भारत में सार्वजनिक उद्यमों की स्थापना
देश में विभिन्न क्षेत्रों में तकनीकी विकास और उत्पादन क्षेत्रों में आत्म-निर्भरता
हासिल करने के उद्देश्य से की गई थी. पं. जवाहर लाल नेहरू ने इन उद्यमों को भारत
के आधुनिक मंदिर कहा था. 1948 में स्थापित देश के पहले उद्यम इंडियन टेलिफोन
इंडस्ट्री से लेकर अब तक देश में 250 से अधिक छोटे-बड़े उद्यम किसी न किसी खास क्षेत्र और कामकाज से जुड़े
हैं. ये अलग बात हो सकती है कि आज के हालात में ये कारोबारी स्तर पर कितने मजबूत
और कामयाब हैं.
स्थापनाओं के बाद से उद्येश्य अनुसार इन
उद्यमों में कामकाज फलता-फूलता गया और देश को कई क्षेत्रों में अप्रत्याशित लाभ
भी मिला. विशेषकर टेलिफोन सेक्टर, ऑयल, पॉवर, कोयला, एवियेशन, भारी इलेक्ट्रीकल्स, इलेक्ट्रानिक्स, रक्षा, इंश्योरेंस
क्षेत्रों आदि में काफी प्रगति, विकास और विस्तार देखने में आया.
राजभाषा कार्यान्वयन की दृष्टि से केन्द्र
सरकार के मंत्रालय, संबद्ध और अधीनस्थ
कार्यालयों के बाद सन् 70 के दशक से इन उद्यमों में भारत सरकार की राजभाषा नीति
अनुसार इसके कार्यान्वयन के लिए राजभाषा अधिकारी, अनुवादकों और स्टाफ की भर्ती के प्रावधान बने और
इन पर विशेष ध्यान दिया जाने लगा. सन् 1988 में जारी राष्ट्रपति आदेशों में
उपक्रमों आदि में अनुवाद व प्रशिक्षण की व्यवस्था और हिन्दी पदों की भर्ती के
प्रावधान किये गये जिससे इस कार्य में और गंभीरता आयी.
सरकार की राजभाषा नीति अनुसार केन्द्र
सरकार याने मंत्रालय, संबद्ध एवं अधीनस्थ
कार्यालय, सार्वजनिक उद्यम व
राष्ट्रीयकृत बैंकों तथा स्वायत्त संगठनों में प्रशासनिक व तकनीकी प्रकृति का दैनिक
कामकाज हिन्दी में किया जाना अनिवार्य है. परन्तु इसके लिए आवश्यक और अनिवार्य
है कि ऐसे कार्यालयों में काम करने वाले अधिकारी व कर्मचारी हिन्दी का समुचित
ज्ञान रखते हों. जबकि, देश में मोटे तौर
पर देखें तो सब जगह हिन्दी के ज्ञान की स्थिति एक समान नहीं है. अत: इस दृष्टि से
सन् 1974 से सार्वजनिक उद्यमों के तकनीकी और प्रशासनिक कर्मचारियों के लिए पात्रता
अनुसार राजभाषा विभाग के अंतर्गत हिन्दी भाषा
का प्रशिक्षण विशेष पाठ्यक्रम बनाकर आरंभ् किया गया. इसी क्रम में हिन्दी
टाइपिंग और हिन्दी आशुलिपि प्रशिक्षण भी
अनिवार्य कर दिये गये. इसके बाद सन् 1976 में जारी राजभाषा नियमावली में सरकारी
कर्मचारियों में हिन्दी के कार्यसाधक ज्ञान और प्रवीणता रखने वालों को विशेष रूप
से परिभाषित किया गया. इन नियमों के अधीन कार्यालय प्रमुख को हिन्दी के कामकाज के
लिए जिम्मेदार बनाया गया तथा इन्हीं नियमों के तहत आगे, देश को हिन्दी के भाषायी ज्ञान के आधार पर क्षेत्र ‘क’ (दिल्ली, यूपी, एम पी, हरियाणा, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश,
अंडमान निकोबार द्विप समूह) ‘ख’ (पंजाब, चंडीगढ़, महाराष्ट्र एवं गुजरात) तथा क्षेत्र ‘ग’ (इनके अतिरिक्त सभी राज्य या मोटे तौर पर
दक्षिण तथा दक्षिण-पूर्वी भारत) में बॉंटा गया. आज इसी आधार पर सरकार हिन्दी के
कामकाज के अलग-अलग लक्ष्य तय करती है और इसकी प्रगति का मूल्यांकन करती है.
