संभवत: भारत के खेल
इतिहास में किसी खिलाड़ी के सन्यास को लेकर इतनी अटकलें और बहसें नहीं हुई होंगी
जितनी पिछले दिनों सचिन के क्रिकेट से सन्यास को लेकर हुईं. लंबे समय से इलेक्ट्रानिक
और प्रिंट मीडिया के लिए खेल जगत की शायद यही सबसे बड़ी और सबसे तेज़ दिखायी जाने
वाली ‘ब्रेकिंग न्यूज़’
बची रह गयी थी. आखिरकार दस अक्तूबर को सचिन ने सारी अटकलों को तोड़ते हुए वेस्टइंडिज
के खिलाफ़ उनके द्वारा खेले जाने वाले दोसौवें टेस्ट के बाद क्रिकेट को अलविदा
कहने की घोषणा कर दी.
चौबीस सालों के
लंबे क्रिकेट कैरियर में सचिन ने क्रिकेट को जिस तहर जिया वह खेलों में एक अद्भुत
और गैर-मामूली मिसाल है. भारत के क्रिकेट इतिहास में बल्कि सभी तरह के खेलों के भारतीय
इतिहास पर नज़र डालें तो मिल्खा सिंह, कपिलदेव और सचिन
जैसे बहुत कम खिलाड़ी याद आएंगे जिनकी जिन्दगी खेल साधना का आईना बन गई हो.
सचिन की जी तोड़
मेहनत, लगन और खेलते रहने की दीवानगी के हद तक की भूख ने
उन्हें खेल के भगवान का दर्जा दिलाया जो संभवत: किसी भी खिलाड़ी के लिए किसी भी हासिल
ईनाम से बड़ी उपलब्धि है.
सचिन सन् 1989 मे भारतीय
टीम में चुने गये. यह दशक भारतीय क्रिकेट के ‘रि-स्ट्रक्चरिंग’ का दौर था. प्रसन्ना, बेदी, करसन घावरी, रोजर बिन्नी,
मदनलाल, दिलीप दोषी,
वेंकट राघवन जैसे गेंदबाजों के बाद कपिलदेव को छोड़कर कोई अन्य विकेटलेवा और घातक
गेंदबाज टीम में नहीं था. चेतन शर्मा, मनोज प्रभाकर तथा बाद
में श्रीनाथ और वेंकटेश प्रसाद जैसे गेंदबाज कुछ सालों के लिए अवश्य टीम को सहारा
देते रहे पर ये सभी उस तरह घातक और आतंकित करने वाले नहीं रहे जैसे पाकिस्तान के इमरान
खान, वसीम अकरम,
वक़ार युनूस, अब्दुल क़ादिर,
आक़िब जावेद, आस्ट्रेलिया के क्रेग मेकडरमट, ब्रूस रीड, ग्लेन मेकग्राथ,
शेन वार्न, ब्रेट ली, वेस्ट इंडिज के कर्टनी
वाल्श, ऐम्ब्रूस,
पैट्रीक पीटरसन, इयान बिशप, साउथ
अफ्रिका के एलन डोनाल्ड, शॉन पोलाक, डेल स्टेन, इंग्लैण्ड के क्रिस लिविस, डेरन गाफ, क्रेग व्हाइट,
अलन मुलाली, डेविड मैलकम,
स्टीव हार्मिसन, जेम्स ऐंडरसन,
फि्लंटाफ, न्यूज़ीलैण्ड के डैनी मॉरिसन, शेन बाण्ड या श्रीलंका के चमिण्डा वास,
मुथैया मुरलीधरन आदि रहे.
