Wednesday, March 31, 2010

एक लघुकथा और समीक्षा

बुढ़ापा

-- मनोज कुमार
देवी मां के दर्शन के लिए पहाड़ की ऊँची चढ़ाई चढ़ कर जाना होता था। सत्तर पार कर चुकी उस वृद्धा के मन में अपनी संतान की सफलता एवं जीवन की कुछेक अभिलाषा पूर्ण होने के कारण मां के दरबार में शीष झुकाने की इच्‍छा बलवती हुई और इस दुर्गम यात्रा पर जाने की उसने ठान ली। चिलचिलाती धूप और पहाड़ की चढ़ाई से क्षण भर को उसका संतुलन बिगड़ा और लाठी फिसल गई।
पीछे से अपनी धुन में आता नवयुवक उस लाठी से टकराया और गिर पड़ा। उठते ही अंग्रेजी के दो चार भद्दे शब्‍द निकाले और चीखा, ऐ बुढि़या देख कर नहीं चल सकती।
पीछे से आते तीस साल के युवक एवं 35 साल की महिला ने सहारा दे उस वृद्धा को उठाया। युवक बोला,भाई थोड़ा संयम रखो। इस बुढि़या का ही देखो IAS बेटा और डॉक्‍टर बेटी है। पर बेटे का प्रशासनिक अनुभव और बेटी की चिकित्‍सकीय दक्षता भी इसे बूढ़ी होने से रोक नहीं सका। और वह नालायक संतान हम ही हैं। पर भाई मेरे - बुढ़ापा तुम्‍हारी जिंदगी में न आए इसका उपाय कर लेना।

ऑंच पर 'बुढ़ापा'

मनोज ब्‍लाग के आरंभ से अब तक बहुत कुछ बेहतरीन, स्‍तरीय और ज्ञानवर्द्धक सामग्री हमें पढ़ने मिली है. जहॉं तक लघुकथा का प्रश्‍न है यह कैसी होती है और क्‍या होती है जैसे प्रश्‍न प्रतिक्रिया और फोन के माध्‍यम से चर्चा में थे. आज जैसे ही 'बुढ़ापा' लघुकथा मनोज कुमार जी की पढ़ी, लगा मनोज जी और परशुराम राय जी के आदेश का पालन करते हुए ऑंच में हाथ धर दूँ.

इससे पहले मैंने अपनी प्रतिक्रियाएं व्‍यक्‍त की हैं विशेषकर मनोजकुमार, परशुराम राय और हरीशप्रकाश गुप्‍त के लेखन को लेकर. विशेषकर 'ब्‍लेसिंग' और 'रो मत मिक्‍की' इन दो लघुकथाओं पर काफी प्रतिक्रियाएं भी प्राप्‍त हुईं. परन्‍तु 'ब्‍लेसिंग' मेरे विचार से अबतक एक अच्‍छा उदाहरण थी लघुकथा की. लेकिन, 'बुढ़ापा' पढ़ने के बाद यह क्‍या होती है और कैसे होती है, प्रश्‍न खत्‍म हो जाते हैं.
विषय, पात्र, शैली और प्रस्‍तुति की दृष्‍टि से एकदम गुँथीहुई, अर्थ से लबरेज़, मर्मस्‍पर्शी, बोधगम्‍य और शिक्षाप्रद कथा. यह एक 'क्‍लासिक एक्‍साम्‍पल' हो सकता है लघुकथा का.