इसके बाद सन् 1976 में संसदीय
राजभाषा समिति के गठन पश्चात समय-समय पर किये गये निरीक्षण और इनकी सिफारिशों पर
जारी राष्ट्रपति आदेशों से सभी उद्यमों में राजभाषा कार्यान्वयन तेजी से आगे
बढ़ने लगा.
लगभग चार दशकों से भी अधिक
समय से देश के सभी उद्यमों में राजभाषा कार्यान्वयन कार्य जारी है. जब तक कि
असाधारण न हो, सामान्यत: सौओं-हजारों कर्मचारियों के
कार्यालयों में किसी एकाध-दो अधिकारी या कर्मचारी के कामकाज को रेखांकित कर पाना
बहुत मुश्किल होता है. हिन्दी अधिकारी और स्टाफ के संबंध में ये और भी दुष्कर
बात है. विशेषकर, जब आन्ध्र-प्रदेश या देश के ‘ग’ क्षेत्र के अंतर्गत आने वाले कार्यालयों में हिन्दी
में सरकारी काम कराना हो और जहॉं सामान्य तौर पर कर्मचारीवर्ग में अन्यान्य
कारणों से हिन्दी थोपे जाने और इसके प्रति विरोध की भावना हो, ऊपर से असहयोग व साधनों की कमी हो तो यह बहाव के विपरित बहने का काम बन
जाता है. इस क्षेत्र में काम कराने से अधिक पहले खुद के लिए जगह बनाने और हिन्दी
की स्वीकार्यता लाने में दस गुनी मेहनत करनी पड़ती है. यदि कोई राजभाषाकर्मी एक
लंबा समय बिता भी ले तो उसे रोजाना इस अहसास से गुजरना ही पड़ता है. खैर, इन सब के होते हुए भी ‘काम अनेक, हिन्दी अधिकारी एक’ की स्थिति को देखते हुए कहा
जा सकता है कि इन उद्यमों में स्थापित राजभाषा विभाग,
अनुभाग और यहॉं के राजभाषाकर्मियों ने अकेले दम पर हिन्दी के कामकाज को पहचान
दिलाने में प्रशंसनीय व असाधारण भूमिका निभायी है.
यदि इस क्षेत्र में हिन्दी
और हैदराबाद के राजभाषाकर्मी कुछ हद तक भी सफल हो पाये हैं तो इसका श्रेय पुराने
समय की हमारी स्कूली, कॉलेज और विश्वविद्यालयों की
आधारभूत भाषायी और अन्य विषयक शिक्षा, खुद के लिए और
विकासशील देश के प्रति कुछ करने की भावना को जाता है. ऐसे माहोल से निकल हैदराबाद
और इसके आस-पास के क्षेत्रों के छात्र संसदीय सचिवालय की अनुवाद सेवा सहित देशभर के
कार्यालयों में नियुक्त हुए. इन राजभाषा अधिकारी और साथी स्टाफ सदस्यों ने
अकेले दम पर कार्यालयों के असहयोगी माहोल, साधन-सुविधाओं के
अभाव में कार्यालय के आकार-प्रकार को दरकिनार कर अपनी लगन और मेहनत से हिन्दी की एक
खास जगह और पहचान बनाने में कामयाबी हासिल की. खासकर देश के लिए नीतिगत और सामरिक
दृष्टि से महत्वपूर्ण हैदराबाद शहर में हिन्दी के कामकाज में देश के अन्य
शहरों के मुकाबले विशेषकर दक्षिण भारतीय राज्यों में एक लीड बना ली. इसमें 80 के
दशक में सिकंदराबाद स्थित केन्द्र सरकार के कार्यालय दक्षिण मध्य रेल्वे ने
अग्रणी भूमिका निभायी. आम-आदमी से जुड़े रेल्वे के कामकाज ने शहर में रेल टिकट
बाद इनका कंप्यूटरीकरण, सभी जन-सामान्य सूचनाएं, जगह-जगह हिन्दी में स्टेशनों के नाम शहर से गॉंव तक पहुँचने लगे. आम जन
में अंग्रेजी की जगह हिन्दी में घोषणाएं, सूचनाएं जारी की
जाने लगी थीं जिन्हें लोग अधिक पढ़ा-सुना करते थे. इस विभाग में आंतरिक कामकाज भी
हिन्दी में होने लगा था. इस दौरान विशेषकर तकनीकी सामग्री और शब्दावली का अनुवाद
तेजी से हुआ. हिन्दी की वजह से ही लोगों में केन्द्र सरकार कार्यालयों की एक खास
पहचान बनी. आम आदमी के लिए यदि किसी कार्यालय का नाम, वहॉं
के विभाग-अनुभागों के नाम और अधिकारियों का विवरण पहले हिन्दी और बाद में
अंग्रेजी में लिखा हो तो यह केन्द्र सरकार के कार्यालय होने की पहचान बन गयी थी.