वास्तव में किसी
भी बल्लेबाज को बड़ा और महान बनाने में हमेशा उसके समकालीन अन्य देशों के
गेंदबाजों की उपस्थिति, उनके साथ प्रतिस्पर्धा और रस्साकशी बहुत
मायने रखती है. अपनी-अपनी टीमों के लिए जी-जीन से सभी खेलते हैं पर जो बड़े
खिलाड़ी होते हैं उनके बीच अपने हुनर और कला की एक अलग ही प्रतिस्पर्धा, वार-प्रहार की करारी जुगलबन्दी की बानगी देखने को मिलती है. विव
रिचर्ड्स, सुनील गावस्कर,
बॉयकाट, ज़हीर अब्बास,
गार्डन ग्रिनीज, डेसमेंड हेयन्स,
ग्रेग चैपल, एलन बार्डर,
ग्राहम गूच आदि कई ऐसे बल्लेबाज हुए हैं जिन्हें अपने समय में दुनिया के बेहतरीन
गेंदबाजों के खिलाफ खेलकर इन अद्भुत और यादगार पलों को रचने का मौका मिला. संभवत:
इन सबकी ख्याति के पीछे यह भी एक बहुत बड़ा कारण है.
सचिन के पूरे टेस्ट, वन डे कैरियर और इस दौरान भारत की गेंदबाजी की ताक़त देखें तो कोई ऐसा
तेज़ गेंदबाज याद नहीं आता जिसका क्रिकेट जगत में आतंक रहा हो. ऐसे में सचिन के
लिए यह हमेशा चुनौती रही कि वह पाकिस्तान, इंगलैण्ड, आस्ट्रेलिया और साउथ अफ्रिका की हरी घास से सजी तेज़ पीचों पर दुनिया
के इन नामी-गिरामी गेंदबाजों का सामना कर रन बनाए और टीम को जीत दिलाने में योगदान
दे. दूसरा, हमारे देश की पीचें तेज गेंदबाजी के लिए बेजान और
मुर्दा मानी जाती थी. न तेज पीचें न तेज़ गेंदबाज. बॉलिंग मशीन भी देश में बहुत
बाद में आयी. ऐसे में सचिन के पास सिर्फ एक ही मौका होता था टेस्ट या वनडे में
सीधे दुनिया की तेज़ और कलात्मक स्पिन गेंदबाजी का सामना. जैसे आग में कूदकर ही आग
से लड़ा और बचा जा सकता है, ठीक उसी तरह सचिन
के सामने हमेशा हर इनिंग्स में यही स्थिति होती थी. पॉंच फुट पॉंच इंच के इस ‘टेंडलिया’ ने इंगलैण्ड, आस्ट्रेलिया और साउथ अफ्रिका के मैदानों पर तेज़ तर्रार अपनी
ओर उठती गेंदों पर जो ‘बैकफुट पंच’ और ‘फ्रण्ट फुट पर कवर ड्राइव’
खेले हैं वे उनकी बेक़रार ऑंखों, मचलते हाथों और बल्ले से गेंद को आक्रामकता व
नज़ाकत से मिलाने के अटूट हौसले का कमाल है. विवियन रिचर्डस की हर देश,
मैदान और गेंदबाज के खिलाफ की गई बेजोड़ और क़रारी कलात्मकता भरी दबंग बल्लेबाजी
के बाद केवल सचिन की ही ऐसी बल्लेबाजी रही है जो हमें बार-बार देखने पर मजबूर
करती है. यदि सचिन के समकालीन कोई इस शोहरत का हिस्सेदार हो सकता है तो वे वेस्टइंडिज
के ब्राइन लारा हैं.
खेल
और फिल्मों में किसी के आग़ाज का बहुत महत्व है. जिस समय सचिन को मौका मिला उस
समय पाकिस्तान, आस्ट्रेलिया और इंगलैण्ड की टीमें जैसे हमें
बोल-बोलकर हराने का दम भरती थीं. और, अक्सर हमारी टीम इनसे जूझकर हार भी जाती थी.
शारजाह क्रिकेट का वह दौर शायद हम कभी नहीं भूल सकते. बार-बार हार और मानसिक दबाव
के चलते हमेशा खुलकर आक्रामक क्रिकेट खेलना हमारी टीम के लिए संभव नहीं हो पाता था.
