में हमारे समाज की ट्रेण्‍ड सेटर रही हैं. आज चारों ओर भयावह माहोल रच दिया गया है. हिन्‍दू, मुस्‍लिम और ईसाई जैसे आपस में एक-दूसरे से जबरदस्‍त खतरा महसूस कर रहे हों और समाज पर जैसे अपना-अपना वर्चस्व स्थापित करना चाहते हों. किलिंग इंस्‍टिंक्‍ट अब केवल खेल में ही नहीं धार्मिक खेमों में भी देखी और महसूस की जा सकती है. फलित ज्‍योतिष, जादू-मंतर, टोने-टोटके, सिद्धियां, लोगों को छूकर ध्‍यान-मग्‍न कर देना, परिक्रमाओं से वीज़ा हासिल करा देना, बाल मुण्‍डवाकर मन्‍नतें पूरी कर देना, सपनों में आकर रोगों का इलाज कर देना,भभूत लगाकर मनोकामनाएं पूरी कर देना, बहन जी बनकर लोगों को श्रेष्‍ठ बना देना जैसी तकनीकों से मासूम लोग त्रस्‍त् हो चुके हैं. ऐसे में यह फिल्‍म मनोरंजक ढंग से इन सभी मसलों की न केवल पड़ताल करती है, बल्‍कि धर्म के उद्योगपतियों और ठेकेदारों की पोल खोलकर रख देती है. अत: फिल्‍म के तकनीकी पहलुओं से अधिक फिल्‍म बनाने की भूमिका पर लिखना मुझे ज्‍यादा जरूरी लगा.

अक्षय कुमार और परेश रावल को फिल्‍म का हर एक दर्शक बधाई दे रहा है कि हँसी-हँसी में कई अनसुलझे प्रश्‍नों का अकाट्य उत्तर और पाखंड के नकाब पलटने वाली यह फिल्‍म इन्होंने बनायी है. अमेरिका में बनी इन्‍नोसेंस ऑफ मुस्‍लिम और पाकिस्‍तानी फिल्‍म खुदा के लिये’ इन दोनों बैन फिल्‍मों को इस संदर्भ में रखकर ग़ौर करें तो कहा जा सकता है कि ऐसी फिल्‍म अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता वाले धर्मनिरपेक्ष देश में ही बनायी जा सकती है तालिबानी मुल्क में नहीं.  हमारे यहाँ इस फिल्‍म का बनना और चलना दर्शाता है कि भारत में सोच-विचार, बल्कि पुनर्विचार और सही-गलत की समझ का ख़ात्मा नहीं हो गया है. समाज एक डायनामिक थ्‍योरी है, जिसमें सुधार और बेहतरी की गुंजाइश हमेशा रहती है. इस गुंजाइश को सामने लाने का साहस करने के लिए फिर एक बार बधाई अक्षय कुमार, परेश रावल, मिथुन चक्रवर्ती और उनकी पूरी टीम को. यह फिल्‍म नहीं होती तो शायद हम कानजी भाई और उस मूल नाटक के नाम को भी नहीं जान पाते, जिस पर यह फिल्‍म बनी है. इस फिल्‍म को देखकर ही इसका रसास्वादन किया जा सकता है. अत: यह फिल्‍म सपरिवार अवश्‍य देखनी चाहिए.


Thursday, October 25, 2012

'कल्‍पना' के बाद हैदराबाद से 'भास्‍वर भारत'

कुछ महीनों पहले डॉ राधेश्‍याम शुक्‍ल जी का फोन आया और बताया कि एक राष्‍ट्रीय स्‍तर की पत्रिका हैदराबाद से निकालने की योजना है और इस कार्य में सहयोग की अपेक्षा है. शुक्‍ल जी की योजना थी अत: बेखटके सहयोग का वायदा हो गया. पत्रिका के बारे में ज्‍यादा जानकारी तो नहीं मिल पायी संभवत: आरंभिक चरण में कार्य था उस समय. कुछ समय बाद जब पुन: फोन पर बात हुई तो योजना कार्य रूप ले चुकी थी. गुरूमित्र डॉ एम वेंकटेश्‍वर जी ने भी इसकी विस्‍तार से जानकारी दी और इससे जुड़ने का न्‍यौता दिया. अब वायदा दुगना हो गया था.