कथा पढ़कर स्‍पष्‍ट है कि कथालेखन से पूर्व लेखक के मन और मस्‍तिष्‍क में कई ड्राफ्ट फ्रेम बने और जब यह अंतिम रूप में सामने आई तो इसकी शुरूआत से लगता है कि जैसे यह गुलज़ार या श्‍याम बेनेगल की किसी बेहतरीन हिन्‍दी फिल्‍म का पहला दृश्‍य हो. इसे लिखा नहीं रचा गया है. पूरी कथा में प्रस्‍तुति बिम्‍बाम्‍बत्‍मक है. कमाल यह है कि किसी पात्र का नाम नहीं है और पढ़ते हुए इसकी कहीं कमी नहीं खलती. बिना पात्रों के नाम दिए कथा लिखना यह लेखक की वैचारिक गहराई और कलात्‍मकता का परिचायक है. अधिकतर रचनाएं पात्रों के नाम से प्रचलित और अमर होती हैं जैसे गोदान उपन्‍यास का 'होरी'. पर, बिना पात्र का नाम लिए रचना प्रचलित हो पाए यह लेखन और कथ्‍य का निकष है.
इस कथा में समाज के चार ऐसे जिन्‍दा चरित्र हैं जो हर मोड़ पर दिखाई पडते हैं. बुढ़िया (मॉं, दादी, नानी आदि के रूप में) याने एक बेकार व लाचार बोझ भरी औरत जिसकी किसीको आवश्‍यकता नहीं होती. अल्‍हड़ नवयुवक जो सामान्‍यत: अक्‍सर बड़ों के साथ अशिष्‍टता से पेश आते देखे जा सकते हैं. दूसरी ओर आज के वक्‍त के मुताबिक डाक्‍टरी पढ़ी बेटी और आई ए एस बेटा जो स्‍वयं तो युवा, शिक्षित, प्रतिष्‍ठित और संपन्‍न हैं पर संस्‍कारी व जिम्‍मेदार भी हैं. इनका उस नवयुवक के साथ गाली देने पर विनयशीलता से पेश आना उसकी मानसिक स्‍थिरता और सिचुएशन हैंडलिंग को दर्शाता है कि है कि एक आई ए एस अधिकारी केवल शिक्षित नहीं होता अपितु जीवन व्‍यवहार में उस ज्ञान को शामिल भी करता है. अंत में उसके द्वारा कहा गया वाक्‍य किसी मार और श्राप से बढ़कर है.
'युवक बोला,“भाई थोड़ा संयम रखो। इस बुढि़या को ही देखो IAS बेटा और डॉक्‍टर बेटी है। पर बेटे का प्रशासनिक अनुभव और बेटी की चिकित्‍सकीय दक्षता भी इसे बूढ़ी होने से रोक नहीं सका। और वह नालायक संतान हम ही हैं। पर भाई मेरे - बुढ़ापा तुम्‍हारी जिंदगी में न आए इसका उपाय कर लेना।”
यदि बुढ़ों का और बुढ़ापे का आदर क्‍या होता है कोई पूछे तो उसे यह कथा सुना देना काफी होगा.

कथा के कुछ और भी पहलू हैं जिसे पढ़कर आनंद लिया जा सकता है. कुल मिलाकर एक बेहतरीन लघुकथा मनोज जी ने लिखी है जिसके लिए वे बधाई के हक़दार हैं.

होमनिधि शर्मा

Wednesday, March 24, 2010

इन्कलाब ! जिंदाबाद !!

साभार मनोज से

मंगलवार, २३ मार्च २०१०

इन्कलाब ! जिंदाबाद !!

नाम आज कोई याँ नहीं लेता है उन्हों का !
जिन लोगों के कल मुल्क ये सब ज़ेर-ए-नगीं था !!
नमस्कार !
अखबार के एक पन्ने पर छपे विज्ञापननुमा नज़ारे से एक ख्याल आया। शहीद-ए-आज़म भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव ने वर्षों पूर्व आज ही के दिन 23 मार्च 1931 को वतन की राह में हँसते-हँसते फांसी के तख्ते को चूम लिया था। तो आओ "जो शहीद हुए हैं उनकी जरा याद करो कुर्बानी !" शाहीद-ए-आजम के जिन्दगी की मुख़्तसर झांकी !
-- करण समस्तीपुरी

"हज़ारों साल नर्गिस अपनी बेनूरी पे रोती है !
बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदावर कोई पैदा !!"

अंग्रेजों के अधीन भारत के पंजाब प्रान्त के लायालपुर जिले के खटकर कलां गाँव में रहता था सरदार अर्जुन सिंह का परिवार। इसी परिवार के किशन सिंह संधू और विद्यावती के
घर जब 27 सितम्बर 1907 को नवजात बालक की किलकारी गूंजी तो दादा अर्जुन सिंह ने उसे नाम दिया, 'भगत.... भगत सिंह !'
"ओ मेरे अहबाब ! क्या-क्या नुमाया कर गए !
बी.ए किये, नौकर हुए, पेंशन मिली और मर गए !!"
आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद से प्रभावित दादा ने पोते को शिक्षा के लिए लाहौर के डी.ए.वी हाई स्कूल भेजा। 'पोथी पढि-पढि तो जग मुआ.... ।' वतनपरस्ती के जज्बे वाले परिवार के वारिश भगत सिंह का जन्म तो किसी और उद्देश्य के लिए हुआ था। महात्मा गाँधी के असहयोग आन्दोलन को बड़ी तवज्जो से देख रहे थे।
भगत सिंह तब लाहौर के नॅशनल कॉलेज में थे। पंजाब हिंदी साहित्य सम्मलेन की व्याख्यान प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार जीता। भगत सिंह का यह व्याख्यान अनेक विरोक्तियों से लवरेज था, जिसने प्रो विद्यालंकार जी को बरबस आकर्षित किया। बाद में विद्यालंकार जी की प्रेरणा पर ही भगत सिंह ने रामप्रसाद 'बिस्मिल' और असफाक-उल्ला खाँ की पार्टी हिंदुस्तान रिपब्लिकन असोशिएसन के सदस्य बन गए। 1928 में दिल्ली में देश भर के क्रांतिकारियों की रैली हुई थी डेल्ही में, 'कीर्ति किसान पार्टी' के बैनर तले। भगत सिंह इसके महासचिव थे। देश भर में आजादी की चिंगारी को हवा देते रहे।

"सरफरोसी की तमन्ना अब हमारे दिल में है ! देखना है जोर कितना बाजू-ए-कातिल में है !!"