दबाव में बिखर जाना एक आदत सी बन गयी थी. ऐसे में कपिलदेव द्वारा पाकिस्तान के
खिलाफ डबल विकेट कांपिटिशन में अपने साथ सचिन को लेकर खेलना यह सचिन के जीवन का एक
अद्भुत और यादगार लम्हा था. सचिन जैसे इसी के लिए बेक़रार थे. 16 साल से कम उम्र
में उन्होंने इस कांपिटिशन में जिस तहर अब्दुल क़ादिर को तीन छक्के रसीदकर जीत
दिलायी उनके इस कमाल ने पूरे क्रिकेट जगत को हैरान कर रख दिया था. इन छक्कों की
गूँज ने पहली बार इमरान खान और उनकी पूरी टीम को सकते में डाल दिया था. फिर क्या
था जैसे सचिन को इस जीत के बाद दुनिया के गेंदबाजों को धुनकने का ‘लाइसेंस
टू किल’ मिल गया था.
सचिन
की बढ़ती शोहरत ने दुनिया की सभी टीमों को उनका तोड़ लाने पर मजबूर कर दिया.
पाकिस्तान ने कुटिलता दिखाते हुए शाहिद अफ़रिदी को उनसे कम उम्र का ज्यादा
आक्रामक बल्लेबाज और इंजमाम उल हक को उनकी टक्कर का बनाकर उतारा. इधर आस्ट्रेलिया
में एलन बार्डर के बाद स्टीव वॉ ने पांटिंग, माइकल बेवन, डरेन लिहमैन को उतारा. इसी तरह ग्लेन मेकग्राथ्,
ब्रेट ली, शेन वार्न, सकलेन मुश्ताक, मुरलीधरन तो कई नयी
गेंदें सचिन के लिए ईजाद कर लाये तो जवाब में सचिन ने एक नये शार्ट पैडल स्वीप को
शेन वार्न और मुथैया मुरलीधरन की स्पिन के साथ और खिलाफ खेलने का हथियार बनाया. शारजाह
में आस्ट्रेलिया के खिलाफ धूल भरी ऑधी में लगाये उनके दो शतक,
चेन्नई में शेन वार्न के खिलाफ और प्रेमदासा स्टेडियम में मुरलीधरन के खिलाफ
खेली गई उनकी पारियॉं हम शायद ही कभी भूल पायेंगे.
सचिन के कैरियर का
आधे से ज्यादा समय ऐसा रहा जब भारतीय टीम में विदेशी पिचों पर बैटिंग कर टेस्ट
में बीस विकेट लेकर विपक्षी टीमों को हराने की क्षमता नहीं थी. गावस्कर के जाने
के बाद सलामी बल्लेबाजी जोड़ी कई सालों तक नहीं बन पायी. तीसरे नंबर पर खेलने
वाला कोई टिकाऊ खिलाड़ी नहीं था. मिडिल आर्डर में अज़रूद्दीन ही केवल भरोसेमंद
खिलाड़ी थे. कई बार तो ऐसा भी हुआ कि मनोज प्रभाकर और विकेट कीपर नयन मोंगिया को
टीम की ओपनिंग करनी पड़ी. श्रीकांत, नवजोत सिंह सिद्धू, विनोद कांबली, अजय जडेजा,
रॉबिन सिंह आदि कई बल्लेबाज आए पर वे भी सहारे तक ही सीमित रहे. ओपनर, फास्ट बाउलर और आल राउण्डर हमेशा से हमारे टीम की कमी रही है. ऐसे में
सचिन के लिए चुनौती दुगनी कड़ी थी कि अपने साथ-साथ दूसरे बल्लेबाजों से नहीं बने
रन भी बनाओ और टीम को जीताओ. सचिन ने अधिकतर अवसरों पर यह कर दिखाया. उनके महान
होने का यह दूसरा बड़ा कारण था. इसी एक बड़े कारण से अंदाजन अबसे 8-10 साल पहले तक
सचिन के आउट हो जाने के बाद लोग टी वी देखना बंद कर देते थे और विरोधी टीम अधिकतर
