आखिरकार
26 मई को चौपन दिनों तक चले आई पी एल ‘फटाफट’
क्रिकेट का समापन मुंबई इंडियन्स की जीत और सचिन के खाते
में बचे इस कप के पाने की विदाई के साथ खत्म हुआ. संभवत: यदि यह बिना किसी हो-हल्ले
के खत्म हो जाता तो शायद इस पर सट्टाबाजारी के साये के बदले खेल की नयी तकनीक, ताकत और खेल-कला के बेजोड़ इस्तेमाल पर
शायद अधिक लिखा जाता.
अब
तक आई पी एल के छ: संस्करण हो चुके हैं. बीस ओवर क्रिकेट का यह नया फारमेट साल
2003 में इंग्लैण्ड और वेल्स क्रिकेट बोर्ड ने वहां के क्लबों के लिए आरंभ
किया था. फुटबाल और अन्य प्रचलति खेलों की तर्ज पर शुरू किये गये इस खेल के
संक्षिप्त रूप ने भारत में जल्द ही जड़ें जमा लीं. वैसे भी हमारे यहॉं क्रिकेटपंथियों
ने इसे धर्म की हद तक पहुँचा दिया है तो सटोरियों के लिए इसका हर फारमेट कमाई की
पक्की रसीद होता है. ऐसे में इसके
बाजारियों के लिए टी-20 एक लक्की लॉटरी बन सामने आया.
टी-20
के रूप में क्रिकेट की शुरूआत से पहले खूब बहसें भी हुई. अपने समय के मशहूर कलात्मक
सलामी बल्लेबाज सुनील गावस्कर ने देश में इसकी शुरूआत के लिए इसका जमकर समर्थन
किया तो उनके समवर्ती खिलाड़ियों की कुछ और राय थी. ये अलग बात है कि अब भी इसे खेलने
की दृष्टि और क्रिकेट के मुख्य फारमेट पर इससे पड़ने वाले प्रभाव पर आज भी
विशेषज्ञ अलग-अलग राय रखते हैं. अत: यह आरंभ से ही विवादों के घेरे में रहा. पेशेवर
ब़ाजारियों के लिय यह ‘शाम
की शेयर ट्रेडिंग’ साबित होने लगा. आनन-फानन
और देखते ही देखते क्रिकेट की सर्वोच्च बॉडी आई सी सी ने भी इसे मान्यता देते
हुए इसका विश्व कप करा दिया. 1983 की तरह बिना किसी उम्मीद रखे हमने T-20 का
पहला विश्व कप भी जीत लिया और वह भी पाकिस्तान को हराकर. बस इसी के साथ सटोरियों
और सट्टेबाजों के इस खेल को लेकर पौ बारह हो गये.
मौका
ताड़ ललित मोदी ने इसे आई पी एल का रूप देकर देश में कॉरपोरेट घरानों और बॉलीवुड का
एक और ‘चीयरफुल’ कारोबार का जरिया
बना दिया. इससे होने वाली पैसे की उगाही और शौहरत को देख सभी ‘बड़े’ ‘बहती
गंगा में हाथ धोने’
शामिल हो गये. इसकी सफलता से ललित मोदी का कद और भी ऊँचा हो गया. अक्सर शोहरत
पाने में कुछ जरूरी काम छूट जाते हैं या ‘आगे देख लेंगे’
सोच छोड़ दिये जाते हैं. इस चैंपियनशिप से बी सी सी आई को हुई कमाई में गड़बड़ी
दिखाये जाने के चलते ललित मोदी पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे और इसे कारोबारी रूप
देने वाले ‘सुमोज़’ ने उन्हें रिंग से बाहर कर दिया. आज वे
विदेश में शरण लिये हुए हैं.
वैसे
क्रिकेट के व्यवसायीकरण का श्रेय जगमोहन डालमिया को जाना चाहिए जिन्होंने 1987 में
भारत में हुए ‘रिलान्स‘ विश्व कप से इसमें
जबरदस्त कमाई की संभावना को पहली बार उजागर किया. इसके बाद से उन्हें प्रसिद्ध
खिलाड़ी और कमंटेटर रवि शास्त्री ‘जग्गू
दादा’ के नाम से अभिहित
करने लगे. तब से अब तक किसी भी तरह के क्रिकेट का फारमैट और प्रतियोगिता उद्योगपतियों
और राजनेताओं के कारोबार के चंगुल से नहीं बच पायी है. खासकर फुटबाल और हॉकी की तर्ज
पर फिट किया गया यह ‘फटाफट’ T-20 क्रिकेट अब पहली पसंद
बनता जा रहा है.
