Friday, October 26, 2012




ओ माइ गॉड के बहाने

भारत में कम से कम वैदिक काल से ईश्‍वर के होने-न होने को लेकर अध्यात्म के विद्वानों में बहस चली आ रही है. भिन्‍न-भिन्‍न अखाड़ों ने ईश्‍वर के नाम पर समाज को अपने-अपने अंगूठे के नीचे रखने का प्रयास सदैव किया है. ये अखाड़े भी देसी लोकतंत्र की तर्ज़ पर अनुयायियों के संख्या-बल में ही विश्वास करते आए हैंइसलिए, जैसे सारी दुनिया विभिन्न विज्ञानों पर आज शोध में व्यस्त है, उस समय हमारे शास्त्री मनुष्य, प्रकृति और किसी सम्भावित ईश्वरीय सत्ता के सरोकारों पर गहन चर्चा में जुटे थे. इसीके चलते भारतवासी दर्शन के सिरमौर होने का तमग़ा लगाए घूमते रहे हैं. इस चर्चा के प्रवाह में हमें दर्शन और तर्कशास्त्र के बेहतरीन ग्रंथ और जीवन-मूल्‍य भी बेशक मिले हैं.  
  
दुनिया में सबसे ज्‍यादा जवानी भारत में है. जीवन-शैली से आधुनिक प्रतीत होने वाली भारतीय तरुणाई,  लगता है शास्‍त्रोक्‍त ज्ञान-मार्ग से दूर जा चुकी है, तर्कातीत भक्ति-मार्ग से नहीं. बड़े भारी वैज्ञानिक हों, सूचना प्रौद्योगिकी इंजीनियर हों या फिर न्यायाधीशघर से पूजा-पाठ करके ही काम-धाम पर रवाना होते हैं. यह कहना कठिन है कि भारत में ईश्वर में जन्मजात आस्था में कमी आई है. फिर ऐसा क्‍या हो गया कि लोगो में आस्तिकता इंजेक्‍ट की जा रही हैयह सही है कि बड़ी संख्या में मत-मतान्‍तरों के रहते सम्भ्रम होना लाज़मी है.

इस माह ओ माइ गॉड आयी और टी वी बहस में परेश रावल, मिथुन चक्रवर्ती, अक्षय कुमार को पंडित, मौलवी, पादरी से बहस करते देखा तो फिल्‍म देखने की उत्सुकता जाग गयी. पुस्तक पढ़े बिना और फिल्‍म देखे बिना बात नहीं करनी चाहिए,लेकिन धार्मिक प्रतिनिधि यही इस बिना पर कर रहे थे कि फ़िल्मकार लोगों को सारे धर्मों के खिलाफ भड़का-उकसा रहे हैं,सभी धर्मों का अपमान कर रहे हैं. अत: इसे नहीं दिखाया जाना चाहिए या आपत्तिजनक हिस्‍से काटकर दिखाना चाहिए.

ओशो ने एक प्रसंग में कहा है कि किसी खिड़की पर यह लिखकर तख्‍ती टांग दो कि यहॉं झॉंकना मना है तो लोग वहीं झॉंकने लगेंगे. मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ. ईश्वर के पैरोकारों के फिल्‍म पर तख्‍ती टांगते ही मैंने फिल्‍म देख डाली. देख डाली,यहॉं तक तो ठीक था. लेकिन, आज के माहोल में बिना किसी शोर-शराबे के फिल्‍म पॉचवें हफ्ते में प्रवेश करने जा रही है तो लगा कि इस फिल्‍म को देखकर जो भी महसूस हुआलिखना चाहिए.
मैं दो फिल्‍मों को पिछले दस सालों की बेहतरीन फिल्‍मों की श्रेणी में रखना चाहूँगा. एक लगे रहो मुन्‍नाभाई और दूसरी ओ माई गॉड. ये दोनों ही फिल्‍में ऐसे विषयों को लेकर बनी हैं, जिन पर सबसे ज्‍यादा बहस और रोटी सिंकाई की दुकानें खोली गई हैं. गॉंधी के नाम पर सफेद खद्दरधारियों के काले कारनामों की पोल-पट्टी रोज़ ही खुल रही है. ख़ैर, इधर ईश्वर, अल्‍लाह और गॉड के नाम पर धर्म के ठेकेदार पाँच सितारा दुकानें खोलकर बैठे हैं. इनके बीच धर्म के प्रचार-प्रसार की गलाकाट प्रतियोगिता मची है. इसीकी पोल खोलती फिल्‍म ओ माई गॉड है. इस तरह की फिल्‍म बनाये जाने की सख्‍त जरूरत थी. हम जानते हैं देश में सिनेमा कितना प्रभावशाली माध्‍यम रहा है. फिल्‍में हमारे समाज की ट्रेण्‍ड सेटर रही हैं. आज चारों ओर भयावह माहोल रच दिया गया है. हिन्‍दू, मुस्‍लिम और ईसाई जैसे आपस में एक-दूसरे से जबरदस्‍त खतरा महसूस कर रहे हों और समाज पर जैसे अपना-अपना वर्चस्व स्थापित करना चाहते हों. किलिंग इंस्‍टिंक्‍ट अब केवल खेल में ही नहीं धार्मिक खेमों में भी देखी और महसूस की जा सकती है. फलित ज्‍योतिष, जादू-मंतर, टोने-टोटके, सिद्धियां, लोगों को छूकर ध्‍यान-मग्‍न कर देना, परिक्रमाओं से वीज़ा हासिल करा देना, बाल मुण्‍डवाकर मन्‍नतें पूरी कर देना, सपनों में आकर रोगों का इलाज कर देना,भभूत लगाकर मनोकामनाएं पूरी कर देना, बहन जी बनकर लोगों को श्रेष्‍ठ बना देना जैसी तकनीकों से मासूम लोग त्रस्‍त् हो चुके हैं. ऐसे में यह फिल्‍म मनोरंजक ढंग से इन सभी मसलों की न केवल पड़ताल करती है, बल्‍कि धर्म के उद्योगपतियों और ठेकेदारों की पोल खोलकर रख देती है. अत: फिल्‍म के तकनीकी पहलुओं से अधिक फिल्‍म बनाने की भूमिका पर लिखना मुझे ज्‍यादा जरूरी लगा.

