भारतीय सिनेमा सौ
साल का हो चुका है. 1913 में दादा साहब की मूक फिल्म राजा हरिशचन्द्र से शुरू
हुआ सफर आज थ्री डी फिल्मों तक आ पहुँचा है. इन सौ सालों में भारतीय भाषा की फिल्मों
ने देश और दुनिया में एक अलग जगह बनायी है. इनमें हिन्दी, तेलुगु, तमिल, कन्नड़, बंगला और मराठी
भाषी फिल्मों और फिल्मकारों का योगदान विशेषकर स्मरणीय है.
खासकर हिन्दी
सिनेमा ने पूरे देश को धर्म, जाति और सामाजिक मतभेदों से परे आपस में
जोड़े रखने का काम किया. इतने लंबे समय में संभवत: थियेटर ही वो जगह रही जहॉं
अमीर-गरीब, छोटे-बड़े, पढ़े-अनपढ़, सभी आपस में मिलते रहे. एक तरफ थियेटर में लगी फिल्म तो दूसरी ओर यहॉं
आने वाले दर्शकों को देख, देश और समाज का हाल जाना जा सकता था.
याने साहित्य समाज का दर्पण तो थियेटर समाज का आईना रही हैं. ये बात अलग है कि
मॉल कल्चर और व्यवसायी नजरिये ने सिनेमा देखने वालों की जमात को भी बॉंट बड़े-छोटे
और अमीर-ग़रीब का वर्ग भेद पैदा कर दिया है.
इन सौ सालों में
फिल्म और फिल्मकारों के भी कई वर्ग बने. आरंभिक दौर याने 1913 से लेकर 1950 के
बीच बनी फिल्मों ने विषय चुनने और इन्हें फिल्माने में प्रयोगधर्मिता अधिक
अपनायी. फिल्मों में ऐसे विषयों को चुना जो समाज के सभी वर्ग के लोगों को थियेटर
तक खींच लाए और थियेटर जाने पर लगे ‘टैबू’ को दूर किया जा सके. फिल्म समाज के लिए
नौटंकी और खेल देखने जाने का आधुनिक और उन्नत रूप था. निश्चित ही यह समय कड़ी
चुनौती भरा रहा होगा कि तत्कालीन देश के हालात और गुलामी के साये में रहते फिल्म
के ज़रिये मनोरंजन की बात सोची गयी. पर, अक्सर लीग से हटकर सोची गयी बात ही आड़े
वक्त दिशा दे जाती है. यही हुआ भी. फिल्मों का आरंभिक दौर फिल्मकारों और
दर्शकों के लिए वह सब कहने और देखने का दौर रहा जो आम तौर पर अकेला व्यक्ति, परिवार या कोई वर्ग कहने में संकोच महसूस करता था या अन्यान्य सामाजिक
कारणों से खुद को रोक लेता था. 1945 में बनी और अशोक कुमार द्वारा अभिनीत फिल्म ‘किस्मत’ से ‘एंटी हीरो’ और ‘अविवाहेतर संबंध’ जैसे समाज के दबे सच सामने आये.
इसके बाद तो 50 से
70 का दशक भारतीय सिनेमा का सुनहरा काल रहा. पृथ्वीराज कपूर, वी शांताराम, विमल रॉय, महबूब खान, राज कपूर, के.आसिफ जैसे दिग्गज फिल्मकारों ने देश, समाज, इतिहास, परंपरा और
पारिवारिक विषयों पर एक से एक बेहतरीन फिल्में बनायी. यही वो दौर रहा जिसने
भारतीय सिनेमा को स्थापित कर इसे इंडस्ट्री का आधार दिया. इंडस्ट्री स्थापना
काल और 60 के दशक से देश के प्रतिभावान और चुनिंदा फिल्मकारों ने कलात्मक सिनेमा
(रिअलिज़्म) की शुरूआत की. इस सिनेमा ने हिन्दी सिनेमा को दुनिया में एक खास जगह
दिलायी. सत्यजीत रे, श्याम बेनेगल, मृणाल सेन, गोविंद निहलानी, प्रकाश झा, बसु भट्टाचार्य आदि ने एक से एक गंभीर पर
समाज की सच्चाई जाहीर करने वाले विषयों पर फिल्में बनायी. इन फिल्मों से एक खास
दर्शक वर्ग भी तैयार हुआ. आगे चलकर इनकी फिल्में ही फिल्म निर्माण और समीक्षा का
पैमाना साबित हुईं.
