Wednesday, January 22, 2014

हीरक दीवस और हुरडे की दावत (दूसरा भाग)


दूसरे दिन सभी लोग छ: बजे के आस-पास ही उठ गये. मन में सवाल आया कि इतने लोग और हाजत हुई तो नंबर कब आयेगा. खैर, जैसे-तैसे सब कामों से निपटकर हम तैयार होने लगे. इस बीच चाय आयी और अशोक और उनके ससुर जी ने उत्‍तर और दक्षिण के शर्मा व सर्मा की बात छेड़ दी. कल रात में कारगील युद्ध रचने पर जे एन दीक्षित द्वारा लिखी किताबों में आये ब्‍योरे पर लंबी चर्चा हो चुकी थी. चर्चा से मुत्‍तासीर अशोक ने आदि देव-पुरूष, ऋषि-मुनि, वर्ण, जाति व समाज की संरचना के बारे में चर्चा की. चर्चा के बाद अशोक के ससुर जी से भी बात हुई. वे पेशे से मेकानिकल इंजीनियर रहे और सात साल पहले रिटायर होने तक किरलोस्‍कर पम्‍पस के लिए काम किया. वे अपने काम की थोड़ी-बहुत जानकारी पिछली रात ही दे चुके थे जिसका कुछ और विस्‍तार आज कर दिया. उनकी विशेषज्ञता पम्‍प्स की क्रिटीकल टेक्नॉलॉजी विकसित करने की रही जो परमाणु बिजली उत्‍पादन, इसरो के उपग्रह संबंधी परीक्षणों व अन्‍य बिजली उत्‍पादित करने वाले भारी सयंत्रों से जुड़ी है. उन्‍होंने खास तौर पर बताया कि किस तरह देश में पहली बार सोडियम को द्रव्‍य रूप में रखने वाले परमाणु बिजली फास्‍ट ब्रिडर के लिए 42 करोड़ की लागत से तीन पंप तैयार किये गये. उनकी बातें सुनकर उनके प्रति गौरव और बढ़ गया. वे भी कर्मशील, कुछ कर-गुजरने की भावना रखनेवाले व्‍यक्‍ति लगे. अब भी कई देशी-विदेशी कंपनियों में एडवाइज़र के रूप में वे कार्यरत हैं. मन कह रहा था कि नहीं आते तो कितना-कुछ मिस हो जाता. इतने लोगों से मिलना, इतनी जानकारियॉं !

बीच-बीच में अंदर से तैयार होने के आदेश सुनायी देने लगे और हम तैयार हो गये. तैयार होकर नीचे गये तो पोहे और शीरे का गरम नाश्‍ता तैयार था. पोहे खाकर दस बजे तक सभी बस में बैठ गये खेत पर जाने के लिए.

बस में बच्‍चा-पार्टी ने अंत्‍याक्षरी खेलना शुरू कर दिया. 10 से 14 साल उम्र के बच्‍चों को 50, 60 और सत्‍तर के दशक के हिट गीत सही बोलों के साथ गाते सुन मैं तो हैरान रह गया. आज के दौर में बड़ों को भी जो गीत याद न हो ऐसे शानदार गीतों से सजी अंत्‍याक्षरी बच्‍चे खेल रहे थे. नये गानों के अलावा लता, रफी, गीतादत्‍त, आशा, किशोर, मन्‍नाडे द्वारा गाये गीत इनसे सुन बहुत आनंद आ रहा था. कल रात के गीत और नृत्‍य के बाद आज की अंत्‍याक्षरी देख एक बात तो लगी कि महाराष्‍ट्र में अब भी बचपन, संगीत, नाटक, कला-संस्‍कृति, पढ़ने-पढ़ाने की आदत, किस्‍सागोई सब जिंदा है. पढ़ाई के अलावा यहॉं के बच्‍चे किसी न किसी क्षेत्र में अपने शौक को मॉंजते हैं और उसे परवान चढ़ाते हैं. इसी बीच खेत आ चुका था और यहॉं दुम हिलाकर खुशी इजहार करता खेत का लाड़ला कुत्‍ता व दो बैल स्‍वागत कर रहे थे.

बस से उतरकर हम खेत देखने गये. एक तरफ गन्‍ना, चना तो पीछे हरे-भरे केले और जवारी की खेती देख दिल बाग-बाग हो गया. पूरी तरह से बायो खेती. खेत देखते-देखते सबने हाथ में हरी-बूट लेकर ताजे चनों से पेट वजनदार किया. वापस आने तक खेत के रखवालों ने हुरडा खिलाने का इंतजाम कर दिया था.