अक्षय कुमार और परेश रावल को फिल्‍म का हर एक दर्शक बधाई दे रहा है कि हँसी-हँसी में कई अनसुलझे प्रश्‍नों का अकाट्य उत्तर और पाखंड के नकाब पलटने वाली यह फिल्‍म इन्होंने बनायी है. अमेरिका में बनी इन्‍नोसेंस ऑफ मुस्‍लिम और पाकिस्‍तानी फिल्‍म खुदा के लिये’ इन दोनों बैन फिल्‍मों को इस संदर्भ में रखकर ग़ौर करें तो कहा जा सकता है कि ऐसी फिल्‍म अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता वाले धर्मनिरपेक्ष देश में ही बनायी जा सकती है तालिबानी मुल्क में नहीं.  हमारे यहाँ इस फिल्‍म का बनना और चलना दर्शाता है कि भारत में सोच-विचार, बल्कि पुनर्विचार और सही-गलत की समझ का ख़ात्मा नहीं हो गया है. समाज एक डायनामिक थ्‍योरी है, जिसमें सुधार और बेहतरी की गुंजाइश हमेशा रहती है. इस गुंजाइश को सामने लाने का साहस करने के लिए फिर एक बार बधाई अक्षय कुमार, परेश रावल, मिथुन चक्रवर्ती और उनकी पूरी टीम को. यह फिल्‍म नहीं होती तो शायद हम कानजी भाई और उस मूल नाटक के नाम को भी नहीं जान पाते, जिस पर यह फिल्‍म बनी है. इस फिल्‍म को देखकर ही इसका रसास्वादन किया जा सकता है. अत: यह फिल्‍म सपरिवार अवश्‍य देखनी चाहिए.


Thursday, October 25, 2012

'कल्‍पना' के बाद हैदराबाद से 'भास्‍वर भारत'

कुछ महीनों पहले डॉ राधेश्‍याम शुक्‍ल जी का फोन आया और बताया कि एक राष्‍ट्रीय स्‍तर की पत्रिका हैदराबाद से निकालने की योजना है और इस कार्य में सहयोग की अपेक्षा है. शुक्‍ल जी की योजना थी अत: बेखटके सहयोग का वायदा हो गया. पत्रिका के बारे में ज्‍यादा जानकारी तो नहीं मिल पायी संभवत: आरंभिक चरण में कार्य था उस समय. कुछ समय बाद जब पुन: फोन पर बात हुई तो योजना कार्य रूप ले चुकी थी. गुरूमित्र डॉ एम वेंकटेश्‍वर जी ने भी इसकी विस्‍तार से जानकारी दी और इससे जुड़ने का न्‍यौता दिया. अब वायदा दुगना हो गया था.

देखते-ही-देखते 21 अक्‍तूबर आ गया और मैं सपरिवार पत्रिका के विमोचन कार्यक्रम में भाग लेने पहुँच गया. सबसे पहले जो बात मेरे और परिजनों के दिमाग में आयी थी कि पत्रिका के नाम में भास्‍वर क्‍यों? इसके बिना भी पत्रिका का नाम पूरा लगता है. फिर अर्थ जानने लगे तो हमारे सहयोगियों ने भी इसकी पड़ताल की. मेरे बड़े भाई बृहस्‍पति जी ने भी यही कहा कि भास्‍वर क्‍यों? नाम ऐसा हो जो तुरंत ही दिल-ओ-दिमाग पर बन जाए. श्रीरामसिंह शेखावत और हमने अर्थ की दृष्‍टि से इसके महत्‍व को समझने का प्रयास किया तो लगा कि 'शाइनिंग इंडिया' इसका अर्थ है. मुझे तो इसमें प्राचीन भारत की तेजस्‍वीता का भाव रखे जाने की बात ज्‍यादा सही लगी. संभवत: परम्‍परागत रूप से 'भास्‍वर' शब्‍द का प्रयोग किया गया है. शुक्‍ल जी का संपादकीय भी इसी ओर इंगित करता है.

खैर, 19 अक्‍तूबर को वेंकटेश्‍वर जी ने समझाते हुए स्‍पष्‍ट कर दिया कि यह शाइनिंग के ही अर्थ में है. हैदराबाद से 'कल्‍पना' (अपने समय की स्‍तरीय साहित्‍यिक राष्‍ट्रीय पत्रिका) के बंद होने के बाद से किसी राष्‍ट्रीय स्‍तर का प्रकाशन लंबे समय से ड्यू था. इस सूखे को दूर करने के लिए शुक्‍ल जी को श्रेय जाता है कि एक रिस्‍की सही पर साहसिक कदम उठाकर उन्‍होंने स्‍तरीय पत्रिका का प्रकाशन आरंभ किया है. 

क्रिकेट या किसी भी खेल में खासकर कहा जाता है कि ओपनिंग अच्‍छी होनी चाहिए. पत्रिका का पहला अंक हाथ में आने के बाद छपाई देख पढ़ने का मन बना और मंच के शुभकामना संदेशों के क्रम को छोड़ बाहर निकल पड़ा कि काम खत्‍म कर इसे पहले पढ़ा जाय. 

कल से आज तक प्रकाशित पत्रिका के सभी स्‍तंभ पढ़ डाले. वैसे पत्रिका और किताब के फर्क को शब्‍द नहीं दे पाने की बेचैनी भी थी. यह भी वेंकटेश्‍वर जी ने 19 को डीनर पर बात करते-करते दूर कर दी और कहा कि पत्रिका को 'लिटरेचर इन हरी' भी कहा जाता है तो जैसे बहुत दिनों की बेचैनी शांत हो गयी. अक्‍सर डीनर पर लंबी बातचीत के दौरान वे कई बातें बताते और समझाते हैं. मैं उनके साथ डीनर को हमेशा 'ए डीनर विथ मास्‍टर' कहता हूँ. खुले दिल से गप लड़ाना और बातों - बातों में अन्‍जान और जटिल बातें समझाना हमारे मिलने का सार रहा है. 