हिन्दी फिल्मों
के साथ यहॉं बंगाली, तेलुगु, तमिल और कन्नड़
फिल्मों की बात न की जाए तो भारतीय सिनेमा की गाथा अधुरी रहेगी. बंबई यदि हिन्दी
और बंगाली फिल्मों का गढ़ रहा तो मद्रास तमिल और तेलुगु का. इसी दौर में तेलु्गु
की सन् 1955 और 1957 में बनी ‘कन्याशुल्कम’ और ‘माया बजार’ जैसी फिल्मों ने
इस भाषा के महान लेखक गुरुजाड़ा अप्पाराव, अभिनेता एन टी रामाराव, एस वी रंगाराव, अक्किनेनी नागेश्वर राव, निर्माता-निर्देशक कादरी वेंकट रेड्डी, संगीतकार घंटशाला, अभिनेत्री सावित्री को दक्षिण भारतीय समाज का रातों रात हीरो बना दिया.
विशेषकर ‘मायाबजार’ को इसकी पटकथा, संवाद लेखन, गीत-संगीत और ब्लैक अण्ड व्हाइट दौर की
सिनेमा में तकनीकी कमाल का नमूना माना जाता है. इसी तरह 50 के दशक में तमिल में
बनी ‘पराशक्ति’ और ‘अंधनाल’ फिल्मों ने शिवाजी गणेशन, बंगाली में सत्यजीत रे द्वारा बनायी गयी फिल्म ‘पाथेर पॉंचाली’ ने भारतीय सिनेमा और इस दौर के फिल्म
निर्माण को माइल स्टोन बना दिया.
यदि मुख्यधारा के हिन्दी
फिल्म जगत के आधार और अधिरचना को अशोक कुमार, पृथ्वीराज कपूर, गुरूदत्त, दिलीप कुमार, राजकपूर, नर्गिस, वहीदा रहमान, मीना कुमारी या मधुबाला के बिना समझा नहीं जा सकता तो भारतीय सिनेमा को
उक्त अभिनेता, लेखक, निर्माता-निर्देशक और संगीतकारों के काम
को जाने बिना भी समझा नहीं जा सकता.
1950 से 70 का दशक ‘किस्मत’, ‘बरसात’, ‘आवारा’ ‘जिस देश में गंगा बहती है’, मुगले-ए-आज़म, मधुमती, लीडर, गंगा-जमूना, देवदास, बैजू-बावरा, मदर इंडिया, नया दौर, दो ऑंखे बारह हाथ, नवरंग, देवदास,
बहू-बेगम, पाकीज़ा, प्यासा, साहिब-बीबी
और गुलाम जैसी फिल्मों का रहा. इनमें भारतीय समाज, जन-मानस की
भावनाओं और मूल्यों को धर्म-परंपराओं के ताने-बाने के साथ हू-ब-हू हिन्दुस्तानी
ज़बान में पेश किया गया. इन फिल्मों के विषय चयन के मुताबिक पटकथा और संवाद लेखन
का सृजन खास तौर पर किया गया जो वास्तव में हिन्दी का असली रूप है. उर्दू, अवधि, बृज, संस्कृत और ठेठ
हिन्दी का ऐसा मिश्रण जिसे कहीं से थोड़ा कम या ज्यादा नहीं किया जा सकता.
संभवत: संविधान के अनुच्छेद 351 में कहे अनुसार इस दौर की फिल्में भाषा प्रयोग
की दृष्टि से भारतीय सामासिक संस्कृति की सच्ची मिसाल हैं.