देखते-ही-देखते 21 अक्‍तूबर आ गया और मैं सपरिवार पत्रिका के विमोचन कार्यक्रम में भाग लेने पहुँच गया. सबसे पहले जो बात मेरे और परिजनों के दिमाग में आयी थी कि पत्रिका के नाम में भास्‍वर क्‍यों? इसके बिना भी पत्रिका का नाम पूरा लगता है. फिर अर्थ जानने लगे तो हमारे सहयोगियों ने भी इसकी पड़ताल की. मेरे बड़े भाई बृहस्‍पति जी ने भी यही कहा कि भास्‍वर क्‍यों? नाम ऐसा हो जो तुरंत ही दिल-ओ-दिमाग पर बन जाए. श्रीरामसिंह शेखावत और हमने अर्थ की दृष्‍टि से इसके महत्‍व को समझने का प्रयास किया तो लगा कि 'शाइनिंग इंडिया' इसका अर्थ है. मुझे तो इसमें प्राचीन भारत की तेजस्‍वीता का भाव रखे जाने की बात ज्‍यादा सही लगी. संभवत: परम्‍परागत रूप से 'भास्‍वर' शब्‍द का प्रयोग किया गया है. शुक्‍ल जी का संपादकीय भी इसी ओर इंगित करता है.

खैर, 19 अक्‍तूबर को वेंकटेश्‍वर जी ने समझाते हुए स्‍पष्‍ट कर दिया कि यह शाइनिंग के ही अर्थ में है. हैदराबाद से 'कल्‍पना' (अपने समय की स्‍तरीय साहित्‍यिक राष्‍ट्रीय पत्रिका) के बंद होने के बाद से किसी राष्‍ट्रीय स्‍तर का प्रकाशन लंबे समय से ड्यू था. इस सूखे को दूर करने के लिए शुक्‍ल जी को श्रेय जाता है कि एक रिस्‍की सही पर साहसिक कदम उठाकर उन्‍होंने स्‍तरीय पत्रिका का प्रकाशन आरंभ किया है. 

क्रिकेट या किसी भी खेल में खासकर कहा जाता है कि ओपनिंग अच्‍छी होनी चाहिए. पत्रिका का पहला अंक हाथ में आने के बाद छपाई देख पढ़ने का मन बना और मंच के शुभकामना संदेशों के क्रम को छोड़ बाहर निकल पड़ा कि काम खत्‍म कर इसे पहले पढ़ा जाय. 

कल से आज तक प्रकाशित पत्रिका के सभी स्‍तंभ पढ़ डाले. वैसे पत्रिका और किताब के फर्क को शब्‍द नहीं दे पाने की बेचैनी भी थी. यह भी वेंकटेश्‍वर जी ने 19 को डीनर पर बात करते-करते दूर कर दी और कहा कि पत्रिका को 'लिटरेचर इन हरी' भी कहा जाता है तो जैसे बहुत दिनों की बेचैनी शांत हो गयी. अक्‍सर डीनर पर लंबी बातचीत के दौरान वे कई बातें बताते और समझाते हैं. मैं उनके साथ डीनर को हमेशा 'ए डीनर विथ मास्‍टर' कहता हूँ. खुले दिल से गप लड़ाना और बातों - बातों में अन्‍जान और जटिल बातें समझाना हमारे मिलने का सार रहा है. 

पत्रिका की छपाई उत्‍तम दर्जे की है. अच्‍छे जी एस एम का कागज और फोर कलर प्रिंटिंग इसे आकर्षक बनाती है. यदि नाम से जोड़कर कंटेंट पर ध्‍यान दिया जाय तो एक पत्रिका में जैसे सामान्‍यत: स्‍तंभ होते हैं वे सभी स्‍तंभ इसमें भी हैं. करेंट इश्‍यूस से लेकर भाषा-संस्‍कृति विषयक सभी बातें शामिल हैं. जहॉं तक कंटेंट की बात है अरविंद केजरीवाल, कुडनकुलम या तेलंगाना विषयक जानकारी केवल सूचनाप्रद है जो पहले से ही समाचारों में आ चुकी है. इसमें इन्‍वेस्‍टीगेटिव जर्नलिज्‍़म की कमी दिखाई दी. यदि ऐसा हो पाता तो इन विषयों पर क्‍या खास और अलग है, इस पत्रिका के माध्‍यम से दिखाई पड़ता.  

शुक्‍ल जी का संपादन नि:संकोच सराहनीय है. वार्ता छोड़ देने के बाद से लगातार उन्‍हें पढ़ते रहने का जो क्रम टूट गया था वह एक साथ चार विषयों पर ( दो सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों पर तो एक-एक साहित्‍यिक-सांस्‍कृतिक और ऐतिहासिक दृष्‍टि से) लिखे लेख पढ़कर काफी हद तक दूर हो गया. 'महारास' और 'हेमू' पर लिखे दोनों लेख शुक्‍ल जी के साहित्‍यिक-ऐतिहासिक और दार्शनिक दृष्‍टि व कलमकारी के अनूठे नज़ीर हैं. आरंभ से ही उनके इन सामाजिक, सांस्‍कृतिक, राजनैतिक और दार्शनिक दृष्‍टि से लिखे गये लेखों का मैं कायल रहा हूँ और पढ़ते ही तुरंत फोन पर बात कर चर्चा-परिचर्चाएं भी होती रही हैं. विशेषकर उनकी 'बोलती शैली और स्‍पष्‍ट विचारक्रम व प्रवाह' बांधे रखता है सो ऐसा ही आज भी महसूस हुआ. लगा कि लिखकर बात की जाए.  