आम आदमी अपने कामकाज के लिए अंग्रेजी की जगह यहॉं की बोल-चाल की हिन्दी और प्रांतीय
भाषा का प्रयोग कर अपने कामकाज निपटाने लगा था. आम जनता और कर्मचारियों को मिलने
वाली सूचनाऍं, सामान्य आदेश, अनुदेश, प्रकाशित निविदाएं, प्रेस सूचनाएं, रिपोर्टें, नियमावलियॉं,
तकनीकी लेख, पत्र-पत्रिकाऍं व अन्य दस्तावेज विवरण सहित हिन्दी
में भी जारी और प्रकाशित होने लगे. इससे जन-सामान्य और कर्मचारियों में हिन्दी
के प्रयोग और आपसी वैचारिकता के आदान-प्रदान की भावना पनपी. इसमें शुरूआती पीढ़ी
के हिन्दी अधिकारियों और स्टाफ ने सीमित संसाधनों के बावजूद जीतोड़ मेहनत कर
हिन्दी के कार्य को राष्ट्र निर्माण और जन-सामान्य को शासन से जोड़े रखने का
काम बनाने में स्मरणीय भूमिका निभायी.
इस तरह 80 और 90 के दशक के आते-आते केन्द्र सरकार, सार्वजनिक उद्यम
और राष्ट्रीयकृत बैंकों में राजभाषा विभाग-अनुभाग अच्छी तरह स्थापित हो चुके
थे. शहर में दो सौ से अधिक सरकारी कार्यालय होने और इनमें बढ़ते हिन्दी के कामकाज
को देखते हुए सन् 1995 में केन्द्र सरकार के कार्यालय,
उद्यम और बैंकों में कामकाज की समीक्षा करने वाली सरकार की नगर राजभाषा कार्यान्वयन
समिति अलग कर दी गयी जो पहले रेल्वे के समन्वयन से चला करती थी. इसके बाद तीनों
वर्गों के कार्यालयों में अपनी-अपनी कार्य प्रकृति अनुसार कामकाजी सुविधाओं और
कठिनाइयों को आपस में मिलकर कदम उठाये जाने लगे. उद्यमों की दृष्टि से शहर में
नेशलन मिनरल डेवलेपमेंट कारपोरेशन (एन एम डी सी), हिन्दुस्तान
एरोनॉटिक्स लिमिटेड (एच ए चल), तत्कालीन इंडियन टेलिफोन
इंडस्ट्री याने आई टी आई (वर्तमान बी एस एन एल), भारत हेवी
इलेक्ट्रीकल्स (बी एच ई एल), एच एम टी, एअर इंडिया लिमिटेड, भारत डायनामिक्स लिमिटेड (बी
डी एल), इलेक्ट्रॉनिक्स कारपोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड (ई सी आई एल), कर्मचारी राज्य बीमा निगम (ई एस आई), भारतीय जीवन
बीमा निगम (एल आई सी), न्यू इंडिया एश्योरेन्स, ओरिएंटल इंश्योरेन्स कंपनी लिमिटेड, नेशनल इंश्यूरेन्स
कंपनी लिमिटेड, एअर
इंडिया लिमिटेड आदि कार्यालयों ने तकनीकी और गैर-तकनीकी क्षेत्रों में हिन्दी के
कामकाज को आगे बढ़ाने में अग्रणी भूमिका निभायी. ऐसे में उद्यमों में हिन्दी के कामकाज, इसके प्रचार-प्रसार को देख शहर के विश्वविद्यालयों में पढ़ने वाले
छात्रों में भी रोजगार मिलने की दृष्टि से उत्साह जागा. इस तरह साहित्य के पठन -पाठन
के अतिरिक्त शहर में राजभाषा के रूप में हिन्दी के प्रति माहोल बना और दिलचस्पी
बढ़ने लगी. धीरे-धीरे साहित्यक वर्ग और राजभाषावर्ग के साथी आपस में मिलकर हिन्दी
को नयी दिशा देने में लग गये. कहा जा सकता है कि 70 से 90 के दशक में हैदराबाद ने
साहित्य और राजभाषा के कामकाज के नज़रिये से देश में अपने लिए एक खास पहचान बना
ली.
इन्हीं सब कारणों से आज
नगर के पॉंच विश्वविद्यालय सहित दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा और हिन्दी
प्रचार सभा में हिन्दी की स्नातकोत्तर पढ़ाई की सुविधाएं मौजूद हैं. विशेषकर
हैदराबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय में तो कुछ वर्षों पूर्व ‘एम ए- फंक्शनल हिन्दी अण्ड ट्रान्सलेशन’ शुरू किया
गया जो राजभाषा के रूप में कार्यक्षेत्र अपनाने वाले छात्रों के लिए बहुत उपयोगी
है.