दूसरे दौर में 1970
से 90 के दशक के आते-आते लोग फिल्मों को अपने जीवन का हिस्सा बना चुके थे. भारतीय
सिनेमा पूरी तरह उद्योग में तब्दील हो चुका था. ईस्टमेन कलर के इस जमाने में फिल्मों
के घराने, निर्माता-निर्देशकों के वर्ग, पटकथा-संवाद लेखकों के वर्ग, संगीतकारों के वर्ग बन चुके थे. यह दशक रोमांस
के अलावा ऐक्शन थ्रिलर फिल्मों का ट्रेण्ड सेटर भी रहा. ये वही समय था जब फिल्मों
के रोमांटिक हीरो देवानंद, राजेश खन्ना, शम्मी कपूर, शशि कपूर, राजेन्द्र कुमार
जैसे स्थापित स्टारों का ताज एंग्री यंग मैन अमिताभ बच्चन, माचो मैन धर्मेन्द्र, विनोद खन्ना, शत्रुघ्न सिन्हा, फ़िरोज़ खान, मिथुन चक्रवर्ती, सन्नी देओल, नाना पाटेकर, अनिल कपूर आदि को हस्तगत हुआ. इस दौरान सलीम-जावेद, प्रकाश मेहरा और मनमोहन देसाई द्वारा रचित किरदारों को दर्शकों ने खूब
सराहा. यह हॉलीवुड फिल्मों के किरदारों
को हिन्दी में लाने की शुरूआत थी जिसमें हीरोइज़्म और ऐक्शन का बेजोड़ मेल हुआ
करता था. फिल्म में हीरो-हीरोईन के अलावा विलेन और कॉमेडियन अब अनिवार्य बन चुके
थे. इस दौर ने मदन पुरी, प्राण, प्रेमनाथ, प्रेम चोपड़ा, जीवन, अजीत, डैनी, कुलभूषण खरबन्दा, अमरीश पुरी, अमजद खान, ओम पूरी, अनुपम खेर, रजा मुराद, परेश रावल जैसे
कुछ बेहतरीन विलेन किरदार निभाने वाले अभिनेता दिये तो भगवान दादा, महमूद, जॉनी वाकर, असरानी, जगदीप, मुकरी, ओमप्रकाश और केश्टो
मुखर्जी जैसे हास्य कलाकार भी. दर्शकों के लिए फिल्मों के माध्यम से सत्ता, समाज और व्यवस्था के खिलाफ लड़ता हीरो भाने लगा था. आज़ादी के पहले और
बाद एक से ज्यादा युद्ध देख चुके भारतीय जनमानस में एक छटपटाहट और बेचैनी थी कि
वह अपने संघर्षमय यथार्थ और वर्तमान को बदलना चाहता था. गरीबी, बेरोजगारी, भूखमरी, अशिक्षा और हर जगह
घुटनेटेक जिंदगी से तंग वह जो कहना और करना चाहता था, वह सब इस दौर के किरदारों ने पर्दे पर कर दिखाया. भाषा की दृष्टि से
पटकथा लेखन, संवाद और गीत-संगीत में भी नयापन देखा
गया. विशेषकर, यह संवाद लेखन का दौर रहा. हिरोइज़्म को
दर्शाने और किरदारों को मजबूती देने संवादो का सहारा लिया गया. इसी दौर में वक्त, दीवार, जंजीर, डॉन, शोले, शक्ति, शान, आनंद, सफ़र, उपकार, पूरब और पश्चिम, क्रान्ति, मिस्टर इंडिया, मेरी जंग, कर्मा, घायल, दामिनी, परिंदा, सलाम बाम्बे, प्रहार जैसी फिल्मों में संवादों का जोर रहा.
इन्हीं फिल्मों
के समानांतर कुछ हल्की-फुल्की तो कुछ संजीदा फिल्में जैसे चुपके-चुपके, गुड्डी, मौसम, ऑंधी, अभिमान, चश्मेबद्दूर, साथ-साथ, घरोंदा, बाज़ार, चितचोर, गोलमाल, उमराव जान जैसी
फिल्में भी बनीं जो यादों में अभी भी अमिट हैं.