किस मजबूत मिट्टी का बने थे भगत सिंह.... उनके फौलादी इरादों की झलक तो तभी मिल गयी थी जब वे महज बीस साल की उम्र में पहली दफा जेल गए और देशी और विदेशी सभी राजनितिक बंदियों के लिए समान व्यवहार की मांग करते हुए जमा 64 दिनों तक उपवास किया था।
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की दो धाराएँ हो गयी थी। गांधीजी के नरम-दल की अपेक्षा 'लाल-बाल-पाल' का गरम नेतृत्व भगत सिंह को अधिक रास आता था। 30 अक्तूबर 1928 को अंग्रेजों द्वारा लाये गए 'साइमन कमीशन' के शांतिपूर्ण विरोध मार्च का नेतृत्व कर रहे लाला लाजपत राय पर ब्रिटिश पुलिस ने बर्बरता से लाठियां बरसाई। बुरी तरह चोटिल लाला जी बुढापे की दहलीज पर अंग्रेजी कहर झेल नहीं पाए और स्वर्ग सिधार गए। "लाला जी पर चली एक-एक लाठी अंग्रेजी हुकूमत के ताबूत में आखिरी कील होगी........" भगत सिंह ने लालजी की हत्या के दोषी पुलिस चीफ स्कॉट को मार गिराने की कसम खाई।
भगत सिंह के 'मिशन किल स्कॉट' में उनके साथी थे राजगुरु, सुखदेव और जय गोपाल। जय गोपाल पर था स्कॉट को पहचान कर भगत सिंह को इशारा करने का जिम्मा। पहचानने में भूल हुई और गोपाल के इशारे पर भगत सिंह ने लाहौर के डी.एस.पी सांडर्स पर गोलियां बरसा दी। लाहौर की पुलिस भगत सींह को पकड़ नहीं पायी। दाढ़ी और बाल कटा ऐसा भेष बदला कि जब तक कहे नहीं कोई न पहचाने। आज़ादी की लहर को देश भर में दौड़ाते रहे।

ब्रितानी हुकूमत अस्सेम्बली में 'डिफेन्स इंडिया एक्ट' लाने वाली थी। भगत सिंह के दल ने बिल को न लाने देने का फैसला किया। बिल लाया गया तो अस्सेम्बली में बम फेंका जाएगा। इस बार भगत सिंह के साथ थे बटुकेश्वर दत्त। 9 अप्रैल 1929 को लाहौर की अस्सेम्बली में दोनों ने आखिर बम तो फेंके ही साथ ही पर्चे भी बांटे जिस पर लिखा था, "बहरों को सुनाने के लिए धमाकों की जरूरत होती है....!" बम फेंकें के बाद वे वहाँ से भागे नहीं। 'इन्कलाब - जिंदाबाद' कहते हुए खुद को गिरफ्तार होने दिया।
"मेरा रंग दे बसंती चोला.... रंग दे बसंती चोला.... माये रंग दे........ !!"
केस चला। चंद अभियोग लगाए गए। फांसी की सजा सुनाई गयी। 23 मार्च 1931 को सुबह 8 बजे फांसी मुक़र्रर हुई। लेकिन भगत सिंह की लोकप्रियता और खौफ का आलम यह कि इस से पहले कि लोगों का शैलाव उमर जाय और फांसी में किंचित बाधा न पड़े समय से पूर्व 6 बजे ही फांसी पर चढ़ा दिया गया।


"मशलहत का है तकाजा वक़्त की आवाज़ है !
राह-ए-वतन में मरने का यही अंदाज़ है !
असल में जान-ए-वतन तू वस्ल में जान-ए-वतन !
शान है तेरी वतन से और तू शान-ए-वतन !!"

जेल की प्राचीर में गूंजता रहा 'इन्कलाब - जिंदाबाद !' शहीद हो गए मातृभूमि के वीर सपूत। सच तो यही है कि इन्ही जांबाजों के शहादत पर खिला वतन की आज़ादी का गुल। किन्तु क्या इतनी कीमती आज़ादी आज सार्थक और अक्षुण है ....... ? या फिर हमें और कीमत देनी पड़ेगी ? गर देनी पड़े कीमत तो तैयार हो जाओ !!
"शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर वरष मेले !
वतन पर मिटने वालों का यही बांकी निशां होगा !!"

Tuesday, February 23, 2010

चेतन भगत द्वारा सिम्‍बियॉसिस में दिये गये भाषण का अंश

Speech by Chetan Bhagat at Symbiosis ...


Don't just have career or academic goals. Set goals to give you a balanced, successful life. I use the word balanced before successful. Balanced means ensuring your health, relationships , mental peace are all in good order.
There is no point of getting a promotion on the day of your breakup. There is no fun in driving a car if your back hurts. Shopping is not enjoyable if your mind is full of tensions.