सभी लोग तीन-चार समूह में हुरडा खाने बैठ गये. अजीत जी, उनके बहनोई, दोस्‍त और चचेरे भाई ने सबको कौला भुना जवारी का हुरडा खिलाना शुरू किया. हुरडे के साथ भुनी और छिली नमकीन फल्‍ली, फल्‍ली की लालमीर्च से बनी सूखी चटनी और गुड़ परोसा गया ताकि हुरड़े के साथ ये सब मुँह लगाया जा सके. चटनी देख रहा नहीं गया तो थोड़ी सी चख ली. मुँह में रखते ही ऑंखों में पानी भर आया. बस हाथ झटकना और चिल्‍लाना बाकी था, इतनी तेज़ थी फल्‍ली की सूखी चटनी. बच्‍चों का खाना होने के बाद हम पॉंच-छह लोग हुरडे के करीब बैठ गये और गरम-गरम भुना और हाथ से घिस साफ किया हुरडा दिया जाने लगा. क्‍या गज़ब का स्‍वाद कह नहीं सकता. एक दम मुलायम, मीठे हुरडे के हरे मोतीयों से दाने. बीच-बीच में चटनी, भुनी फल्‍ली और भुनी प्‍याज स्‍वाद को और चटखदार बना रहे थे. पेट घट होने तक हुरडा खाना हुआ और रसीली बातों का सिलसिला अनवरत चलता रहा. हँसना, खाना और बोलना लगातार. इसे खाकर पानी नहीं पीया जाता इसलिए अदरक घसकर, नमक और जीरे पाउडर के साथ मिलायी गयी गाय के असली दूध से बने दही की छॉंछ परोसी गयी. तीन 20-20 लीटर की क्‍यान में छॉंछ थी. पहली ही बार में एक क्‍यान खत्‍म हो गयी. जो भी मुँह से गिलास लगाता तुरंत फिर भरने के लिए आगे कर देता. सभी ने छक कर छॉंछ पी. इतना खाकर दिमाग सुंद और ऑंखे मुँद रही थीं. सब इधर-उधर पसरने की जगह ढूँढ रहे थे. अधिकतर मर्द एक-एक कर पसर गये. मैं भी लगभग आधा घण्‍टा झाडों के साये में बहती बयार के बीच लेट लिया. लगा कि ज़मीन की गोद में खाकर लेटने पर ऐसा आराम मिलता है तो यहॉं खेत जोतकर कैसी नींद आती होगी. निश्‍चित ही अंबानी से ज्‍यादा सुकून की नींद किसान सोता होगा.  

अजीत जी ने तीन बजे खाने का समय बता दिया था पर किसी के पेट में इतनी जगह थी नहीं की और खाना खा सके. सबने पेट हल्‍के करने के तरीके तलाश लिये. मैं भी अशोक के ससुर जी के साथ खेत से दूर एक-दो किलोमीटर निकल लिया. रास्‍ते में अशोक के ससुर जी ने और भी बारिकी से अपने कामकाज के खास अनुभव सुनाये. इस बीच हेमन्‍त जी भी हमारे साथ जुड़ गये. लगभग घण्‍टा भर गुजारकर हम वापस खेत पर लौट आये तो खाना तैयार था. जवारी की कड़क व नरम रोटी, बैंगन की रसेदार सब्‍जी, बगारे चॉंवल और गेहूँ की गुड़ से बनी खीर. भूख तो नहीं थी पर खाना देख रोक नहीं पाया और खीर छोड़ बाकी मेनू चट कर गये. खाना धूम थ्री था. सबने खाने का दनका दिया और टुन्‍न हो गये. फिर छॉंछ की बारी थी. एक आखिरी बची क्‍यान भी एक-एक कर सबने खाली कर दी. मजा आ गया ! हालत ऐसी कि पेट भारी होने से मुँह से बात आना मुश्‍किल. फिर लेट लिये और इधर-उधर कर अजगर की तरह खाना पेट में बिठाने लगे. ऐसा भी लगा कि कहीं इतने खाने के बाद आ जाए तो ! गए समझो. राम-राखे कुछ नहीं हुआ. सबका खाना होने तक बस वापस आ गयी थी. इसी बीच निकलते समय हेमन्‍त जी ने अपने नये फोन से चन्‍द उनके और मेरे यादगार फोटो लिये जो अभी आने हैं. भीतर हाथ धोने गए तो अजीत जी गाय का दूध निचोड़ रहे थे. एक देगची में पौन भरते ही उन्‍होंने हेमन्‍त जी से पीने के लिए कहा. हेमन्‍त जी मान भी गये और स्‍वाद चखा. उन्‍हें देख मैं भी चखने से रोक नहीं पाया. पहली बार ऐसे कच्‍चा ताजा गाय का दूध पीने का मौका मिला. यदि हुरडा मीठा तो दूध उससे भी मीठा और मस्‍त. पेट में जगह नहीं थी वरन् देगची खाली हो जाती.

सब बस में बैठ गये और टाटा-बाय-बाय करते निकल पड़े. मैं तो अजीत और अलका व उनकी मॉं को लख-लख दुआऍं दे रहा था कि क्‍या लोग हैं जो इतने लोगों को खुद मेहनत कर सुख और आनंद दे रहे हैं. भगवान इन्‍हें अच्‍छा रखे.

बस में बैठते ही बच्‍चा पार्टी ने फिर अंत्‍याक्षरी शुरू कर दी. इस बार तो दो दल बन गये. हमारा एक दल तो बच्‍चों का एक. गानों से सब बच्‍चे हो गये थे. हर तरह के गाने गाये और घर आने तक यह मौज-मस्‍ती चलती रही. सबकी ऑंखों में खुशी और चेहरों पर उल्‍लास दमक रहा था. ऐसा लगा बहुत जल्‍द यह पिकनिक खत्‍म हो गयी.

हम बस से उतरे तो सामने टोयोटा की लिवा कार खड़ी थी. हमारे मौसा ससुर ने नासिक से फोन पर बताया कि शर्मा जी हमने दूसरी नयी गाड़ी खरीदी है, देखकर बताना कैसी है. हमें संयोग से मॉं तुलजाभवानी के दर्शन करने उस्‍मानाबाद जिले जाना था. हम तीनों और सुचित्रा (मौसेरी साली) को लेकर विकी के साथ तुलजापुर निकल पड़े. लगभग 45 किलोमीटर की दूरी पर यह मंदिर स्‍थित है. सुबह ही दर्शन करने की इच्‍छा थी पर समय की कमी के चलते शाम में जाना पड़ा. साढ़े सात बजे वहॉं पहुँचकर विशेष दर्शन की लाइन में लगे तो आधे घण्‍टे में मॉं के एकदम नज़दीक से दर्शन कर बाहर लौट आये. यहीं पर मंदिर की दीवार से सटा चिंतामणि पत्‍थर है जहॉं मनोकामना कर हाथ रखने पर यह अपने-आप दाहिनी ओर घूम जाता है. याने कामना पूरी होगी. यदि बॉंए घूमे तो पूरी नहीं होगी. और, यदि यह स्‍थिर रहे तो काम में देरी के योग का पता चलता है. कहते हैं कि शिवाजी महाराज यहीं आकर अपनी कामनाओं के पूरा होने का पता लगाते थे. हमने भी इसका लाभ उठाया.