90 के दशक तक फिल्मों
की भाषा और तकनीक में बड़ा फर्क आ चुका था. नौजवान पीढ़ी के लिए यह स्वच्छंदता
का दौर रहा. पश्चिमी सोच-विचार और जीवन शैली का प्रभाव समाज के साथ-साथ फिल्मों
पर भी हावी रहा. सीधी-सादी और साफ-सुथरी फिल्मों की जगह दूरदर्शन ने ले ली थी.
फिल्म में जो भी दिखाया जाय पर, दूरदर्शन ने घर-परिवार और समाज को ध्यान
में रखते हुए कार्यक्रमों का चयन किया. छोटे पर्दे पर देश, परंपरा, साहित्य, अध्यात्म, दर्शन सब क़ायम रहा. बुनियाद, हम लोग, तमस, सर्कस, रामायाण, महाभारत इसी समय
की देन है. यही वो समय रहा जब देश में कार्टून आधारित कार्यक्रम भी बने. शायद इस
समय के हिन्दी के ‘मोग़ली’ को कोई भूल नहीं
सकता.
अब तक हिन्दी और
दक्षिणी फिल्मों के अलावा और भी क्षेत्रीय भाषाओं का सिनेमा स्थापित हो चुका था.
बंगाली, मराठी, पंजाबी, भोजपूरी फिल्में भी खूब चलने लगी थीं. वास्तव में फिल्मों ने समाज
में जातिगत, सीमागत और भाषागत भेद मिटाने का भी काम
किया. कई हिन्दी फिल्में तेलुगू में बनी जैसे अमर अकबर ऐन्थोनी, तो कई तमिल-तेलुगू, मराठी फिल्में और अभिनेता हिन्दी में
आए. कई हिन्दी फिल्में मद्रास और हैदराबाद में बनीं. इसी के चलते एस पी बाल
सुब्रह्मण्यम जैसे गायक और कमल हासन व रजनीकांत जैसे अभिनेता देश के सामने आये. इस
तरह भाषागत दृष्टि से हिन्दी के कई फिल्मी रूप भी प्रचलित हुए. ठेठ हिन्दी, पहाड़ी हिन्दी, बिहारी हिन्दी, मुंबइया हिन्दी, पंजाबी हिन्दी, बंगाली हिन्दी, मद्रासी हिन्दी, हैदराबादी हिन्दी. ऐसे कई क्षेत्रीय प्रयोगों से हिन्दी महकती गयी और मनोरंजन
के माध्यम से देश-विदेश में स्वीकृत और प्रचलित होती चली गयी. फिल्मों का चलन
भले ही फ्रान्स से शुरू हुआ हो पर हिन्दुस्तानी सिनेमा ने इन विविधताओं के चलते
दुनिया में अपनी एक अलग जगह कायम करने में सफलता हासिल कर ली.
1990 से लेकर अब तक
फिल्मों में और भी बदलाव आए. खास बदलाव रोमांटिक फिल्मों को लेकर आया. मार-धाड़
और ढिशूं-ढिशूं से दर्शक अब कुछ सीधा-सादा, घरेलू और स्वाभाविक मनोरंजन देखना चाहते
थे. इसी दौरान बेताब के बाद क़यामत से क़यामत तक, जो जीता वही
सिकंदर, आशिकी, हम हैं राही प्यार
के, दिल है कि मानता नहीं, चॉंदनी, मैंने प्यार किया, हम आपके हैं कौन, दिल वाले दुल्हनिया ले जायेंगे, दिल तो पागल है, कुछ-कुछ होता है, हम दिल दे चुके सनम, देवदास (नयी) जैसी सुपर हिट फिल्में
आयीं. वास्तव में 1960 के बाद से सभी जेनर की फिल्में समानान्तर रूप से बनती
रहीं और कलात्मक तथा कमर्शियल सिनेमा साथ-साथ चलता रहा. फिल्मकारों को अपने काम
पर इतना भरोसा हुआ करता था कि उनकी फिल्में करोड़ों की जनसंख्या के देश में
दर्शक वर्ग अपने-आप खड़ा कर लेती थीं. पर, फिल्मों का ट्रेंड टिकट खिड़की याने व्यापार
और दर्शकों की पसंद के आधार पर बनता रहा. एक तरफ कलात्मक सिनेमा से नसीरूद्दीन
शाह, ओम पूरी, शबाना आज़मी, स्मिता पाटील, दीपा साही को खास जगह दिलायी तो अमीर, सलमान और शाहरूख खान को रोमांटिक हीरो के रूप में. इस तहर एक तरफ रोमांटिक
तो दूसरी ओर ऐक्शन थ्रिल्लर और खास विषयों को लेकर फिल्में बनती रहीं. माचिस, 1942-ए लव स्टोरी, गुलाम, सरफ़रोश, दिल से, बाम्बे, मंगल पाण्डेय, रंग दे बसंती, तारे ज़मीं पर, लगान, स्वदेस, खामोशी, ब्लैक, दिल चाहता है, चक दे इंडिया, पेज थ्री, बार्डर, गुरु, स्लम डाग मिलयेनर, गुज़ारिश जैसी बेहतरीन विषय आधारित फिल्में भी बनीं.