पत्रिका की छपाई उत्‍तम दर्जे की है. अच्‍छे जी एस एम का कागज और फोर कलर प्रिंटिंग इसे आकर्षक बनाती है. यदि नाम से जोड़कर कंटेंट पर ध्‍यान दिया जाय तो एक पत्रिका में जैसे सामान्‍यत: स्‍तंभ होते हैं वे सभी स्‍तंभ इसमें भी हैं. करेंट इश्‍यूस से लेकर भाषा-संस्‍कृति विषयक सभी बातें शामिल हैं. जहॉं तक कंटेंट की बात है अरविंद केजरीवाल, कुडनकुलम या तेलंगाना विषयक जानकारी केवल सूचनाप्रद है जो पहले से ही समाचारों में आ चुकी है. इसमें इन्‍वेस्‍टीगेटिव जर्नलिज्‍़म की कमी दिखाई दी. यदि ऐसा हो पाता तो इन विषयों पर क्‍या खास और अलग है, इस पत्रिका के माध्‍यम से दिखाई पड़ता.  

शुक्‍ल जी का संपादन नि:संकोच सराहनीय है. वार्ता छोड़ देने के बाद से लगातार उन्‍हें पढ़ते रहने का जो क्रम टूट गया था वह एक साथ चार विषयों पर ( दो सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों पर तो एक-एक साहित्‍यिक-सांस्‍कृतिक और ऐतिहासिक दृष्‍टि से) लिखे लेख पढ़कर काफी हद तक दूर हो गया. 'महारास' और 'हेमू' पर लिखे दोनों लेख शुक्‍ल जी के साहित्‍यिक-ऐतिहासिक और दार्शनिक दृष्‍टि व कलमकारी के अनूठे नज़ीर हैं. आरंभ से ही उनके इन सामाजिक, सांस्‍कृतिक, राजनैतिक और दार्शनिक दृष्‍टि से लिखे गये लेखों का मैं कायल रहा हूँ और पढ़ते ही तुरंत फोन पर बात कर चर्चा-परिचर्चाएं भी होती रही हैं. विशेषकर उनकी 'बोलती शैली और स्‍पष्‍ट विचारक्रम व प्रवाह' बांधे रखता है सो ऐसा ही आज भी महसूस हुआ. लगा कि लिखकर बात की जाए.  

शुक्‍ल जी की इस आद्योपांत उपस्‍थिति के पीछे पत्रिका के आरंभ की दृष्‍टि से एक और बात भी लगी कि संपादक होने के नाते कैप्‍टन और ओपनिंग खिलाड़ी की भूमिका निभाने का एक गहरा अहसास शुक्‍ल जी के साथ चल रहा था. ताकि, पत्रिका एक अच्‍छा स्‍कोर खड़ा कर सकें. डॉ भरत झुनझुनवाला, मुजफ्फर हुसैन, गुरमीत बेदी, गु.नीरजा और एस राधाकृष्‍णा आदि समाचारात्‍मक और सूचनापरक लेख से अंक को सहारा देते नज़र आये. 

एक और बात भी लगी कि एक ही अंक में एक ही विषय पर एक साथ एक के बाद एक चिंता प्रकट करते और सराहना करते दो लेख प्रकाशित हैं 'विश्‍व हिन्‍दी सम्‍मेलन पर'. लेखक हैं प्रो. ऋषभदेव शर्मा (हिन्‍दी के नाम पर हो रहा तमाशा) और प्रो. गोपेश्‍वर सिंह (..... और संपन्‍न हो गया विश्‍व हिन्‍दी सम्‍मेलन). वैचारिक स्‍वतंत्रता की दृष्‍टि से ठीक हो सकता है पर पत्रिका के नज़रिये से यह नवीनता ही ज्‍यादा लगी. 

नीरजा जी का लेख लगा जैसे एडजस्‍ट या फिल्‍लर किया गया हो पहले अंक में, वह भी आरंभ से चौथे नंबर पर. इसमें भी मूल कंटेंट कम और पत्रकारिता की दृष्‍टि से 'व्‍हाइट' के माध्‍यम से उद्धृत विचार ज्‍यादा प्रकाशित किये गये हैं लेख को खड़ा करने के लिये. नवलेखक प्रोत्‍साहन आवश्‍यक है पर खेल की दृष्‍टि से कहूँ तो मीडिल आर्डर भी मैच विनर से कम नहीं होना चाहिए.  

ऐसी ही बात राकेश श्रीवास्‍तव जी के विराट कोहली पर लिखे लेख को पढ़कर भी लगी. विराट कोहली के खेल के ऑंकड़ों सहित सारी बातें ज्‍यादा विस्‍तार से समाचारों में आ चुकी हैं. कोई विशेष पहलू इसमें भी दिखायी नहीं पड़ा.

विविध में 'श्रद्धांजलि' के तहत शहर के तीन जाने-माने व्‍यक्‍तियों का योगदान सहित विवरणात्‍मक समाचार प्रकाशित कर इन्‍हें याद किया जाना दिल को छूने वाली बात रही. इस बहाने देश-विदेश में इनके कार्यों से अन्‍यों को जानकारी और प्रेरणा प्राप्‍त होगी. 

इस अंक की एक उपलब्‍धि के रूप में श्री विजयदत्‍त श्रीधर द्वारा माधवराव सप्रे स्‍मृति समाचार-पत्र संग्रहालय पर दी गयी रोचक जानकारी है. इसकी जानकारी मुझे इससे पहले नहीं थी. हो सकता है बहुत पाठकों को भी नहीं हो. अत: यह निश्‍चित ही सभी के लिए पठनीय व संग्रहणीय है. 

अंत में सभी लेखक और योगदानकर्ताओं का संपर्क विवरण देना बहुत ही सही और जरूरी लगा. इस सोच के लिए बधाई!  

पुन: एक बार साहसिक कदम के लिए बहुत-बहुत बधाई व साधुवाद!  पत्रिका के आगामी अंको की इस बात के साथ शभकामनाएं कि समाचार पत्र को पत्रिका में तब्‍दिल करना कितना कठिन है और विशेषकर आज के क्षण-क्षण बदलते माहोल में, यह पूरी टीम की मेहनत देख अहसास होता है. 

सफलता की कामनाओं सहित,

होमनिधि शर्मा




Thursday, January 26, 2012

हुरडा खाने का अद्भुत अनुभव



नये साल की बात है. हमारी ममेरी साली ने फोन कर शोलापुर आने का न्‍यौता दिया. पूछा तो बताया कि हुरडा खाने आइए. मेरी समझ में नहीं आया लेकिन जाने की हामी भर दी. वैसे बाहर जाने का फितुर चल ही रहा था उसमें यह न्यौता आ गया. फोन रखने के बाद श्रीमती जी से पूछा कि क्‍या कोई फंक्‍शन अटेण्‍ड करने जाना है. वह ठहाका लगाकर हँसने लगी. मैं मन ही मन सोचा यह क्‍या है जो मुझे मालुम नहीं और ये हँस रही हैं. खैर, हुरडा क्‍या होता है श्रीमती ने समझाया पर अपनी समझ में ज्‍यादा कुछ नहीं आया. लेकिन, इण्‍टरनेट पर बैठ रिजर्वेशन की उपलब्‍धता चेक कर  फौरन वेटिंग लिस्‍ट में 20 जनवरी जाने और 22 जनवरी लौटने का रिजर्वेशन करा लिया.