वर्तमान में हैदराबाद में
पचास से अधिक सार्वजनिक उद्यमों के छोटे-बड़े कार्यालय हैं जहॉं राजभाषा के रूप
में हिन्दी का काम बहुत आगे बढ़ चुका है. सन् 2000 के बाद से देश की खुली आर्थिक
नीति, निजीकरण और कंप्यूटरीकरण का परिणाम देश और शहर के कई सरकारी उद्यमों पर
दिखायी देने लगा. इनमें कुछ उद्यम जैसे प्रागा टूल्स, हिन्दुस्तान
केबल्स, एच एम टी, आई डी पी एल, कंप्यूटर मेंटेनेंस कॉरपोरेशन आदि ‘कमाओ और खाओ
नीति’, मल्टी नेशनल कंपनियों के साथ प्रतियोगिता और अतिकल्याणकारी
नीतियों की वजह से बंद हो गये. शहर के जितने भी सरकारी उद्यम हैं उन पर आज मासिक, तिमाही, छ:माही और सालाना लक्ष्यों को प्राप्त
करने, लाभ कमाने, खुद को बनाये रखते
हुए कार्यवैविध्य लाने का जबरदस्त दबाव है. इसके प्रतिदबाव में राजभाषाकर्मी भी
समयबद्ध तरीके से कामकाज निपटाने के लिए मजबूर हैं. ‘काल करे
सो आज कर’ उक्ति आज के हालात में राजभाषाकर्मियों पर पूरी
तरह हावी है. पिछले लगभग 15 सालों में हुए सरकारी कामकाज के कंप्यूटरीकरण से राजभाषा
के कामकाज समय से निपटाने और बहु कार्य विशेषज्ञता हासिल करने का जबरदस्त दबाव
पड़ा है. हिन्दी में कंप्यूटर पर काम करने तकनीकी सुविधाओं का अभाव और राजभाषाकर्मियों
में कंप्यूटर व अन्य तकनीकी जानकारियों का सीमित ज्ञान या अभाव इसे कई स्थितियों
में दुष्कर बना जाता है. सरकार नये-नये प्रशिक्षण देकर इसे दूर करने का प्रयास
अवश्य कर रही है पर कंप्यूटर क्षेत्र से आ रहे नित नये परिवर्तनों की गति के साथ
चल पाना कठिन हो रहा है. आज लैन, वैन,
सैप, ई-प्रशासन, ई आर पी, ऑनलाइन सेवाओं जैसे कंप्यूटरीकृत अनुप्रयोग आ जाने से हिन्दी को इनमें
समाहित करना चुनौती और खर्चीला काम बना गया है.
दूसरी ओर सन् 70 के बाद की
पीढ़ी अब सेवा-निवृत्त हो चुकी है. नयी पीढ़ी आने में समय लग रहा है. पहले विश्वविद्यालयों
में जिस गंभीरता से साहित्य के छात्र हिन्दी व इसकी अन्य विधाएं पढ़ा करते थे
उसमें भी कमी आयी है. हिन्दी के पदों के लिए हो रही विभिन्न परीक्षाओं में योग्य
उम्मीदवारों का मिलना कठिन हो गया है. पहले हिन्दी के ज़रिये केवल अध्यापन या
शिक्षण क्षेत्र में अवसर अधिक हुआ करते थे पर आज राजभाषा, पत्रकारिता, इलेक्ट्रानिक मीडिया, ई-व्यवसाय, तकनीकी लेखन, अनुवाद, विज्ञापन लेखन, हिन्दी में मार्केटींग, डी टी पी व अन्य बाजारी कामकाज
में हिन्दी की जबरदस्त संभावनाएं बन गयी है. देश में स्थित विश्वविद्यालयों, खासकर हैदराबाद के संबंध में यहॉं के संस्थानों और विश्वविद्यालयों को
इस नज़रिये से हिन्दी शिक्षण पर ध्यान देना होगा. अन्यथा इतनी मेहनत से बनी
हैदराबाद की अपनी पहचान अपने में सिमट कर रह जाएगी.
इस लेखन का उद्येश्य यही
है कि हम अपनी स्थिति पर नज़र डालें और आगे क्या और कैसे किया जाना है इस पर
विचार करें. हिन्दी के कामकाज से उद्यमों को सीधे तौर पर उत्पादन से प्राप्त
जैसे आर्थिक लाभ अवश्य न दिखाई दे पर हिन्दी ने संगठनों और उद्यमकर्मियों को जिस
तरह आपस में जोड़कर काम का एक जस्बा प्रदान किया है वह किसी भी आर्थिक लाभ से
बढ़कर और उससे अधिक आवश्यक है.
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