इस तरह दर्शन कर हम सब रात 9.30 बजे तक लौट आये और बिना कुछ पेट को ओर तकलीफ दिये कुछ ही देर में एक-एककर बात करते-करते लंबे होते गये. हेमन्‍त जी भी बस से हैदराबाद के लिये रवाना हो चले थे और हमें सुबह निकलना था.

सभी सुबह उठे और तुरत-फुरत तैयार होकर 8.30 बजे तक निकल पड़े. अशोक को हमारे बाद जाना था और उनके ससुर जी अलसुबह ही पूना के लिए चल पड़े थे. विदाई दुखभरी होती है. इतने लोगों के बीच इतने प्‍यार से कटे समय की गठरी और यादों की पोटली लेकर सामान के वजन के साथ हम भी हैदराबाद लौट आये. वापसी में सभी गेट के बाहर छोड़ने आये तो उनके और हमारी ऑंखों में दूर जाने का ग़म फिर मिलने की उम्‍मीद के साथ दिखायी दे रहा था. यही तो करीब रिश्‍तों के दूर रहने पर होता भी है. बस! तो अगली बार तक के लिए अलविदा.  (समाप्‍त).


Tuesday, January 21, 2014

हीरक जन्‍म दिवस और हुरडे की दावत


पिछले दो सालों की तरह इस साल के शुरू में ही हमारे ममेरे साढ़ू श्री अजीत का
शोलापुर से हुरडा खाने आने का निमंत्रण आया. निमंत्रण का इंतजार तो था ही, सो इसके मिलते ही हम इंतजाम और इंतजार में लग गये. 16 जनवरी को साली-साढ़ू के साथ मेरा परिवार शोलापुर के लिए चल पड़ा. साथ मुझे भी जाना था पर, ऑफिस में एक संसदीय समिति के दौरे के कारण नहीं जा पाया. साथ यात्रा करने का आनंद तो खोया ही और मुझे अलग से 17 तारीख को दौड़-भाग कर बस से जाना पड़ा. करीब सवा तीन सौ किलोमीटर की यात्रा में पूरे नौ घण्‍टे लगे. सभी 16 तारीख को आराम से पहुँच गये थे पर मुझे पोस्‍ट मार्डनिज्‍म़ काल में इंजन वाली टमटम और बदहाल सड़क का सफ़र करना पड़ा. रास्‍ते में जिन-जिन जगहों पर बस रुकी, गंदगी, बदइंतज़ामी का नज़ारा था. कहीं पर साफ-सुथरी चाय भी नहीं मिल पायी. ढाबों पर बंद पानी की बोतल 3 से पॉंच रुपये ज्‍यादा देकर यात्री खरीदने पर मजबूर हो रहे थे. ज़हीराबाद के सरदार जी के ढाबे के बाहर दुकानवाले ने बताया कि यहॉं सभी जगह ऐसे ही दामों पर चीज़ें बिकती हैं, जिसको जो करना हो वो कर ले. अचानक आप और अरविंद केजरीवाल और उनकी झाड़ु याद आई. अव्‍यवस्‍था और मन-मानी लूट के बाजार में उन्‍हें झाड़ू लेकर क्‍यूँ सड़क पर उतरना पड़ा यह महसूस हो रहा था.   
  
रात 9.30 के करीब अजीत जी के घर पहुँच देखा तो उनकी मॉं और हमारी मामी- सास के 75वें जन्‍मदिन का कार्यक्रम चल रहा था. दोनों बड़ों की ओर से छोटे-बड़े चालीस-पचास परिवार के लोग मिल उनके हीरक जन्‍म-दिन का उत्‍सव मना रहे थे. मैं तो सीधे ऊपर गया और ताजादम होकर सुबह के उपमे और रोटी से भूख और बेचैनी शांत की. बाद नीचे जाकर कार्यक्रम में शामिल हो गया. मेरे लिये यह पहला मौका था किसी के 75 वें जन्‍मदिन पर शामिल होने का. नातिन-पोतीयों और नज़दिकी सगे-संबंधियों ने दोनों के साथ जुड़े अपने-अपने अनुभव एक-एक कर सुनाये. इन बड़ों से क्‍या सीखा और इनके जीवन की चर्चा कर रहे थे. बच्‍चों ने गीत गाये और नृत्‍य प्रस्‍तुत किया. अजीत जी की बेटी अपूर्वा को गाते और नाचते देख खुशी हुई. अपूर्वा की मॉं अलका ने मोहे पनघट पर नंदलाल छेड़ गयो रे गीत गाया और अपूर्वा ने उस पर नृत्‍य प्रसतुत किया. इनके बाद अलका के मामा ने दो भजन सुनाये. बाद पता चला वे भी अपने शौक और अभ्‍यास से गाते हैं. इनके साथ-साथ ही भेलपूरी बनने की सुगंध आ रही थी. कुछ ही देर में परोसे जाने लगी. अजीत जी ने कहा कि सुबह के दमदार खाने के बाद रात भेल और श्रीखण्‍ड पर ही कटनी है अत: भर-पूर भेल खायी जाए. सभी ने जमकर खायी. मैं केवल श्रीखण्‍ड खाकर तृत्‍प हो गया. बचपन में हैदराबाद के सुलतान बाजार स्‍थित रामभरोसे के पास पिताजी ले जाकर श्रीखण्‍ड और अन्‍य गुजराती चीज़ें खिलाया करते थे. रामभरोसे की दुकान में जाते ही दूध से बनी चीज़ों की सुगंध के साथ केसरयुक्‍त श्रीखण्‍ड खाने का जैसा स्‍वादानंद दिलो-दिमाग़ में बसा था वह अजीत जी के घर गाय के असली दूध से बने श्रीखण्‍ड को खाकर ताजा हो आया. गज़ब का स्‍वाद और खट-मिट मिठास. कार्यक्रम चलता रहा और इस बीच मेरे साढ़ू हेमंत और ममेरे साले अशोक के साथ गपशप होने लगी. देखा तो हमारी मौसी-सास और सालियॉं भी नासिक और पूना से आयी हुई थीं. उनकी भी कैफ़ियत ली.