कामकाज की आपाधापी में भूल गया कि हुरडा क्‍या होता है पता करना है. ऊपर से वेटिंग लिस्ट रिजर्वेशन, तो थोड़ा उत्‍साह भी कम था. देखते-दिखाते 20 तारीख आ ही गयी. हमारे ममेरे साढ़ू  श्री अजीत ओक रेल्‍वे में काम करते हैं तो उनसे भी बात की. उन्‍होंने भी हुरडे की दावत पर बुलाया लेकिन ढाक के वही तीन पात ज्‍यादा समझ में नहीं आया. सोचा अब जाकर ही देखते हैं. इस बीच श्रीमती ने बताया कि अजीत जी बहुत ही परिश्रमी और नौकरी के साथ मन लगाकर बागवानी व खेती का काम करने वाले हैं. उनका घर हर मायने में हरा-भरा है. उनके बारे में सुनकर और उनसे  बात कर लगा कि मिलना चाहिए.

20 तारीख हुसेनसागर एक्‍सप्रेस से शोलापुर के लिए रवाना हुए और 9.30 बजे शोलापुर पहुँच गए. नामपल्‍ली रेल्‍वे स्‍टेशन कई साल के बाद गये थे सो देखकर हम सभी दुखी हुए कि साफ-सुथरा रखा जाने वाला यह स्‍टेशन बदहाल पड़ा है. बैठने की कुर्सियॉं नहीं. खाने-पीने के सामान की दुकाने नहीं. खाली पटरियों पर गंदगी फैली पड़ी है. स्‍टेशन बेघर, भिखारियों और जानवरों का आसरा दिखायी दे रहा था. लगा कि सरकार यदि 32 रु. कमाने वाले को गरीब नहीं मानती है तो ये सभी गरीब देश के अमीर वासी हैं और हक से इस जगह का इस्‍तेमाल कर रहे हैं.
रेल चली. बेटी के बहाने रेल में जो भी अटरम-सटरम आता गया, सब खाते गये. सामने बैठे मुंबई जाने वाले मारवाड़ी यात्री लोग अचरज भरी निगाहों से देख सोच रहे थे कि हमसे ज्‍यादा चिरडण्‍डी खाने वाले ये कौन लोग हैं. बड़े ग्रुप में किसी शादी से शायद लौट रहे थे. जबरदस्‍ती आजू-बाजू बैठ कान-फाड़ू आवाज में मारवाड़ी में अपने घर-नुक्‍कड़ों की बड़-बड़ बेलगाम किये जा रहे थे. इन 9 घण्‍टो के सफर में कई बार लगा कि मना करूँ लेकिन धैर्य रख चुप रह गया.

किसी तरह खाते-खिलाते शोलापुर पहुँच गये. ममेरी साढ़ू और साली लेने पहुँच गये थे. मन में पिछले महीने राष्‍ट्रपति के दौरे के दौरान अमरावती में गुजारे 13 दिनों की यादें ताजा थी. सो, उतरते ही चारों ओर महाराष्‍ट्र का वैसा ही खास कल्‍चर दिखायी दे रहा था. सब जगह मराठी में लिखे नेम बोर्ड और मराठी ही बोलते लोग. खूबसूरत अक्षरों में लिखी जानकारियां मेरे हिन्‍दी ज्ञान के कारण अटपटी लग रही थीं. अधिकतर ह्रस्‍व मात्राएं दीर्घ और दीर्घ की जगह ह्रस्‍व का प्रयोग. अल्‍पप्राण की जगह महाप्राण मैं उच्‍चारित करने में मन ही मन असहज महसूस कर रहा था. जैसे जेराक्‍स को झेराक्‍स, जिला को जिल्‍हा, टीवी को टीव्‍ही आदि. लोगों के सरनेम भी जबान पर नहीं चढ़ रहे थे. फुलझेले, तलपड़े, पुच्‍चापुरकर, चितळे, पेठकर, पाटकर, लेटकर, लाटकर, जावळेकर, हेड़गेवार आदि तो दूध को दुध पढ़ना-सुनना, जिलेबी को जिलबी कहना-सुनना, टिफीन को डब्‍बा बोलना, स्‍कूल को शाला, छुट्टी को सुट्टी कहना, कई नाम जैसे अपूर्व को अपूर्वा, आदित्‍य को आदित्‍या, सुगंध को सुगंधा बोलना, गंदा को घाण्‍ड आदि कहना, सुनने में अजीब और अटपटा सा लग रहा था. साथ ही, किसी के पति को अमचे / त्‍येंचे मिस्‍टर कहकर मिलाना बुरी तरह खटक रहा था जैसे अच्‍छे खाने में जले बघार की तरह. गनिमत लगा कि हमारे साढ़ू साहब का सरनेम ओक है.  लगा कि कोई जानकार (भाषाविज्ञ तटस्‍थ दृष्‍टि रखने वाला) इन बातों पर ध्‍यान क्‍यों नहीं देते. वैसे घर में सुधार अभियान कई बार चलाकर कोशिश की पर मराठी के अगाध प्रेम के कारण श्रीमती जी में ठाकरे बन्‍धु अभियान शुरू करते ही अवतरित हो जाते हैं फिर तेरी भी चुप और मेरी भी चुप.