"Life is one of those races in nursery school where you have to run with a marble in a spoon kept in your mouth. If the marble falls, there is no point coming first. Same is with life where health and relationships are the marble. Your striving is only worth it if there is harmony in your life. Else, you may achieve the success, but this spark, this feeling of being excited and alive, will start to die.

One thing about nurturing the spark - don't take life seriously. Life is not meant to be taken seriously, as we are really temporary here. We are like a pre-paid card with limited validity. If we are lucky, we may last another 50 years. And 50 years is just 2,500 weekends. Do we really need to get so worked up?

It's ok, bunk a few classes, scoring low in couple of papers, goof up a few interviews, take leave from work, fall in love, little fights with your spouse. We are people, not programmed devices.

"Don't be serious, be sincere."!

Sunday, February 14, 2010

अच्छे मौक़े का इल्म -- मनोज कुमार (वैलेंटाइन डे पर विशेष)

कभी-कभी वक़्त हमसे बहुत आगे निकल जाता है और हम उसे तलाशते रह जाते हैं। आज एक ख़ास दिन है। जब सारे संसार में यह दिन एक विशेष अवसर के रूप में मनाया जा रहा है तो बात तो कुछ ख़ास होगी ही इस दिन में। इस अवसर पर एक कहानी सुनाने का मन कर रहा है। हमने किसी से सुनी थी। आपको सुनाता हूँ।
उस शहर की वह अगर सबसे नहीं तो एक बहुत ही ख़ूबसूरत लड़की तो थी ही। उसका सहपाठी बहुत ग़रीब था। पर दोनों में दोस्ती गहरी थी। सिर्फ़ दोस्ती। 14 फ़रवरी को उस लड़की का जन्म दिन पड़ता था। पिछले साल उसने अपना जन्म दिन उसी ग़रीब दोस्त के साथ मनाया था। एक ढाबे टाइप के रेस्तरां में कुछ मीठा खा कर। फिर वे पैदल अपने घर को लौट रहे थे तो रास्ते में एक गहनों की दूकान के आगे लड़की के क़दम रुक गये। ग़रीब दोस्त ने पूछा क्या हुआ ? तो उस लड़की ने बताया जब भी मैं इस दूकान के आगे से गुज़रती हूँ तो मेरी नज़र बरबस उस गहने पर टिक जाती है। और मैं सोचती हूँ मेरा वैलेंटाइन ... सच्चा प्रेमी .. किसी दिन आयेगा और उस गहने को मुझे पहनायेगा।
दूसरे दिन वह ग़रीब लड़का उस दूकान पर गया और उस गहने की क़ीमत पता किया। क़ीमत उसके बस के बाहर थी। शायद अपने को बेच भी देता तो उसे ख़रीद नहीं पाता!
आज .. एक साल बाद फिर से 14 फरवरी आ गई। वह ग़रीब लड़का हाथ में एक पैकेट लिये हुए घर से निकलता है। रास्ते में एक लाल गुलाब भी ख़रीदता है। और अपनी उस मित्र के घर पहुंचता है। उसकी दोस्त कहीं जाने के लिये तैयार दिखती है। पूछने पर बताती है कि मेरा एक ख़ास दोस्त आने वाला है। वह मुझे होटल ताज ले जा रहा है। मेरा स्पेशल जन्म दिन मनायेगा वह। ग़रीब लड़का वह पैकेट वहीं टेबुल पर रख देता है और हैप्पी बर्थ डे टू यू बोल कर लाल गुलाब छुपाते हुए वहां से निकल आता है। उसे पता भी नहीं चलता कि जब वह निकल रहा था तो कोई भीतर घुस रहा था।
जो भीतर प्रवेश करता है वह शहर के सबसे धनी व्यक्ति का पुत्र है और ख़ुद एक होस्पिटल और ब्लड बैंक का मालिक है। वह अपना क़ीमती तोहफ़ा उस लड़की को प्रज़ेंट करता है। फिर पूछता है वह जो लड़का अभी यहां से गया है वह कौन था और क्यों आया था? लड़की बताती है मेरे साथ पढता है और मुझे बर्थ डे विश करने आया था और यह गिफ़्ट दे गया है। धनी लड़का बोलता है ज़रा खोलो तो देखें क्या है? लड़की पैकेट खोलती है तो उसे पिछले साल का वक़या याद आ जाता है। उसमें वही हार होता है? उसके मुंह से निकलता है इतना क़ीमती हार वह कहां से लाया? इस पर धनी लड़का बोलता है मुझे मलूम है। वह पिछले एक साल से मेरे होस्पिटल में नाइट ड्यूटी कर रहा है... वार्ड की साफ़-सफ़ाई की ... और हर रविवार को अपना ख़ून भी बेचता रहा है। पर उसने पैसे कभी नहीं लिये। हमेशा बोलता था इसे अपने पास ही रखिये। एक ज़रूरी समान ख़रीदना है। अभी कल ही उसने सारे पैसे लिये थे। लगता है इसी गिफ़्ट को ख़रीदने के लिये वह पैसे जमा कर रहा था। लड़की उस ग़रीब लड़के को खोजने बाहर निकलती है पर वह बहुत दूर जा चुका होता है।सच है हमें तब तक किसी अच्छे मौक़े का इल्म नहीं होता जब तक वह हमारे हाथों से निकल नहीं जाता। आप मत निकल जाने दीजिए।
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टिप्‍पणी : बड़े लोग अक्‍सर कहा करते हैं, ध्‍यान से सुनो, इसे याद रखो...... बहुत ही बढ़िया 'वाक़िया' आज के इस अवसर पर आपने याद फर्माया. मेरे लिए भी यह अब ज़हनिशां बन चुका है. बल्‍िक, अपने ब्‍लाग के ज़रिये इसे और भी पाठकों के ज़हन में लाने का यत्‍न करूँगा. यदि वाक़ये में उद्धृत जैसे पात्र वैलेंटाइन डे मनायें तो कोई हर्ज नहीं होना चाहिए बल्‍कि यह दिवस ही ऐसे समर्पित प्रेमियों के लिए है.
इन पर भौगोलिक सीमाएं और सामाजिक बन्‍धन लागू नहीं होते. बढ़िया. अच्‍छे वाकिये और अच्‍छी रचना के लिए बधाई !