इन सबके बीच पिछले दो सालों से हुरडा खाने के बहाने मैंने भी जो इन बड़ों के साथ महसूस किया था वह मन में आने लगा था. बयॉं तो नहीं कर पाया पर सोचा कि व्‍यक्‍त जरूर करना चाहिए. दोनों ही बज़ुर्ग महिलाओं को देख असली सेहत का अहसास होता है. आज भी दोनों स्‍वस्‍थ और ऊर्जा से भरपूर हैं. कान्‍तिमान दमकते चेहरों पर अब भी जिम्‍मेदारियों के प्रति प्रतिबद्धता का भाव स्‍पष्‍ट दिखायी देता है. अजीत जी की मॉं आज भी अलसेबेरे उठ घर के काम में लग जाती हैं. हमारी मामी-सास तो आज भी दूर-दूर तक पैदल चली जाती हैं और अकेले सफर कर लेती हैं. दोनों ही अब भी देर रात तक कामकाज में लगे रहते हैं. पिछले तीन सालों में हममें तो बहुत परिवर्तन आया है पर इन्‍हें देख लगता है कि इनके साथ समय थम गया है. दोनों ही ने जिंदगी में कई असमय तकलीफें और अकस्‍मात दुख झेले पर कभी इनके आगे वो झुकी नहीं. इनकी ईश्‍वर में आस्‍था, घर के संस्‍कार, मजबूत सोच और धैर्य ने सब विपत्‍तियों को अँगूठा दिखा दिया है. इन्‍हें देख बरबस ही ये पँक्‍तियॉं याद आयीं कि
दु:ख तुम्‍हें क्‍या तोड़ेगा, तुम दुख को तोड़ दो,
मेरी ऑंखों के सपनों से तुम, अपने सपने जोड़ दो
इन्‍हें देख लगता है कि ये सदा देने में विश्‍वास करती रही हैं न की कुछ लेने में. इन्‍होंने अपने गम और दुख छिपाकर सबको खुशी दी है. जो बात मैंने अपने मॉं-पिताजी, सास-ससुर में महसूस की, वही और वैसी इनमें भी दिखायी देती है. दिल के सच्‍चे, सादगी भरे, कहीं कोई दुराव-छलाव नहीं. दिमाग में गैर जरूरी अपेक्षाओं और लालसाओं का बोझ नहीं. शायद आज की पीढ़ी इन्‍हीं सब बातों में कम पड़ जाती है. मेरे लिये उनका यह हीरक दिवस उनके स्‍वास्‍थ्‍य और लंबी उमर की कामना के साथ सब बड़ों को याद करने का था.

कुछ समय बाद ममेरे साले अशोक, उनके मामा, साढ़ू हेमन्‍त और मैं टहलने चले गये. टहल कर लौटे तो ग्‍यारह बज चले थे. लौटने पर अजीत जी के जीजाजी से भेंट हुई. बताया कि वे टाटा मोटर्स में काम करते हैं. बातों-बातों में टाटा की कारों पर चर्चा हो गयी. एक सज्‍जन ने टाटा मान्‍जा का उदाहरण देते हुए बताया कि टाटा की गाड़ियॉं उतनी अच्‍छी नहीं होती अत: ज्‍यादा नहीं बिकती है. अपनी बात रखते हुए मैंने भी बताया कि इसके पीछे हमारी मानसिकता अधिक है. टाटा पूरी तरह देशी गाड़ी है और हम अधिकतर विदेशी गाड़ियॉं पसंद करते हैं. नौजवान तो बिलकुल भी लेना नहीं चाहते. उन्‍हें गाड़ी अच्‍छी भी हो तो लगता है कि ये किराये पर चलने वाली गाड़ीयॉं है. इतने में जीजाजी ने बताया हमारी कंपनी इसी बात का शिकार है और हम इसे दूर करने में लगे हैं. ऐसी ही गपशप करते हम ऊपर आ गये कि अब सोया जाय. इतने में हेमन्‍त जी ने बताया कि वे अशोक का गाना मिस कर गये. हमने बिस्‍तर लगाया और अशोक से गाना सुनाने की गुज़ारिश की. इस पर अशोक ने तीन सेमिक्‍लासिकल सूफी मिश्रीत गीत सुनाये. मैं आश्‍चर्य और आनंद से सुन रहा था. अशोक से पूछा तो बताया कि उसे केवल सुन-सुनकर सरगम सहित गाने का अभ्‍यास हो गया है. अक्‍सर हम करीब के लोगों को दूर से और देर से जानते हैं. अशोक के संबंध में भी मैं यही कह सकता हूँ. हम लोक अलग-अलग राज्‍यों में नौकरी करते हैं तो मौके कम ही आते हैं. अशोक में भी मैंने उनकी मॉं की तरह बात नोटिस की कि वह भी सरल स्‍वभाव का सीधा व्‍यक्‍ति है. वह जो भी करता है लगन से करता है. पता चला कि अशोक और अजीत जी की पत्‍नी अलका दोनों जुड़वॉं भाई-बहन हैं. अलका भी बहुत परिश्रमी और संगीत साधक महिला है. फोन चार्जिंग के लिए रखते हुए मेमण्‍टोज़ देखा तो अलका को भी गाने के लिए कई पुरस्‍कार मिल चुके हैं. इतने में अशोक के मामा भी जग रहे थे उनसे भी बात हुई. ज्ञात हुआ कि वे अपने समय में अधिक नहीं पढ़ पाये पर भागवत का अध्‍ययन कर प्रवचन आदि करते हैं. उनका एकमात्र शौक भारतीय शास्‍त्रीय संगीत सुनना है. इसके लिए उन्‍होंने चार दिन चलने वाली बैटरी का सैमसंग फोन खरीद अलग-अलग रागों पर आधारित अपने पंसदीदा गीत-भजन उसमें डाल रखे हैं और उन्‍हें लगातार सुनते रहते हैं. हमारे साथ अशोक के ससुर जी भी थे उनसे भी परिचय हुआ. वे भी हमारी सारी बातचीत सुन रहे थे. सोचा उनसे कल याने अगले दिन बात की जाए. इस बीच रात का एक बज चला था और हम एक-एक कर सो गये ताकि अगले दिन समय से खेत पर हुरडा खाने जा सकें.  
                                         