प्रसंगवश विषयान्‍तर हो गया. इस बीच स्‍टेशन से जैसे ही घर पहुँचे, स्‍वागत के लिए दो शेरदार कुत्‍ते स्‍वागत के लिए पिंजरे से ताड़ रहे थे. बेटी और मैंने डरकर हाथ लगाया और कुछ ही मिनटों में वे सूँघने-चाटने लगे. एकदम तगड़े और बोलते चेहरे वाले जानवर. अजीत जी के तो सर तक उनके हाथ-मुँह जा रहे थे और वे उन्‍हें लाड़ करने पर बाध्‍य कर रहे थे. मैं तो रिश्‍तेदारों को छोड़ कुत्‍ते देखने में ही खो गया था. इनके नाम भी राजा-रानी. वैसे मैंने देखा है कि अधिकतर मराठी भाषी मॉं-बाप अपनी बेटियेां को राणी (रानी) कहकर ही बुलाते हैं. बेटियों के लिए राणी शब्‍द मराठी समाज का एक यूनिवर्सल संबोधन है. इससे अन्‍यों की बेटी को भी बिना नाम बुलाना आसान हो जाता है. सब एकसा क्‍यूं बुलाते हैं यह महाराष्‍ट्रीयन समाज में देखा-देखी से फैली भाषा-संस्‍कृति की एक मिसाल है. इस बीच फ्रेश हुए और सब खाने बैठ गए. बड़े-छोटे सब नीचे बैठकर ही खाए. नरम-मुलायम रोटी और दाल, आलू-शिमला मीर्च की सब्‍जी. काम बेझिझक निपट गया. वैसे पेट ठूँसकर भर चुका था. लेकिन रिश्‍तेदारी में खाना जरूरी था. फिर पहली बार हो तो और भी जरूरी.

खैर, लब्‍बो-लुआब ये रहा कि शुक्रवार खाने के साथ बातचीत और थकावट के बाद देरी से सोने में कट गया. सुबह उठे. तैयार हुए और श्रीमती जी ने बताया कि यहॉं से तुलजापुर नजदीक है और अजीत ने कहा कि 3-4 घण्‍टे में जाकर-आ सकते हैं तो हम निकल पड़े. पेट में उपमे का नाश्‍ता जा चुका था. साथ में बेटी के नाम पर डिब्‍बे में कुछ रख भी लिया गया था. मॉं तुलजाभवानी हमारी कुलदेवी है सो दर्शन करने ही थे. मन्‍दिर पहुँचकर बड़े आराम से घण्‍टे भर में दर्शन हो गए. लौटने से पहले मुख्‍य मन्‍दिर के गर्भगृह की दीवार के ठीक पीछे एक गोलनुमा पिण्‍डरूपी पत्‍थर रखा है जिस पर मान्‍यता अनुसार हाथ रखकर की गई मनोकामना जल्‍द पूरी होने वाली हो तो पत्‍थर दाहिनी तरफ घूमता है. पिछली बार यह देखना रह गया था सो इस बार याद से देखे. मेरे हाथ रखते ही पत्‍थर तेजी से दाहिनी ओर घूमा. जो कामना कर बाहर आया उसके जल्‍द पूरी होने की संभावना से मन पुलकित हो गया. फिर पत्‍नी और बेटी ने भी यही किया. वापस शोलापुर लौट आराम किए और शाम में वहॉं लगी नुमाईश देखने की फरमाईश पर हमारे साढ़ू वहॉं ले गए. लगभग हैदराबाद जैसी नुमाइश पर अव्‍यवस्‍थित ढंग से लगाई गई. खचाखच भरी हुई. चारों तरफ धूल-मिट्टी और तिल रखने तक की जगह नहीं. बामुश्‍किल वहॉं से निकले और जिस वजह से यह गड्डा(मेला) सालाना तौर पर लगता है वहॉं गए. यह मेला सिद्धेश्‍वर स्‍वामी की जयंती पर लगाया जाता है. सिद्धेश्‍वर संत शिवभक्‍त थे जिन्‍होंने 68 शिवलिंग की स्‍थापना यहॉं की है. मुख्‍य मन्‍दिर शिवजी का है और साथ में संत सिद्धेश्‍वर का समाधि स्‍थल. इस मन्‍दिर की खास बात है कि यह लगभग 32 एकड़ में तीन ओर से फैले सरोवर में स्‍थित है. यह सरोवर 2 मीटर से लेकर लगभग 11 मीटर तक गहरा है. छोटी-मोटी बोटिंग भी लगे हाथ कर डाली. हाथ से नाव खेवने वाले के भुजदण्‍ड और उसकी फूर्ती देखते ही बनती थी.  मन्‍दिर परिसर काफी बड़ा है जिसमें मुगलकालीन कन्‍दीलों पर लगने वाले कॉंच के बुग्‍गे (लैंप डोम्‍स) लटके हुए थे. बड़ा ही सुन्‍दर है और इसके साथ प्रवेश द्वार पर मस्‍जिद भी बनी है. कारण ऐतिहासिक हैं कि यहॉं औरंगजेब और आदिलशाह का शासन रहा. इसी कारण यहॉं मुस्‍लिम समाज का भी अच्‍छा-खासा प्रतिनिधित्‍व है कन्‍नड़ और मराठी समाज के साथ. आबादी लगभग दस लाख है और यह एक बी-क्‍लास शहर है. विकास की जबरदस्‍त संभावनाओं से लबरेज है बशर्ते राजनीतिकारों को अपने चश्‍मे और झोली में यह संभावना दिखाई दे. राजनीतिक दलों की आपसी तनातनी और रस्‍साकशी जगह-जगह प्रदर्शित विशालकाय होर्डिगों और बैनरों से देखी-समझी जा सकती है. बातों-बातों में पूछ डाला कि यहॉं कौनसी चीजे मशहूर हैं तो पता चला कि शोलापुरी चादरें और चुडवा. किसी तरह घूम-फिरकर रविवार हुरडे की दावत के इंतजाम के लिए पनीर खरीदते घर पहुँचे और फिर दुकान बंद होने की घड़ी में मशहूर दुकान क्षीरसागर चादरवाले के पास जा पहुँचे जो निर्माता - निर्यातक हैं अपने डबल एलिफेण्‍ट वाली चादरों व अन्‍य चीज़ों के. चादरें देखी. दिलकश और टची. दो-तीन खरीद डाली. घर आकर बताई जो सबको पसन्‍द आयीं. श्रीमती जी ने अगले दिन जाकर कुछ और खरीदने की फरमाइश की तो अगले दिन भी पहुँच गए और मन-मुताबिक मनभर चादरें खरीद डालीं.