होमनिधि शर्मा

Saturday, February 13, 2010

'ब्लेसिंग' लघुकथा , समीक्षा और टिप्‍पणी


ब्लेसिंग 

-- मनोज कुमार

में आई कम-इन सर?
यस कम इन।
गुड मार्निंग सर।
मार्निंग
कैन आई सिट सर?
ओह यस-यस प्लीज ।..................अरे तुम ? अगर तुम अपने ट्रांसफर की बात करने आए हो, तो सॉरी, तुम जा सकते हो।
नहीं सर मैं तो...आपके...........।
देखो तुम जब से इस नौकरी में हो, यहीं, इसी मुख्यालय में ही काम करते रहे हो। तुम्हारे कैरियर के भले के लिए तुम्हें अन्य कार्यालय में भी काम करना चाहिए। और गोविन्दपुर में जो हमारा नया ऑफिस खुला है , उसके लिए हमें एक अनुभवी स्टाफ की आवश्यकता थी। हमें तुमसे बेहतर कोई नहीं लगा।
सर मैं तो इस विषय पर बात ही नहीं करने आया। मैं तो उसी दिन समझ गया था जिस दिन ट्रांसफर ऑर्डर निकला था कि आपने जो भी किया है मेरी भलाई के लिए ही किया है। मैं तो कुछ और ही बात करने आया हूँ।
ओ.के. देन ... बोलो...............।
सर वो,.............थोड़ा लाल बत्ती जला देते । कोई बीच में न आ जाए।
देखो तुम घूम-फिर कर कहीं ट्रांसफर वाली बात तो नहीं करोगे।
नहीं सर। बिल्कुल नहीं। कुछ पर्सनल है सर।
क्या?
सर मेरे पिता जी काफी बूढ़े हो गए हैं। उनकी इच्छा थी कि मैं एक गाड़ी खरीदूँ और उन्हें उस गाड़ी में इस पूरे महानगर में घुमाऊँ।
तो इसमें मैं तुम्हारी क्या मदद कर सकता हूँ ?
सर ! बस आपकी ब्लेसिंग चाहिए। आप तो इसी महीने के अन्त में सेवानिवृत होकर चले जाएंगे। सुना है आपके पास एक गाड़ी है।
हां है तो। वो 80 मॉडल गाड़ी हमेशा गराज में पड़ी रहती है।
सर उसे .....आप ............।
अरे बेवकूफ वो तुम्हारे किस काम आएगी। पिछले चार सालों में उसकी झाड़-पोछ भी नहीं की गई है। उसे तो कोई पांच हजार में भी नहीं खरीदेगा। उससे ज़्यादा तो उसे मुझे अपने होमटाउन ले जाने का भाड़ा लग जाएगा। मैं तो उसे यहीं छोड़................।
सर मैं खरीदूंगा सर। आप बीस हजार में उसे मुझे बेच दीजिए।
पर...................लेकिन .......गराज..........नहीं ...नहीं।
सर। प्जीज सर। नई गाड़ी तो मेरी औकात के बाहर है। कम से कम इससे मैं अपने माता-पिता का सपना उनके प्राण-पेखरू उड़ने के पहले पूरा तो कर लूंगा।
यू आर टू सेंटिमेंटल टूवार्डस योर पैरेंट्स। आई शुड रिस्पेक्ट इट। ओ.के. ... डन। आज से, नहीं-नहीं अभी से गाड़ी तुम्हारी।
थैंक्यू सर।... पर एक प्रॉब्लम है सर।
क्या?
आपकों तो मालूम है कि मैं गाड़ी चलाना ठीक से नहीं जानता। नया-नया सीखा हूं। अब मेरे घर, माधोपुर से तो इस ऑफिस तक का रास्ता बड़ा ठीक-ठाक है, भीड़-भाड़ भी नहीं रहती, किसी तरह आ जाऊंगा। पर सर आप तो जानते ही हैं कि गोविन्दपुर का रास्ता....................... वहां तो शायद मैं इस कार को नहीं ले जा पाऊँगा।
दैट्स ट्रू। ब्लडी दैट एरिया इज भेरी बैड। पूरा रास्ता टूटा-फूटा है। उस पर से भीड़ भाड़, .... यू हैव ए प्वाईंट।...............मिस जुली.......जरा इस्टेब्लिशमेंट के बड़ा बाबू को ट्रांसफर ऑर्डर वाली फाईल के साथ बुलाइए।