मेहनत की जाए तो संभव है कि कोई परीक्षा
पास कर बिना किसी सिफारिश के सिविल सर्वेंट बन जाय. पर, इसके उलट किसी अच्छे खेल प्रशासक और अच्छे खिलाड़ी के लिए क्रिकेट के
किसी भी संघ में सदस्य के रूप में जगह पाना इससे भी ज्यादा कठिन और चुनौतीपूर्ण
है. वैसे भी जब कोई खेल किसी देश का धर्म बन जाए और खिलाड़ी भगवान तो फिर इनसे ऊपर
किसी का होना भी कठिन हो जाता है. भगवानों को कौन बता सकता है कि क्या सही और क्या
गलत? कौन अच्छा है और कौन बुरा? देश में एक आदत सी
बन गई है कि हम किसी भी चीज़ को गुब्बारे सा बेइन्तिहां ऊँचा उड़ा देते हैं. और, ऊॅचाई देकर बेकाबू
हो जाने पर पछताते हैं.
क्रिकेट
और क्रिकेटर सन् 50 के दशक के बाद से ही देश में लोकप्रिय होने लगे थे. धीरे-धीरे
इनका संबंध ‘बालीवुड’ से भी गहरा जुड़ने लगा. इसी सॉंठ-गॉंठ के
चलते खेल में रौनक और बहार तो आई पर साथ में पर्दे के पीछे के नायक और खलनायक भी साथ
लायी. अस्सी के दशक के आते-आते शारजाह, भारत और पाकिस्तान को लेकर दुबई के रेगिस्तान में क्रिकेट को हवा देने
के नाम पर भावनाओं के आड़ में खेल कारोबारी मिसाल साबित हुआ. शारजाह से पहले तक
क्रिकेट से पैसा कमाया जा सकता है इसकी सोच और सूझ भी शायद खिलाड़ियों में कभी रही
हो. चंद ही दिनों में शारजाह में शेखों के द्वारा शुरू किया गया क्रिकेट - खेल, खूबसूरती और ख़िताब का खुला मैदान बन
गया.
जब
खेल के नाम पर पहली बार अज़रूद्दीन,
अजय जडेजा और मनोज प्रभाकर के नाम खेल में सौदेबाजी की कालिख पुती तो इस छक्के से
आम लोगों के सर से भरोसे की छत उड़ गई. ऐसा होना कुछ गैर मामूली था. हमने शारजाह
में कइयों बार भारत को सारी ताकत लगाकर भी जीतते कम और हारते ज्यादा देखा था. हमें
लगता था ‘गिरते हैं शाह सवार
मैदाने जंग में’. उठ खड़े होंगे और कपिल पाजी कुछ न कुछ कर जीता ही देंगे. पर, इमरान खान और
सरफ़राज नवाज़ का गावस्कर को बोल-बोल कर आउट करना, जावेद मियांदाद का आखिरी गेंद पर चेतन शर्मा को रसीद किया गया ‘छक्का’ और आक़ीब जावेद व जलालुद्दीन की ‘हाइट्रीक’
मानो भारत-पाक की जंग में पाक की हुई हार का बदला थी. दूरदर्शन पर रूक-रूक कर आते
प्रसारण पर टक-टकी बॉंधे,
सॉंसें थामे जब क्रिकेट देखते और हार होती तो कईयों की भूख और नींद उड़ जाती. घण्टों
और दिनों तक खिलाड़ियों द्वारा खेले गए गलत शॉट और कप्तान द्वारा लिये गये गलत
निर्णयों की गली चौराहों पर ‘थ्रेड
बेयर एनालिसिस’ होती. इनके चक्कर में पढ़ाई में भी कई बच्चों का सूपड़ा साफ हो जाता.