अगले दिन रविवार टनाटन होकर तैयार हो गए. अल सुबह से ही अजीत की मॉं, सास, पत्‍नी और हमारी श्रीमती जी खेत पर ले जाने के लिए पालक-पनीर की सब्‍जी और अन्‍य खान-पान की चीज़ें बनाने में लग गए. तैयार होते-होते सुना कि अजीत जी, उनकी पत्‍नी और बेटी के कुछ मित्र मिलाकर 25-30 लोग खेत पर हुरडे की दावत पर आने वाले हैं.  दो-तीन वजनदार थैलियों में सब सामान डालकर निकल पड़े. शोलापुर से बीजापुर जाने के राजमार्ग पर लगभग18 किलोमीटर दूर हुत्‍तुर नामक गॉंव में अजीत की 10 एकड़ जमीन है जो अब तक के जीवन की कमाई हुई उनकी एकमात्र सम्‍पदा है. सब लोग बाहर आए और अजीत जी ने एक टमटम (सात सीटर आटो) बात किया और 6 बड़े और 5 बच्‍चों को बिठाकर रवाना कर दिया. हैदराबाद से होने के कारण एक दिन पहले से ही मन में बेचैनी और घबराहट चल रही थी कि सेवन सीटर में बैठकर जाना असुरक्षित होगा और मेन रोड के बाद 3-4 किलोमीटर बैलगाड़ी में. मैं कार करने पर जोर दे रहा था पर अजीत जी ने मना कर दिया तो मैं मन मारकर चुप रह गया. मैं तो मोटर साइकिल पर चला गया लेकिन सबके खेत तक सुरक्षित पहुँचने तक मेरी जान में जान नहीं थी.

खेत देखा तो तबियत हरी हो गई. लगभग 5 एकड़ में मौज के 5000 झाड़. बाकी में जवारी. गेहूँ, तुवरदाल, देढ़़ लाख रेशम के कीड़े और उनकी खादगी के लिए शहतूत के पेड़. 40 फीट लंबी,चौड़ी और गहरी बौड़ी तथा दो बोरवेल. बड़ी सधी हुई व्‍यवस्‍थित और बायो-एग्रीकल्‍चर खेती का नमूना देख दिल खुश हो गया. अपने बचपन के दिन याद आ गए जब पिताजी के साथ अपने खेत जाया करता था. कई बातें और यादें ऑंखों के सामने दृश्‍य बनकर छा रही थीं. अजीत जी में भी खेती की वैसी ही दिवानगी देखी जैसे पिताजी में थी. बन्‍दगी के हद की दिवानगी. तीन-चार अलग-अलग शिफ्टों में रेल्‍वे रिजर्वेशन काउण्‍टर या पूछताछ अथवा चार्टिंग की नौकरी करना और रोज समय-असमय खेत जाना और काम देखना. खेती की पढ़ाई करना. एक मिसाल सामने थी मेरी. कहा जाता है life is a great balancer.  फिर आज अपने सामने एक बड़ी लकीर अजीत ने खीच रखी थी. मेहनत, साहस और लगाव का बेमिसाल जस्‍बा. दिल से लाखों दुआएं उनके लिए निकलीं. रास्‍ते में और बात करते-करते पूछा तो पता चला कि घर पर वे 20-22 बरस नर्सरी चला चुके हैं. घर में 350 नमूने के गुलाबों का बगीचा था. 20-22 गाय-भैंस और रोज 250 लीटर के करीब दूध का कारोबार. यह सब देख-सुन अजीत के प्रति और भी आदर बढ़ गया था. बार-बार एक गीत याद आ रहा था 'हम मेहनतकश्‍त इस दुनिया से सब अपना हिस्‍सा मॉंगेंगे, एक बाग नहीं, एक खेत नहीं हम सारी दुनिया मॉंगेंगे'. अजीत का और कोई शौक नहीं. केवल अनुशासित ढंग से नौकरी करना और विभिन्‍न तरह की खेती के तरीकों के बारे में पढ़ना व खेती करना. उन्‍हें पहले से ही नौकरी का शौक नहीं रहा. राष्‍ट्रीय स्‍तर के हॉकी खिलाड़ी रहने, भारतीय टीम में चुने जाने की बदौलत रेल्‍वे में पिताजी के लोको इन्‍सपेक्‍टर रहते दो बार मौका भी आया पर मना कर दिया. लेकिन, भाग्‍य पिताजी के अकस्‍मात चले जाने के कारण वहीं ले आया और अब वे दोहरी जिम्‍मेदारी पूरे समर्पण से निबाह रहे हैं.

खैर, इस बीच पूरे खेत का जायजा ले लिया गया और वहॉं देखा कि सिगड़ी पर जवारी की गरम-गरम रोटियॉं बन रही हैं. एक छोटी लगभग दस सालाना बच्‍ची भी थाप-थापकर रोटी बना रही थी. सोंधी-सोंधी खुशबू से खाने का मन कर रहा था. घर पर तो पोहे भरपेट खाकर निकले थे. बड़े ही मुलायम और स्‍वादिष्‍ट पोहों का नाश्‍ता हुआ था इसलिए थोड़ा रुक गया. इस बीच दूसरे मेहमान भी आने लगे थे. हुरडे के लिए शिवा (खेत पर काम करने वाला) तैयारी करता दिखा. पेड़ों की छॉंव में एक गड्डा खोदा गया. कुछ उपलियॉं जलायी गयीं. एक टब में शिवा जाकर जवारी के एकदम कौंले भुट्टे लेकर आया. सभी महिलाएं, बच्‍चे और अजीत के दोस्‍त चंदू तपाड़िया और उनके साथी बैठ गए. सबके सामने पत्‍तलों में भूनकर नमक लगाई हुई फल्‍ली, लाल मिर्च मिलाकर बनायी गयी फल्‍ली की ही सूखी चटनी, गुड़ परोसा गया. साथ में हिदायत थी कि हुरडा खाकर पानी नहीं पीना है. छॉंछ पीना है. प्‍लास्‍टिक से बने गिलास रखे गये और उसमें बटलोई (छोटा घड़ा) से निकालकर छॉंछी भरी गयी.  अब शिवा बैठ चुका था. उपलियों की ऑंच बुझ चुकी थी. गरम-गरम उपलियों की राख के नीचे दबी-सुलगी आग में जवारी के कौंले भुट्टे रखे गये. अजीत भी शिवा के सामने बैठ गए. हर आधे मिनट में एक-एक भुट्टा डंडी के साथ सेंककर शिवा अजीत को देता गया और अजीत जी गरम-गरम भुट्टे को हाथों से मलकर उसके दाने निकालते गये. हमारी साली साहिबा सभी को बारी-बारी से सोंधी-सोंधी खुशबू में सने हरे-सुनहरे भुट्टे के दाने खाने के लिए परोसने लगी. मुझे जैसे ही मिले. एक मुट्ठी दाने मैंने मुँह में डालकर चबाये. चबाते ही मुँह से निकला वाह! क्‍या स्‍वाद है. सोंधे-सोंधे मीठे-मुलायम दाने ऐसा लगा मानो हरे-भरे मोतियों के दाने हों. क्‍या महक और क्‍या स्‍वाद. मैं अजीत जी को कहने से नहीं रोक पाया अद्भुत। एक दम दिव्‍य अनुभव. दुआ निकली कि आपका खेत यूँ ही सदा हरा-भरा रहे. उनके हाथ अब तक गरमा गरम भु्ट्टे मसलकर  काले-लाल हो चुके थे पर माथे पर शिकन की जगह चेहरे पर खातिरदारी और खिलाने का संतोष झलक रहा था. ऐसे भुट्टे के दाने मैंने कभी नहीं खाए. पेटभर छक कर हुरडा खाता गया. छॉंछ भी एकदम लजीज. पीसी हरी मीर्च,  गुड़ मिलाकर बनायी भुने जीरे के स्‍वाद से पटी मक्‍खनदार छॉंछ गटागट पेट में उतरती गयी. बीच-बीच में सबके साथ मैं भी साबित फल्‍ली और फल्‍ली की चटनी खा रहा था. खेत में बैठकर पेड़ों की छॉंव में यूँ इस तरह खाने का ये पहला मौका था. बच्‍चे फुल खुश थे. पेड-पौधों के बीच में छिपना-भागना चल रहा था. एक कुतिया, उसका उछल-कूद करता बच्‍चा और एक छोटी बिल्‍ली और दो बैल भी हम सबको देखकर लगा कि खुश हैं और सबके लाड़-प्यार की उम्‍मीद से पास-पास आ रहे थे.