थैंक्यू सर। गुड डे सर।
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परशुराम राय जी मूलत: अध्‍यापक का स्‍वभाव रखते हैं और गाहे-बगाहे उन्‍हें यह कार्य करते हुए भी देखा है. आयु और अनुभव के मामले में भी वे मनोज जी और हमसे बड़े और अनुभवी हैं. चर्चा और बातचीत करते हुए किसी भी विषय के हमेशा मूल में जाना और वहॉं से आगे बढ़ना उनका एक स्‍वाभाविक गुण है. इसी कारण वे एक सुलझे हुए होमियोपैथ चिकित्‍सक भी हैं जो उन्‍होंने अपने स्‍वाध्‍याय से सीखकर आर्डिनेन्‍स फैक्‍ट्री, मेदक, आन्‍ध्र-प्रदेश में लगभग 20 वर्षों तक मुफ्त चिकित्‍सा सेवा की. सामान्‍यत: हम किसी डॉक्‍टर, वकील आदि पेशेवर व्‍यक्‍ितयों के पास जाते हैं तो पहले यह पता कर लेते हैं कि क्‍या वह अपने काम आयेगा अथवा नहीं. लघुकथा पर की गयी टिप्‍पणी पर भी अपनी बात करने से पहले मुझे यह आवश्‍यक लगा कि समीक्षक को थोड़ा जान-पहचान लें तो उनके द्वारा की गई समीक्षा की मौलिकता, मान्‍यता और प्रामाणिकता का महत्‍व ज्‍यादा सहजता से स्‍वीकार्य और ग्राह्य हो पायेगा.
मैंने मूल कथा और समीक्षा दोनों ही पढ़ीं. मेरे विचार से किसी भी रचना की अच्‍छी समीक्षा वही हो सकती है जिसमें पाठक और समीक्षक को लगभग एक समान प्रतीती होती है. ऐसा ही कुछ राय साहब की समीक्षा पढ़कर लगा. बिल्‍कुल एक चिकित्‍सक की भॉंती या डाक्‍टरी ज़बान में कहूँ तो बड़ी क्‍लिनिकल एनालिसिस इस लघुकथा की राय साहब ने की है. इस टिप्‍पणी के माध्‍यम से मनोज कुमार जी को एक कथाकार के रूप में और राय साहब को एक समीक्षक के रूप में उभर कर आने के लिए बधाई प्रेषित करता हूँ. आए दिन कुछ-न-कुछ पढ़ना होता ही रहता है लेकिन जो ईमानदार प्रयास गंभीरतापूर्वक इस माध्‍यम से किया जा रहा है वह तहेदिल से बधाई का हक़दार है.
जहॉं तक लघुकथा को परिभाषित करने का प्रश्‍न है यह 'लघुकथा' नामकरण से ही जाहीर हो जाता है जैसे फिल्‍म और लघुफिल्‍म. याने कथा मगर छोटी. सामान्‍यत: कथा नाम से रामायण जैसी लंबी कथा का आभास होता है. अत: कहानी के अंग धारण कर संक्षेप में कथा कहना लघुकथा कहा जा सकता है.

मेरी दृष्‍िट में कहानी शब्‍द 'कहना' से बना है जबकि कथ से कथित और कथन तथा कथा. अत: दोनों की आब्‍जेक्‍टिविटी में अंतर ज्ञात पड़ता है. कथन में कोई पहले से कही हुई बात कथा के ज़रिये संदेश के रूप में साबित होती हुई नज़र आती है तो कहानी में घटनाएं विषयानुसार या कथानक अनुसार एक क्रमागत रूप में कही जाती हैं, और इनके बहाने कोई सीख सामने आती है. समीक्षित लघुकथा में भी 'ब्‍लेसिंग' शीर्षक से ही बिना पूरी कथा पढ़े यह बात समझ में आ जाती है कि कहानी का अंत इसी के असर को साबित करेगा कि 'ब्‍लेसिंग' ही इस कथा के मूल केन्‍द्र में है जो अंत में सिद्ध होता है.