खुदकुशियॉं हो जातीं. टी वी फोड़ देना, रेडियो तोड़ देना आम बात तो सड़के और गलियॉं सून-सान हो जातीं. हैदराबाद
शहर के एक हिस्से में भारत की जीत पर जश्न और हार पर दूसरी ओर खुले आम मातम का
साया रहता. कई बार तो पाक की हार पर पुराने शहर में घरों पर पथराव और चाकूज़नी की
वारदातें भी हो जातीं. यह वह दौर था जब क्रिकेट दो देशों और यहॉं के लोगों के बीच
आपसी संबंधों की डोर बन गया था. लेकिन, क्या पता था कि इन सबके बीच फिल्मों में कालाधन लगाने वाला ‘अंडर वर्ल्ड’ हम सबकी ऊबलती भावनाओं पर अपनी रोटी सेंकता रहा. कट्टरपंथ
इस्साम ने हमें नीचा दिखाने और हम पर हमला करने का ‘खेल’ के ज़रिये भी कोई
मौका नहीं छोड़ा. हम थे कि इसे खेल समझकर खेलते
रह गये और हार को खेल की टोपी समझ पहनते रहे.
जब
शारजहा में ज़मीर बेचने और खरीदने का सच सामने आया तो लोगों ने खेल और खेलनेवालों
को उतार फेंका. खेल और खिलाड़ी इससे दूर होने लगे. किसी तरह समय बीता, सदी बीती. लोग
धीरे-धीरे कर शारजाह और क्रिकेट में अंडरवर्ल्ड व सट्टे के कारोबार को भुलाने लगे
थे. इसी बीच सौरव गांगूली ने ‘सहारा’ द्वारा प्रायोजित भारतीय टीम के कप्तान
के रूप में खेल की ग़रिमा को लौटाते हुए युवाओं को मौका देकर देश और देश के बाहर
जुझारू क्रिकेट खेलने का जस्बा दिया. वे सबसे सफ़ल कप्तान भी बने. उन्हीं की
बदौलत भारत इंग्लैण्ड में खेले गये विश्वकप में फाइनल तक पहुँचा पर हार गया.
लोगों ने इस ईमानदार मेहनत और जज़्बे को सलाम करते हुए क्रिकेट को गरमजोशी के साथ
फिर हाथों-हाथ लिया. नयी टीम, नये खिलाड़ी, इंग्लैण्ड,
आस्ट्रेलिया और साउथ-अफ्रिका जैसे देशों में जाकर उनकी मॉंद में उन्हें ही मात
देकर आने लगे. पाकिस्तान को केनेडा जैसे न्यूट्रल वेन्यू पर कई बार पटखनी दी.
धीरे-धीरे जेंटलमेन गेम कहा जाने वाला खेल फिर से मान-सम्मान और प्रतिष्ठा का
खेल बनने लगा. आस्ट्रेलिया ने खेल में एक नयी चीज़ किल्लर इंस्टीटक्ट पैदा कर
दी. सत्तर से अस्सी के दशक में जिस भावना से वेस्टइंडीज़ के खिलाड़ी खेलते थे, उनके बिखर जाने के बाद आस्ट्रेलिया ने
इसे अपना लिया और इसे ख़ासकर इंगलैण्ड और उसके बाद सभी टीमों के ख़िलाफ आज़माया. जब
जॉन राइट भारतीय टीम के पहले विदेशी कोच बने तो उन्होंने भी इस पर काम किया. परन्तु
गॉंगुली के बाद राहुल और उनके बाद जब धोनी कप्तान बने तो उन्होंने इस किल्लर
इंस्टिक्ट को साउथ अफ्रिकी खिलाड़ी और कोच रहे गैरी कर्सटीन के साथ मिलकर घुट्टी
की तरह टीम के खिलाड़ियों को पिलाया. नतीजतन भारत 1983 के बाद 2011 में विश्व कप
जीतने में सफ़ल रहा. इन दो-तीन दशकों के खेल की खास बात यह रही की खेल के पीछे और
खेल के साथ खेला जाने वाला सट्टा और बेटिंग इस दौरान भी चलता रहा पर यह हमारे देश
में होने वाले किसी भी लोक सभा के सफल आम चुनाव में होने वाली छुट-पुट घटनाओं के
समान था.