इस बीच अजीत के एक और दोस्‍त डॉ मुकुंद रे परिवार के साथ आ गए. बैठे तो कुछ देर बाद परिचय हुआ. एम डी रूमेटोलॉजिस्‍ट हैं. शोलापुर, कोल्‍हापुर और पुने में प्रैक्‍टिस करते हैं. संयोग से उनकी पढ़ाई का कुछ हिस्‍सा निजाम इंस्‍टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइन्‍सेस में बीता था तो हैदराबाद और यहॉं की मशहूर डाक्‍टर बिरादरी से परिचित थे. कुछ पहचान के कॉमन डाक्‍टर भी आपस में निकल आए. हुरडा खाते-खाते एक बात उन्‍होंने बतायी कि हुरडे को उत्‍तर भारत में होरहा (याने जो अभी पूरा नहीं हुआ है तैयार हो रहा है) कहते हैं. जैसे ही उन्‍होंने ये बात कही मेरी इतने दिनों से चली आ रही बेचैनी शांत हो गइ्र और हुरडा किसे कहते हैं पता चल गया. वे पंजाब का भी हुरडा खा चुके थे. सो उन्‍हें पता था. अब हुरडे का स्‍वाद और भी बढ़ गया. गपशप बढ़ती चली गयी. अजीत जी ने एक दिन पहले ही अपने बारे में कहते हुए बताया कि वे इतने सरल रहने का राज उनक खिलाड़ी होना है क्‍योंकि खेल आदमी को हमेशा जमीन पर रहना सीखाता है. हवा में उड़ने वाले को कोई-न-कोई खिलाड़ी जमीन पर ला ही देता है. दूसरी बात डा मुकुंद ने हुरडा क्‍या होता है बताया तो ये बातें सीखकर मजा आ गया. लगे हाथ श्रीमती जी के साथ हो रही बातचीत सुनकर मुकुंद जी ने मेरे द्वारा भारतीय क्रिकेट और धोनी के हाल पर दिए गए कथन को कोट करते हुए कहा कि  'पीक पर रहकर विथड्रा करने आना चाहिए' ये बात आपने पते की कही है और जब हुरडे से पेट भर गया तो उन्‍होंने कहा मैं अब विथड्रा कर रहा हूँ वरना नुकसान हो जाएगा. गपशप चलती रही. उन्‍होंने बताया इतने बड़े देश में लगभग 500 रुमेटॉलॉजिस्‍ट ही हैं. सुनकर आश्‍चर्य हुआ. अजीत जी ने बताया कि डाक्‍टर रे के हाथ में तासीर है और अच्‍छा इलाज करते हैं. उन्‍हें देखकर भी लगने लगा था कि ब्राइट डाक्‍टर हैं. बाद में उनकी पत्‍नी ने देखा और इमली के झाड़ पर लगी इमलियों की ओर इशारा किया तो मुकुंद जी, उनके फिजियोथेरेपी पढ़ रहे लड़के और मेरा बचपना कुलाछें मारने लगा. हम तीनों इमली तोड़ने में लग गये. पानी के बहाव के लिए खुदी छोटी नहर के ऊपर नीम का पेड़, उस पर लटकती बड़ी-बड़ी इमलियॉं. एक-एक कर तोड़ने लगे. मुकुंद और उनका लड़का तो पेड़ पर चढ़ गये और मैं अपनी लंबाई के बल पर ही हाथ में आयी इमलियॉं तोड़ता रहा. देखा कि डाक्‍टर रे की फूर्ती गजब की है. बाद पता चला कि वे रोज 15 किलोमीटर साइकल चलाते हैं व योगासन और न जाने क्‍या-क्‍या करते हैं. बहरहाल बेटे से ज्‍यादा बाप को फिट देख अपने पर शरम छा गयी. हुरडा, फल्‍ली, इमली और चार बजते-बजते खाने की तैयारी हो गयी.  वैसे जगह तो नहीं थी पर खाना तय था. खाने बैठे. नरमानरम जवारी की रोटी, पालक-पनीर की सब्‍जी, फल्‍ली की चटनी, छॉंछ सट-सट कर अंदर चली गयीं. हुरडा खाकर मैंने अजीत जी को अद्भुत कहा तो पालक-पनीर की सब्‍जी खाकर लाजवाब. क्‍या स्‍वादिष्‍ट सब्‍जी. एकदम बैलेन्‍स. पनीर भी बादामी रंग में सेंक कर डाला गया. स्‍पांजी और खाने में खुस-खुसा. इसके बाद बगारे चॉंवल परोसे गये. शिवा की पत्‍नी ने शायद बनाये थे. लज्‍जददार खाना. मैंने डाक्‍टर साहब के साथ हाथ में कुछ खाने के पैकेट भी देखे थे. सो पूछ डाला. फिर कोल्‍हापुरी चुडवे का पैकेट भी खुल गया और इसके साथ खाने में और जान आ गयी. आखिर में छॉंछ पीकर फुलस्‍टाप लगा दिया. ये हाल हो गया कि उठ नहीं पा रहे थे. जी भर खाए. कुदरत की गोद में बैठने से खाने की कुव्‍वत दो गुना हो गयी थी. उठे और रीढ सीधी किए. अब न बोला जा रहा था न खड़ा. गो-शाला से सटे चबूतरे पे मैं और डाक्‍टर बैठ गए और ये देखना भी भूल गए कि वह गेरू से रंगा था. बाद में देखे कि गेरू दोनों की जीन्‍स पैंट के पीछे पुत चुका है. अपने पैंट झटकने में भी तकलीफ हो रही थी. इतनी देर में डाक्‍टर साहब के फोन का रिंग टोन सुना तो शोले की मशहूर माउथ आर्गन पर बनायी गयी धुन थी जो अमिताभ कई बार फिल्‍म में बजाते हैं. रहा नहीं गया तो ट्यून ट्रान्‍सफर करा लिया. इस बीच वे बोले माउथ आर्गन साथ नहीं है वरना लाइव ही रिकार्ड करा देता था. याने वे ये बजाना जानते हैं. और अगली बार के लिए इसे ड्यू रखा. डॉक्‍टर साहब बच्‍चे को पूना भेजने की जल्‍दी में थे सो चले गये और मैं वही बिछी हुई नेट पर लेट गया. अजीत भी बैठ गए और पूछकर चाय बनवायी. चाय पीये और 5.30 बजे के लगभग निकल पड़े क्‍योंकि आकर रात 10.30 की गाड़ी से रवाना होना था और उससे पहले जाकर चादरें खरीदना था. आटो वाला भी आ गया और सबको बिठाकर हम निकल पड़े.