                                          शेष अगले भाग में ..........

Monday, January 20, 2014

फिल्‍मों के सौ साल और हिन्‍दी


भारतीय सिनेमा सौ साल का हो चुका है. 1913 में दादा साहब की मूक फिल्‍म राजा हरिशचन्‍द्र से शुरू हुआ सफर आज थ्री डी फिल्‍मों तक आ पहुँचा है. इन सौ सालों में भारतीय भाषा की फिल्‍मों ने देश और दुनिया में एक अलग जगह बनायी है. इनमें हिन्‍दी, तेलुगु, तमिल, कन्‍नड़, बंगला और मराठी भाषी फिल्‍मों और फिल्‍मकारों का योगदान विशेषकर स्‍मरणीय है.

खासकर हिन्‍दी सिनेमा ने पूरे देश को धर्म, जाति और सामाजिक मतभेदों से परे आपस में जोड़े रखने का काम किया. इतने लंबे समय में संभवत: थियेटर ही वो जगह रही जहॉं अमीर-गरीब, छोटे-बड़े, पढ़े-अनपढ़, सभी आपस में मिलते रहे. एक तरफ थियेटर में लगी फिल्‍म तो दूसरी ओर यहॉं आने वाले दर्शकों को देख, देश और समाज का हाल जाना जा सकता था. याने साहित्‍य समाज का दर्पण तो थियेटर समाज का आईना रही हैं. ये बात अलग है कि मॉल कल्‍चर और व्‍यवसायी नजरिये ने सिनेमा देखने वालों की जमात को भी बॉंट बड़े-छोटे और अमीर-ग़रीब का वर्ग भेद पैदा कर दिया है.

इन सौ सालों में फिल्‍म और फिल्‍मकारों के भी कई वर्ग बने. आरंभिक दौर याने 1913 से लेकर 1950 के बीच बनी फिल्‍मों ने विषय चुनने और इन्‍हें फिल्‍माने में प्रयोगधर्मिता अधिक अपनायी. फिल्‍मों में ऐसे विषयों को चुना जो समाज के सभी वर्ग के लोगों को थियेटर तक खींच लाए और थियेटर जाने पर लगे टैबू को दूर किया जा सके. फिल्‍म समाज के लिए नौटंकी और खेल देखने जाने का आधुनिक और उन्‍नत रूप था. निश्‍चित ही यह समय कड़ी चुनौती भरा रहा होगा कि तत्‍कालीन देश के हालात और गुलामी के साये में रहते फिल्‍म के ज़रिये मनोरंजन की बात सोची गयी. पर, अक्‍सर लीग से हटकर सोची गयी बात ही आड़े वक्‍त दिशा दे जाती है. यही हुआ भी. फिल्‍मों का आरंभिक दौर फिल्‍मकारों और दर्शकों के लिए वह सब कहने और देखने का दौर रहा जो आम तौर पर अकेला व्‍यक्‍ति, परिवार या कोई वर्ग कहने में संकोच महसूस करता था या अन्‍यान्‍य सामाजिक कारणों से खुद को रोक लेता था. 1945 में बनी और अशोक कुमार द्वारा अभिनीत फिल्‍म किस्‍मत से एंटी हीरो और अविवाहेतर संबंध जैसे समाज के दबे सच सामने आये.

इसके बाद तो 50 से 70 का दशक भारतीय सिनेमा का सुनहरा काल रहा. पृथ्‍वीराज कपूर, वी शांताराम, विमल रॉय, महबूब खान, राज कपूर, के.आसिफ जैसे दिग्‍गज फिल्‍मकारों ने देश, समाज, इतिहास, परंपरा और पारिवारिक विषयों पर एक से एक बेहतरीन फिल्‍में बनायी. यही वो दौर रहा जिसने भारतीय सिनेमा को स्‍थापित कर इसे इंडस्‍ट्री का आधार दिया. इंडस्‍ट्री स्‍थापना काल और 60 के दशक से देश के प्रतिभावान और चुनिंदा फिल्‍मकारों ने कलात्‍मक सिनेमा (रिअलिज्‍़म) की शुरूआत की. इस सिनेमा ने हिन्‍दी सिनेमा को दुनिया में एक खास जगह दिलायी. सत्‍यजीत रे, श्‍याम बेनेगल, मृणाल सेन, गोविंद निहलानी, प्रकाश झा, बसु भट्टाचार्य आदि ने एक से एक गंभीर पर समाज की सच्‍चाई जाहीर करने वाले विषयों पर फिल्‍में बनायी. इन फिल्‍मों से एक खास दर्शक वर्ग भी तैयार हुआ. आगे चलकर इनकी फिल्‍में ही फिल्‍म निर्माण और समीक्षा का पैमाना साबित हुईं.