भाषा की दृष्टि से
इस दौरान फिल्मों में हिन्दी के साथ अंग्रेजी मिश्रित हिन्दी याने हिंगलिश का असर देखने में आया. विदेश में
रहने वाले भारतीयों को ध्यान में रखकर पटकथा और संवाद लिखे जाने लगे. तकनीक और
आधुनिक संगीत पर जोर रहा. डिजिटल साउण्ड रेकार्डिंग और साउण्ड एफेक्ट इस दौर की
खास चीज बनी. सभी भावों की अभिव्यक्ति साफ्ट से लाउड होती गयी.
इन सब खूबियों के
अलावा 1970 के बाद का ही दशक रहा कि हिन्दी फिल्म जगत पर अंडरवर्ल्ड का साया
पड़ना शुरू हुआ जिसका असर अक तक भी बना हुआ है.
हर तहर के विषय, भावनाओं, संवेदनाओं से मिलकर विकसित हुए भारतीय
सिनेमा और विशेषकर हिन्दी सिनेमा ने पूरी दुनिया में अपनी खास जगह बनायी है.
भारतीय सिनेमा मात्र मनोरंजन का इतिहास नहीं अपितु पूरे देश का हाल बयां करने वाला
रोचक इतिहास है. ये भारतीय सिनेमा ही रहा जिसने हर वर्ग और खासकर रेस में पिछड़े
वर्गों को साथ लाने का प्रयास किया. नज़रिया भले ही व्यवसाय का रहा हो पर, वक्त के मुताबिक फिल्में बनाकर समाज को जागरूक और परिवर्तनशील बनाने
में अहम भूमिका निभायी.
बाल विवाह, सती प्रथा, दहेज प्रथा, जाति-प्रथा, छुआछूत, साहूकारी, समाजवाद, पूँजीवाद, कालाबाजारी, भ्रष्टाचार, नक्सलवाद, आतंकवाद, धार्मिक व्यभिचार, राष्ट्रीय एकता, अखण्डता, अस्थिरता, राजनैतिक दुराचार, रोमांस, रोमांच, त्रासदी जैसे
अनेकों मुद्दों पर हिन्दी और भारतीय भाषाओं के माध्यम से बनी फिल्मों ने
सामाजिक जागरुकता पैदा कर परिवर्तन की एक दिशा दी.
सौ साल के भारतीय
सिनेमा को चन्द पेजों में सिमेटना अवश्य ही संभव नहीं पर विभिन्न समुदायों, क्षेत्रीय, राष्ट्रीय, धार्मिक और
सामाजिक मुद्दों को लेकर बना सिनेमा मनोरंजन के अलावा खुद को और अपने आस-पास को जानने-समझने
का एक बेहतरीन और प्रभावशाली माध्यम है. विशेषज्ञ यदि इन्हें प्रामाणिक न भी
मानें तो पात्रों और घटनाओं से मिलकर बना सिनेमा, देखने के बाद कुछ सोचने और करने पर मजबूर अवश्य
करता है.
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