कुल मिलाकर मेरी ऐसी प्रतीती है.

पुन: एक बार इस ब्‍लाग के प्रत्‍येक सदस्‍य को बधाई और शुभकामनाएं.


होमनिधि शर्मा

Sunday, January 31, 2010

शनिवार, ३० जनवरी २०१०

श्रद्धांजलि, बापू


बापू के निर्वाण दिवस पर
श्रद्धांजलि, बापू
परशुराम राय





राजघाट पर अब भी,
बापू,
अग्निकुण्ड में
सत्य, अहिंसा की ज्वाला
जलती है,
या लगता है
सत्य, अहिंसा के
सजल नयन से
बापू!
देख रहे तुम भारत को।
ये ही दोनों कदम तुम्हारे
अन्तरिक्ष से
नाप रहे -
भारत की धरती।
पूर्वाग्रहों की जड़ता को
नाम दिया
सत्याग्रह का-
उत्तराधिकारी
जो बताते आपका,
अपनी ही
गलती से
गलती करना
सीख रहे हम।
तलवार गलाकर
तकली गढ़ी जो आपने
कब की बन गई
फिर तलवारें।
प्रजातंत्र के तीनों बन्दर
अब तो
न अपनी बुराई करते हैं
न सुनते हैं और न ही
देखते हैं।
उनकी मंगलवाणी भी
करती
अमंगल घोषणा।
किंकर्त्तव्य-विमूढ़ हो
भारत
दे रहा तुम्हें
श्रद्धांजलि
बापू!
दे रहा तुम्हें
श्रद्धांजलि, बापू
श्रद्धांजलि, बापू।
---0---राय साहब,
जैसे मैंने पहले कहा था कि जहॉं व्‍यक्‍ित, विचार या कविता अलग नहीं होते  वहॉं.....
'शोला हूँ, भड़कने की गुजारिश नहीं करता.
 सच मुँह से निकल जाता है, कोशिश नहीं करता'.


स्‍पष्‍टवादी परशुराम यदि आज गॉंधी के हिन्‍दुस्‍तान को देखेंगे तो शायद हम सबको ऐसा ही देश दिखाई देगा. यह कविता नहीं गॉंधी और उनके दर्शन की तरह आज के सच का निचोड़ है.

जहाँ कवि और कविता एक हो जाए तो कहने को कुछ नहीं रह जाता.

बापू से आशीष मॉंगते हुए कि वे हम सबको सद्बुद्धी दें.


होमनिधि शर्मा.

Saturday, January 23, 2010

'श्रद्धा की मधुशाला के बहाने'


डा. हरिवंश राय बच्चन की पुण्य तिथि १८ जनवरी पर श्रद्धांजलि - परशुराम राय, आर्डिनेंस फैक्‍ट्री, कानपूर


साकी बाला के हाथों में
भरा पात्र सुरभित हाला
पीने वालों के सम्मुख था
भरा हुआ मधु का प्याला
मतवालों के मुख पर फिर क्यों
दिखी नहीं थी जिज्ञासा
पीने वाले मतवाले थे
फिर भी सूनी मधुशाला ।। 1 ।।



मधु का कलश भावना का था
नाम आपका था हाला
पीने वाले प्रियजन तेरे
कान कान था मधुप्याला
तेरी चर्चा की सुगंध सी
आती थी उनके मुख से
यहॉ बसी थी तेरी यादें
और सिसकती मधुशाला ।। 2 ।।



छूट गए सब जग के साकी
छूट गई जग की हाला
छूट गए हैं पीने वाले
छूट गया जग का प्याला
बचा कुछ भी, सब कुछ छूटा
जग की मधुबाला छूटी
छोड़ गए तुम अपनी यादें
प्यारी सी यह मधुशाला ।। 3 ।।



मृत्यु खड़ी साकी बाला थी
हाथ लिए गम का हाला
जन-जन था बस पीनेवाला
लेकर सॉसों का प्याला
किंकर्तव्यमूढ़ सी महफिल
मुख पर कोई बोल थे
चेहरों पर थे गम के मेघ
आँखों में थी मधुशाला ।। 4 ।।



पंचतत्व के इस मधुघट को
छोड़ चले पीकर हाला
कूच कर गए इस जगती से
लोगों को पकड़ा प्याला
बड़ी अजब माया है जग की
यह तो तुम भी जान चुके
पर चिंतित तू कभी होना
वहाँ मिलेगी मधुशाला ।। 5 ।।



वहाँ मिलेंगे साकी तुमको
स्वर्ण कलश में ले हाला
इच्छा की ज्वाला उठते ही
छलकेगा स्वर्णिम प्याला
करें वहॉ स्वागत बालाएँ
होठों का चुम्बन देकर
होगे तुम बस पीने वाले
स्वर्ग बनेगा मधुशाला ।। 6 ।।