शुक्‍ल जी की इस आद्योपांत उपस्‍थिति के पीछे पत्रिका के आरंभ की दृष्‍टि से एक और बात भी लगी कि संपादक होने के नाते कैप्‍टन और ओपनिंग खिलाड़ी की भूमिका निभाने का एक गहरा अहसास शुक्‍ल जी के साथ चल रहा था. ताकि, पत्रिका एक अच्‍छा स्‍कोर खड़ा कर सकें. डॉ भरत झुनझुनवाला, मुजफ्फर हुसैन, गुरमीत बेदी, गु.नीरजा और एस राधाकृष्‍णा आदि समाचारात्‍मक और सूचनापरक लेख से अंक को सहारा देते नज़र आये. 

एक और बात भी लगी कि एक ही अंक में एक ही विषय पर एक साथ एक के बाद एक चिंता प्रकट करते और सराहना करते दो लेख प्रकाशित हैं 'विश्‍व हिन्‍दी सम्‍मेलन पर'. लेखक हैं प्रो. ऋषभदेव शर्मा (हिन्‍दी के नाम पर हो रहा तमाशा) और प्रो. गोपेश्‍वर सिंह (..... और संपन्‍न हो गया विश्‍व हिन्‍दी सम्‍मेलन). वैचारिक स्‍वतंत्रता की दृष्‍टि से ठीक हो सकता है पर पत्रिका के नज़रिये से यह नवीनता ही ज्‍यादा लगी. 

नीरजा जी का लेख लगा जैसे एडजस्‍ट या फिल्‍लर किया गया हो पहले अंक में, वह भी आरंभ से चौथे नंबर पर. इसमें भी मूल कंटेंट कम और पत्रकारिता की दृष्‍टि से 'व्‍हाइट' के माध्‍यम से उद्धृत विचार ज्‍यादा प्रकाशित किये गये हैं लेख को खड़ा करने के लिये. नवलेखक प्रोत्‍साहन आवश्‍यक है पर खेल की दृष्‍टि से कहूँ तो मीडिल आर्डर भी मैच विनर से कम नहीं होना चाहिए.  

ऐसी ही बात राकेश श्रीवास्‍तव जी के विराट कोहली पर लिखे लेख को पढ़कर भी लगी. विराट कोहली के खेल के ऑंकड़ों सहित सारी बातें ज्‍यादा विस्‍तार से समाचारों में आ चुकी हैं. कोई विशेष पहलू इसमें भी दिखायी नहीं पड़ा.

विविध में 'श्रद्धांजलि' के तहत शहर के तीन जाने-माने व्‍यक्‍तियों का योगदान सहित विवरणात्‍मक समाचार प्रकाशित कर इन्‍हें याद किया जाना दिल को छूने वाली बात रही. इस बहाने देश-विदेश में इनके कार्यों से अन्‍यों को जानकारी और प्रेरणा प्राप्‍त होगी. 

इस अंक की एक उपलब्‍धि के रूप में श्री विजयदत्‍त श्रीधर द्वारा माधवराव सप्रे स्‍मृति समाचार-पत्र संग्रहालय पर दी गयी रोचक जानकारी है. इसकी जानकारी मुझे इससे पहले नहीं थी. हो सकता है बहुत पाठकों को भी नहीं हो. अत: यह निश्‍चित ही सभी के लिए पठनीय व संग्रहणीय है. 

अंत में सभी लेखक और योगदानकर्ताओं का संपर्क विवरण देना बहुत ही सही और जरूरी लगा. इस सोच के लिए बधाई!  

पुन: एक बार साहसिक कदम के लिए बहुत-बहुत बधाई व साधुवाद!  पत्रिका के आगामी अंको की इस बात के साथ शभकामनाएं कि समाचार पत्र को पत्रिका में तब्‍दिल करना कितना कठिन है और विशेषकर आज के क्षण-क्षण बदलते माहोल में, यह पूरी टीम की मेहनत देख अहसास होता है. 

सफलता की कामनाओं सहित,

होमनिधि शर्मा