हिन्‍दी फिल्‍मों के साथ यहॉं बंगाली, तेलुगु, तमिल और कन्‍नड़ फिल्‍मों की बात न की जाए तो भारतीय सिनेमा की गाथा अधुरी रहेगी. बंबई यदि हिन्‍दी और बंगाली फिल्‍मों का गढ़ रहा तो मद्रास तमिल और तेलुगु का. इसी दौर में तेलु्गु की सन् 1955 और 1957 में बनी कन्‍याशुल्‍कम और माया बजार जैसी फिल्‍मों ने इस भाषा के महान लेखक गुरुजाड़ा अप्‍पाराव, अभिनेता एन टी रामाराव, एस वी रंगाराव, अक्‍किनेनी नागेश्‍वर राव, निर्माता-निर्देशक कादरी वेंकट रेड्डी, संगीतकार घंटशाला, अभिनेत्री सावित्री को दक्षिण भारतीय समाज का रातों रात हीरो बना दिया. विशेषकर मायाबजार को इसकी पटकथा, संवाद लेखन, गीत-संगीत और ब्‍लैक अण्‍ड व्‍हाइट दौर की सिनेमा में तकनीकी कमाल का नमूना माना जाता है. इसी तरह 50 के दशक में तमिल में बनी पराशक्‍ति और अंधनाल फिल्‍मों ने शिवाजी गणेशन, बंगाली में सत्‍यजीत रे द्वारा बनायी गयी फिल्‍म पाथेर पॉंचाली ने भारतीय सिनेमा और इस दौर के फिल्‍म निर्माण को माइल स्‍टोन बना दिया.

यदि मुख्‍यधारा के हिन्‍दी फिल्‍म जगत के आधार और अधिरचना को अशोक कुमार, पृथ्‍वीराज कपूर, गुरूदत्‍त, दिलीप कुमार, राजकपूर, नर्गिस, वहीदा रहमान, मीना कुमारी या मधुबाला के बिना समझा नहीं जा सकता तो भारतीय सिनेमा को उक्‍त अभिनेता, लेखक, निर्माता-निर्देशक और संगीतकारों के काम को जाने बिना भी समझा नहीं जा सकता.

1950 से 70 का दशक किस्‍मत’, बरसात’, आवारा जिस देश में गंगा बहती है’, मुगले-ए-आज़म, मधुमती, लीडर, गंगा-जमूना, देवदास, बैजू-बावरा, मदर इंडिया, नया दौर, दो ऑंखे बारह हाथ, नवरंग, देवदास, बहू-बेगम, पाकीज़ा, प्‍यासा, साहिब-बीबी और गुलाम जैसी फिल्‍मों का रहा. इनमें भारतीय समाज, जन-मानस की भावनाओं और मूल्‍यों को धर्म-परंपराओं के ताने-बाने के साथ हू-ब-हू हिन्‍दुस्‍तानी ज़बान में पेश किया गया. इन फिल्‍मों के विषय चयन के मुताबिक पटकथा और संवाद लेखन का सृजन खास तौर पर किया गया जो वास्‍तव में हिन्‍दी का असली रूप है. उर्दू, अवधि, बृज, संस्‍कृत और ठेठ हिन्‍दी का ऐसा मिश्रण जिसे कहीं से थोड़ा कम या ज्‍यादा नहीं किया जा सकता. संभवत: संविधान के अनुच्‍छेद 351 में कहे अनुसार इस दौर की फिल्‍में भाषा प्रयोग की दृष्‍टि से भारतीय सामासिक संस्‍कृति की सच्‍ची मिसाल हैं.