जीत जाती थी. याद होगा जब सचिन ने अकेले दम पर वसीम अकरम और उनके गेंदबाजों के
खिलाफ कलकत्ता टेस्ट मैच को जीत की दहलीज पर ला दिया था. 17 रन बनाने थे और चार
विकेट शेष थे. वसीम अकरम और उनकी हार के बीच केवल सचिन खड़े थे. पर वसीम ने अपने
करिश्मे से सचिन को आउटकर हमारी टीम को तत्क्षण निपटाया और अपनी हार को जीत में
बदल दिया. शायद वसीम के लिए इससे बड़ी जीत उनके पूरे कैरियर में न रही हो. अंदाज
लगाया जा सकता है कि सचिन का कितना आतंक दूसरी टीमों पर बन गया था. और ये किसी
अजूबे से कम नहीं कि उन्होंने इतने लंबे समय तक किस ध्यान और फोकस से अपनी बल्लेबाजी
को बनाये रखा. इन चौबीस सालों में समय ने भी उनकी हर पल परीक्षा ली. कभी उन्हें
पंजे की ऊँगलियों में तो कभी टेनिस एल्बो और तो कभी कंधे की चोट ने परेशान कर
उनके उत्साह और जज़्बे को तोड़ने की कोशिश की. पर, उनकी
घोर साहसी साधना के आगे ये सब टिक नहीं सके.
उनके इसी जुझारूपन
और विपत्तियों में कुछ कर दिखाने की क्षमता ने देश और दुनिया को अपना दीवाना बना
दिया. क्रिकेट कभी देश में इतने बड़े पैमाने पर आगे नहीं बड़ा जितना सचिन के समय
में हुआ है. आज के लगभग सभी बड़े-छोटे खिलाड़ी सचिन को अपना आदर्श मानते हैं. हर
छोटे-बड़े की चाहत सचिन बनने की है. अपनी अनवरत साधना से सचिन ने जिस तरह हर
क्रिकेट फार्मेट को मिलाकर पचास हजार रनों का अंबार लगाया है वह आने वाले लंबे समय
तक ‘अजीत लक्ष्य’
के रूप में बल्लेबाजों के लिए बना रहेगा. उनकी एक और जो खास बात रही है कि उन्होंने
कभी शोहरत और ज़बान को अपनी साधना, लक्ष्य और काम के
आड़े आने नहीं दिया.
सचिन क्रिकेट की एक
महागाथा है जो हर खेल और खिलाड़ी के लिए शास्त्र व शस्त्र दोनों ही हैं. उनकी
खेल से विदाई पर यही कहा जा सकता है कि
‘जीत ही उनको मिली जो हार से जमकर लड़े हैं,
हार के डर से डिगे जो, वो धराशायी पड़े हैं,
हर सफलता संकल्प के पद पूजते देखी गयी है
वो किनारे ही बचे जो सिन्धु को बॉंधे खड़े हैं’.
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होमनिधि शर्मा
तुम अच्छे हो या बुरे
ReplyDeleteतेजस्वी हो यशस्वी हो
होड़ में सबसे आगे हो
या पीछे
… पूरी किताब का परिचय कोई नहीं पढ़ता
पर यदि तुम्हारा नाम जेहन में,मस्तिष्क में,जुबां पर है
तुम याद हो
राम,रावण
कृष्ण,कंस
कर्ण,अर्जुन
गांधी,गोडसे .... किसी भी अच्छे,बुरे नाम से
तो तुम्हारा परिचय है
परोक्ष विशेषताओं के साथ
अन्यथा पन्ने भरने से कुछ नहीं होता
कुछ भी नहीं !
http://www.parikalpnaa.com/2013/12/blog-post_6.html