रास्‍ते में एक और डाक्‍टर ने अपने खेत पर अजीत जी से खेती पर राय लेने उन्‍हें बुलाया था सो जाना पड़ा. वहॉं भी हुरडे की दावत चल रही थी और चंदू सेठ यहॉं भी मौजूद थे. माहेश्‍वरी मारवाड़ी होने के नाते खाने-पीने की तबीयत के थे. दोपहर में हमारे साथ तो शाम यहॉं जमे हुए थे. बड़े खुले दिल के समाज में उठने-बैठने वाले व्‍यक्‍ति. जोर-जबरदस्‍ती कर वहॉं के भी हुरडे का स्‍वाद करा दिया. लेकिन दिल को लगा कि अजीत जी के खेत के हुरडे की बात कुछ और थी. वहॉं से लगभग घण्‍टे भर बाद निकल कर घर आए और सब बड़ों ने कैसा लगा कहा तो एक ही बात कह सका. शब्‍दों में बयां करना मुश्‍किल है हैदराबाद जाकर लिखकर ही भेजूँगा. बातों - बातों में फिर खाने की बात कही तो तौबा-तौबा कर दिया. वरना स्‍टेशन नहीं दवाखाने जाना पड़ता. फौरन श्रीमती को लेकर हम सब चादरें खरीदने गए और एकदम थोक में चादरें खरीद डालीं. श्रीमती जी और दुकानदार दोनों की चॉंदी हो गयी और अपना क्रेडिट कार्ड तो नरम पड़ गया. लाए और घर में दिखाकर शोलापुर की एक और खास चीज गन्‍ने का रस पीने गए. घर के पास में दुकान थी. वाह!  क्‍या रस था. एक बड़ा गिलास शरबत एक साथ गटक गया. अदरक, नीबू और बिना पानी मिला मीठा शरबत पीकर तबियत बाग-बाग हो गई. आखिर में सबसे विदा लेकर स्‍टेशन चल पड़े. मना करने पर भी अजीत जी और उनकी पत्‍नी स्‍टेशन तक छोड़ने आए.  रात 10.30 की गाड़ी 11.15 को आयी और ठसाठस भरी ट्रेन में सफर कर सुबह यहॉं पहुँच गए लेकिन रास्‍ते भर ट्रेन में दो दिनों की रील घूमती रही. लगा कि शहरी जीवन और एक छोटी जगह के लोगों के जीवन में कितना अन्‍तर है. लगा ऐसे ही और इन्‍हीं लोगों की मदद से शायद हमें दैनिक जीवन की कई चीज़ें सुलभ हो पा रही हैं. हमारे आराम में इनका कष्‍ट कभी दिखायी नहीं देता. इन्‍हें देखकर एक बात और भी लगी कि केवल इंजीनियरिंग, डॉक्‍टरी या एम बी ए ही पढ़ना पहला और आखरी लक्ष्‍य नहीं हो सकता. ये नौजवानों को समझना चाहिए. कई और विकल्‍प हैं और बेहतर विकल्‍प हैं. ईश्‍वर करे इस तरह मेहनत करने वाले सदा सुखी और खुशहाल रहें.  सभी को हुरडा खाने का मौका मिले इसी कामना के साथ अद्भुत अनुभव बयां करना रोकता हूँ.














होमनिधि शर्मा 

Sunday, January 1, 2012

नव वर्ष मंगलमय हो !


नव वर्ष मंगलमय हो..  

स्वागत सब मिलकर करें, नए साल का आज
हिम्मत साहस से बढें, सुलझ जाएं सब काज|

नया नया विश्वास हो, नया नया संवाद
नयी नयी हो भावना, नया नया आह्लाद|

घर घर में जलते रहें, नेह भाव के दीप
प्रेमभाव की मुक्तिका, निपजे मन के सीप|

सपनों को अपना करें, बोकर श्रम के बीज
श्रम सीकर को बांधकर, बने नया ताबीज|

नए साल की मंगलकामनाओं सहित,
होमनिधि शर्मा

साभार : गिरिजाशरण अग्रवाल जी द्वारा प्रेषित पंक्‍तियां