दूसरे दौर में 1970 से 90 के दशक के आते-आते लोग फिल्‍मों को अपने जीवन का हिस्‍सा बना चुके थे. भारतीय सिनेमा पूरी तरह उद्योग में तब्‍दील हो चुका था. ईस्‍टमेन कलर के इस जमाने में फिल्‍मों के घराने, निर्माता-निर्देशकों के वर्ग, पटकथा-संवाद लेखकों के वर्ग, संगीतकारों के वर्ग बन चुके थे. यह दशक रोमांस के अलावा ऐक्‍शन थ्रिलर फिल्‍मों का ट्रेण्‍ड सेटर भी रहा. ये वही समय था जब फिल्‍मों के रोमांटिक हीरो देवानंद, राजेश खन्‍ना, शम्‍मी कपूर, शशि कपूर, राजेन्‍द्र कुमार जैसे स्‍थापित स्‍टारों का ताज एंग्री यंग मैन अमिताभ बच्‍चन, माचो मैन धर्मेन्‍द्र, विनोद खन्‍ना, शत्रुघ्‍न सिन्‍हा, फ़िरोज़ खान, मिथुन चक्रवर्ती, सन्‍नी देओल, नाना पाटेकर, अनिल कपूर आदि को हस्‍तगत हुआ. इस दौरान सलीम-जावेद, प्रकाश मेहरा और मनमोहन देसाई द्वारा रचित किरदारों को दर्शकों ने खूब सराहा. यह हॉलीवुड फिल्‍मों  के किरदारों को हिन्‍दी में लाने की शुरूआत थी जिसमें हीरोइज्‍़म और ऐक्‍शन का बेजोड़ मेल हुआ करता था. फिल्‍म में हीरो-हीरोईन के अलावा विलेन और कॉमेडियन अब अनिवार्य बन चुके थे. इस दौर ने मदन पुरी, प्राण, प्रेमनाथ, प्रेम चोपड़ा, जीवन, अजीत, डैनी, कुलभूषण खरबन्‍दा, अमरीश पुरी, अमजद खान, ओम पूरी, अनुपम खेर, रजा मुराद, परेश रावल जैसे कुछ बेहतरीन विलेन किरदार निभाने वाले अभिनेता दिये तो भगवान दादा, महमूद, जॉनी वाकर, असरानी, जगदीप, मुकरी, ओमप्रकाश और केश्‍टो मुखर्जी जैसे हास्‍य कलाकार भी. दर्शकों के लिए फिल्‍मों के माध्‍यम से सत्‍ता, समाज और व्‍यवस्‍था के खिलाफ लड़ता हीरो भाने लगा था. आज़ादी के पहले और बाद एक से ज्‍यादा युद्ध देख चुके भारतीय जनमानस में एक छटपटाहट और बेचैनी थी कि वह अपने संघर्षमय यथार्थ और वर्तमान को बदलना चाहता था. गरीबी, बेरोजगारी, भूखमरी, अशिक्षा और हर जगह घुटनेटेक जिंदगी से तंग वह जो कहना और करना चाहता था, वह सब इस दौर के किरदारों ने पर्दे पर कर दिखाया. भाषा की दृष्‍टि से पटकथा लेखन, संवाद और गीत-संगीत में भी नयापन देखा गया. विशेषकर, यह संवाद लेखन का दौर रहा. हिरोइज़्म को दर्शाने और किरदारों को मजबूती देने संवादो का सहारा लिया गया. इसी दौर में वक्‍त, दीवार, जंजीर, डॉन, शोले, शक्‍ति, शान, आनंद, सफ़र, उपकार, पूरब और पश्‍चिम, क्रान्‍ति, मिस्‍टर इंडिया, मेरी जंग, कर्मा, घायल, दामिनी, परिंदा, सलाम बाम्‍बे, प्रहार जैसी फिल्‍मों में संवादों का जोर रहा. 

इन्‍हीं फिल्‍मों के समानांतर कुछ हल्‍की-फुल्‍की तो कुछ संजीदा फिल्‍में जैसे चुपके-चुपके, गुड्डी, मौसम, ऑंधी, अभिमान, चश्‍मेबद्दूर, साथ-साथ, घरोंदा, बाज़ार, चितचोर, गोलमाल, उमराव जान जैसी फिल्‍में भी बनीं जो यादों में अभी भी अमिट हैं.

90 के दशक तक फिल्‍मों की भाषा और तकनीक में बड़ा फर्क आ चुका था. नौजवान पीढ़ी के लिए यह स्‍वच्‍छंदता का दौर रहा. पश्‍चिमी सोच-विचार और जीवन शैली का प्रभाव समाज के साथ-साथ फिल्‍मों पर भी हावी रहा. सीधी-सादी और साफ-सुथरी फिल्‍मों की जगह दूरदर्शन ने ले ली थी. फिल्‍म में जो भी दिखाया जाय पर, दूरदर्शन ने घर-परिवार और समाज को ध्‍यान में रखते हुए कार्यक्रमों का चयन किया. छोटे पर्दे पर देश, परंपरा, साहित्‍य, अध्‍यात्‍म, दर्शन सब क़ायम रहा. बुनियाद, हम लोग, तमस, सर्कस, रामायाण, महाभारत इसी समय की देन है. यही वो समय रहा जब देश में कार्टून आधारित कार्यक्रम भी बने. शायद इस समय के हिन्‍दी के मोग़ली को कोई भूल नहीं सकता.

अब तक हिन्‍दी और दक्षिणी फिल्‍मों के अलावा और भी क्षेत्रीय भाषाओं का सिनेमा स्‍थापित हो चुका था. बंगाली, मराठी, पंजाबी, भोजपूरी फिल्‍में भी खूब चलने लगी थीं. वास्‍तव में फिल्‍मों ने समाज में जातिगत, सीमागत और भाषागत भेद मिटाने का भी काम किया. कई हिन्‍दी फिल्‍में तेलुगू में बनी जैसे अमर अकबर ऐन्‍थोनी, तो कई तमिल-तेलुगू, मराठी फिल्‍में और अभिनेता हिन्‍दी में आए. कई हिन्‍दी फिल्‍में मद्रास और हैदराबाद में बनीं. इसी के चलते एस पी बाल सुब्रह्मण्‍यम जैसे गायक और कमल हासन व रजनीकांत जैसे अभिनेता देश के सामने आये. इस तरह भाषागत दृष्‍टि से हिन्‍दी के कई फिल्‍मी रूप भी प्रचलित हुए. ठेठ हिन्‍दी, पहाड़ी हिन्‍दी, बिहारी हिन्‍दी, मुंबइया हिन्‍दी, पंजाबी हिन्‍दी, बंगाली हिन्‍दी, मद्रासी हिन्‍दी, हैदराबादी हिन्‍दी. ऐसे कई क्षेत्रीय प्रयोगों से हिन्‍दी महकती गयी और मनोरंजन के माध्‍यम से देश-विदेश में स्‍वीकृत और प्रचलित होती चली गयी. फिल्‍मों का चलन भले ही फ्रान्‍स से शुरू हुआ हो पर हिन्‍दुस्‍तानी सिनेमा ने इन विविधताओं के चलते दुनिया में अपनी एक अलग जगह कायम करने में सफलता हासिल कर ली.