मन बोझिल था, तन बोझिल था
कंधों पर था तन प्याला
डगमग-डगमग पग करते थे
पिए विरह का गम हाला
राम नाम है सत्य बोला
रट थी सबकी जिह्वा पर
अमर रहें बच्चन जी जग में
अमर रहे यह मधुशाला ।। 7 ।।



दुखी न होना ऐ साकी तू
छलकेगी फिर से हाला
मुखरित होंगे पीने वाले
छलकेगा मधु का प्याला
नृत्य करेंगी मधुबालाएँ
हाथों में मधुकलश लिए
सोच रहा हूँ कहीं बुला ले
फिर से तुमको मधुशाला ।। 8 ।।



क्रूर काल साकी कितना हूँ
भर दे विस्मृति का हाला
खाली कर न सकेगा फिर भी
लोगों की स्मृति का प्याला
इस जगती पर परिवर्तन के
आएँ झंझावात भले
अमर रहेंगे साकी बच्चन
अमर रहेगी मधुशाला ।। 9 ।।



अंजलि का प्याला लाया हूँ
श्रद्धा की भरकर हाला
भारी मन है मुझ साकी का
ऑखों में ऑसू हाला
मदपायी का मतवालापन
ठहर गया क्यूँ पाता नहीं!
अंजलि में लेकर बैठा हूँ,
श्रद्धा की यह मधुशाला ।। 10 ।।

नमस्‍कार राय साहब,
यह ब्‍लाग (मनोज) तो आप ही के ज़रिये आज पढ़ने को मिल रहा है. सच कहूँ तो आपकी इस रचना का बड़ा इंतज़ार था. शायद शुरू के दो-तीन लोगों में मैं रहा हूँगा जिसे यह रचना आपने लिखते ही सुनाई थी. आज जैसे ही रचना देखी लगा आप सामने सोफे पर आमने-सामने बैठे रचना सुना रहे हों. सारी स्‍मृतियॉं एक चलचित्र बनकर ऑंखों के आगे चल रही हैं. संभवत: रचना सुनाने का समय भी इतनी ही रात्रि का रहा होगा. मुझे याद है यह रचना आपने रेल यात्रा करते समय लिखी थी. वह भी शायद बच्‍चन जी की पुण्‍यतिथि पर. मेरे अब तक की साहित्‍यिक गतिविधियों के दौरान शायद ही इतनी सटीक रचना बच्‍चन जी की मधुशाला या उनके जीवन के फलसफे पर किसी ने लिखी होगी. यह कहूँगा कि हम सब मिलकर जैसी श्रद्धांजलि बच्‍चन जी को देना चाहते थे वह आपने इसे लिखकर दे दी है. हम सब इस खास रचना के लिए आभारी हैं. मैं इस ब्‍लाग के माध्‍यम से लिखना चाहूँगा कि भले ही कम रचनाएं आपने लिखीं होंगी पर उन रचनाओं का शिल्‍प, कथ्‍य और गांभीर्य पाठक में एक पात्रता की मॉंग करता हैं. रचनाएं पढ़कर पाठक को लगता है कि मेरा भी क्‍लास ऊँचा हो गया है. बहुत तीव्र अनुभूतियॉं आपके काव्‍य में मैंने महसूस की हैं, बल्‍िक कहूँगा कि आधुनिक काव्‍य में शास्‍त्रीय ढंग से बिम्‍बों का प्रयोग बहुत कम ही कवि इतने ढंग से कर पाते हैं. मुझे याद है आप कविता समझने का तरीका भी बताया करते थे. यह कोरी प्रशंसा नहीं अपितु दशाधि वर्षों से भी अधिक समय से आप से जुड़े रहने और कई घण्‍टों व दिनों की चर्चाओं के बाद यह कह रहा हूँ. मुनासिब बात कहना और मुनासिब व्‍यवहार करना यह आपका स्‍वभाव है जो आपकी रचनाएं बोलती हैं. जब कविता बोलने लग जाए तो समझने के लिए कुछ अधिक शेष नहीं रह जाता. रह जाता है तो बस उसे अपनाना.

आपकी और भी रचनाओं, खासकर अन्‍यान्‍य विषयों पर लेखों की प्रतीक्षा है. आशा है आप अपने विचारों से हमें लाभान्‍वित करते रहेंगे. मनोज कुमार जी को भी बधाई कि बहुत सराहनीय कार्य यह ब्‍लाग आरंभ कर उन्‍होंने किया है. यह उनका ब्‍लाग नहीं बल्‍िक हम सबका ई-चबूतरा है जिस पर हमसब साथ नहीं बैठते बल्‍कि हमारे लिखे विचार बैठ बतियाते हैं.

होमनिधि शर्मा