1990 से लेकर अब तक फिल्‍मों में और भी बदलाव आए. खास बदलाव रोमांटिक फिल्‍मों को लेकर आया. मार-धाड़ और ढिशूं-ढिशूं से दर्शक अब कुछ सीधा-सादा, घरेलू और स्‍वाभाविक मनोरंजन देखना चाहते थे. इसी दौरान बेताब के बाद क़यामत से क़यामत तक, जो जीता वही सिकंदर, आशिकी, हम हैं राही प्‍यार के, दिल है कि मानता नहीं, चॉंदनी, मैंने प्‍यार किया, हम आपके हैं कौन, दिल वाले दुल्‍हनिया ले जायेंगे, दिल तो पागल है, कुछ-कुछ होता है, हम दिल दे चुके सनम, देवदास (नयी) जैसी सुपर हिट फिल्‍में आयीं. वास्‍तव में 1960 के बाद से सभी जेनर की फिल्‍में समानान्‍तर रूप से बनती रहीं और कलात्‍मक तथा कमर्शियल सिनेमा साथ-साथ चलता रहा. फिल्‍मकारों को अपने काम पर इतना भरोसा हुआ करता था कि उनकी फिल्‍में करोड़ों की जनसंख्‍या के देश में दर्शक वर्ग अपने-आप खड़ा कर लेती थीं. पर, फिल्‍मों का ट्रेंड टिकट खिड़की याने व्‍यापार और दर्शकों की पसंद के आधार पर बनता रहा. एक तरफ कलात्‍मक सिनेमा से नसीरूद्दीन शाह, ओम पूरी, शबाना आज़मी, स्‍मिता पाटील, दीपा साही को खास जगह दिलायी तो अमीर, सलमान और शाहरूख खान को रोमांटिक हीरो के रूप में. इस तहर एक तरफ रोमांटिक तो दूसरी ओर ऐक्‍शन थ्रिल्‍लर और खास विषयों को लेकर फिल्‍में बनती रहीं. माचिस, 1942-ए लव स्‍टोरी, गुलाम, सरफ़रोश, दिल से, बाम्‍बे, मंगल पाण्‍डेय, रंग दे बसंती, तारे ज़मीं पर, लगान, स्‍वदेस, खामोशी, ब्‍लैक, दिल चाहता है, चक दे इंडिया, पेज थ्री, बार्डर, गुरु, स्‍लम डाग मिलयेनर, गुज़ारिश जैसी बेहतरीन विषय आधारित फिल्‍में भी बनीं.

भाषा की दृष्‍टि से इस दौरान फिल्‍मों में हिन्‍दी के साथ अंग्रेजी मिश्रित हिन्‍दी   याने हिंगलिश का असर देखने में आया. विदेश में रहने वाले भारतीयों को ध्‍यान में रखकर पटकथा और संवाद लिखे जाने लगे. तकनीक और आधुनिक संगीत पर जोर रहा. डिजिटल साउण्‍ड रेकार्डिंग और साउण्‍ड एफेक्‍ट इस दौर की खास चीज बनी. सभी भावों की अभिव्‍यक्‍ति साफ्ट से लाउड होती गयी.
  
इन सब खूबियों के अलावा 1970 के बाद का ही दशक रहा कि हिन्‍दी फिल्‍म जगत पर अंडरवर्ल्‍ड का साया पड़ना शुरू हुआ जिसका असर अक तक भी बना हुआ है.
हर तहर के विषय, भावनाओं, संवेदनाओं से मिलकर विकसित हुए भारतीय सिनेमा और विशेषकर हिन्‍दी सिनेमा ने पूरी दुनिया में अपनी खास जगह बनायी है. भारतीय सिनेमा मात्र मनोरंजन का इतिहास नहीं अपितु पूरे देश का हाल बयां करने वाला रोचक इतिहास है. ये भारतीय सिनेमा ही रहा जिसने हर वर्ग और खासकर रेस में पिछड़े वर्गों को साथ लाने का प्रयास किया. नज़रिया भले ही व्‍यवसाय का रहा हो पर, वक्‍त के मुताबिक फिल्‍में बनाकर समाज को जागरूक और परिवर्तनशील बनाने में अहम भूमिका निभायी.

बाल विवाह, सती प्रथा, दहेज प्रथा, जाति-प्रथा, छुआछूत, साहूकारी, समाजवाद, पूँजीवाद, कालाबाजारी, भ्रष्‍टाचार, नक्‍सलवाद, आतंकवाद, धार्मिक व्‍यभिचार, राष्‍ट्रीय एकता, अखण्‍डता, अस्‍थिरता, राजनैतिक दुराचार, रोमांस, रोमांच, त्रासदी जैसे अनेकों मुद्दों पर हिन्‍दी और भारतीय भाषाओं के माध्‍यम से बनी फिल्‍मों ने सामाजिक जागरुकता पैदा कर परिवर्तन की एक दिशा दी.


सौ साल के भारतीय सिनेमा को चन्‍द पेजों में सिमेटना अवश्‍य ही संभव नहीं पर विभिन्‍न समुदायों, क्षेत्रीय, राष्‍ट्रीय, धार्मिक और सामाजिक मुद्दों को लेकर बना सिनेमा मनोरंजन के अलावा खुद को और अपने आस-पास को जानने-समझने का एक बेहतरीन और प्रभावशाली माध्‍यम है. विशेषज्ञ यदि इन्‍हें प्रामाणिक न भी मानें तो पात्रों और घटनाओं से मिलकर बना सिनेमा, देखने के बाद कुछ सोचने और करने पर मजबूर अवश्‍य करता है.