इसी
गहमागहमी में आई पी एल का
बीस-बीस का खेल युवाओं में सर चढ़कर बोलने लगा. फिल्मी हीरो-हिरोइनों सहित उद्योगपतियों ने करोड़ों
रुपयों की बोली लगाकर खिलाडि़यों को नीलामी कर बाजारू बना दिया. पैसे के वजन ने
वजन से वजनदार खिलाड़ियों को भी नीलाम होने पर मजबूर कर दिया. और इस तरह शुरू हुआ
पैसे और ताकत की चकाचौंध का यह आई पी एल फारमेट. कहते हैं पानी जहॉं से बहता है
उसके आस-पास का इलाका भी तर और हरा हो जाता है. तो, टीमों के मालिकों के साथ
छोटे-बड़े सट्टेबाजों की जेबें भी हरी-भरी हो गईं. पहले ही आई पी एल में शेन वार्न
ने खेल छोड़ने के बावजूद बिना उम्मीद खेली अपनी टीम को चैंपियन बना दिया. छोटे
कस्बों के आये खिलाड़ियों से मिलकर बनायी गयी इस टीम ने अचानक अन्जान रहने वाले
खिलाड़ियों में नाम और पैसे की आस जगा दी. आगे के आई पी एल में ऐसे हर खिलाड़ी ने
एक ही लक्ष्य रखा. टेस्ट टीम या वन डे में जगह मिले या नहीं आइ पी एल में जगह
मिल जाए तो जिन्दगी की नैया पार हो जाए. फिर क्या नामी-बेनामी सभी आई पी एल
खेलने खिंचने लगे. 15-16 मैच खेलो और चार-पॉंच करोड या दसियों करोड़ ले जाओ.
विज्ञापन और दूसरे जरियों से होने वाली गाढ़ी कमाई अलग.
अंदाज लगाइये 1983 में इंगलैण्ड में हुए प्रुडेंशियल
विश्व कप खेलने जाते समय हमारे क्रिकेट बोर्ड के पास कपिलदेव की टीम को दो से
तीसरे यूनिफार्म की जोड़ी देने का ज़रिया नहीं था. ऐसी सीधी-सादी टीम ने वह विश्वकप
जीता था. वह भी वेस्टइंडिज को हराकर जो आज भी सोचकर कठिन लगता है. पता नहीं उन्हें
उस समय आज का एक शतांश भी पैसा मिला हो या
नहीं. ऐसे में आज करोड़ों की बारिश में खेले जा रहे क्रिकेट में कैसे सब कुछ
पाक-साफ हो सकता है. अरबों लगाएं तो वापस कमाएं कैसे. मनमोहन जी ने कहा था ‘पैसे कोई पेड़ पर तो नहीं
लगते’. खेल का हर सेकण्ड बिकाऊ. खेल के लिए नये-नये विज्ञापन, हर शॉट पर नाचने वाली चीयर गर्ल्स, नये-नये स्टेडियम, सटेडियमों में कॉरपोरेट बाक्सेस, 30-40 प्रतिशत टिकट व्यापारियों के लिए आरक्षित, व्यापारी और खिलाड़ी एक ही वी आई पी क्षेत्र में बैठें, हर रन, छक्का-चौका, कैच, विकेट, क्षेत्ररक्षण सब पर बोली
और बिकाऊ. खेल व्यापारियों की गिरफ्त में हो तो वे कहीं से भी, किसी से भी कमाई का ज़रिया
निकाल लेते हैं. यही हुआ भी. ऐसे में खेल का फिक्स होना, सट्टा लगना या बेटिंग
उनके लिए एक आम बात तो हमारे लिये हैरान करने वाली बात है.
खेल और जंग में सब जायज़ है. यह सदियों
से लगता आया है. तकलीफ इस बात की है कि बाहर बैठ ऐसा करने वाले कभी पकड़ में आते
हैं तो कभी नहीं आते. लेकिन, इसमें जब खिलाड़ी पैसे देकर मिला लिये जाएं तो हाल ही
के आई पी एल में घटी राजस्थान रायल्स की घटना जैसे बन जाती है. दिनांक 15 मई की देर शाम दिल्ली पुलिस द्वारा राजस्थान
रायल्स के तीन खिलाड़ियों को जाल बिछाकर पकड़े जाने पर की गई पूछताछ से सामने आया
कि केरल राज्य के अब तक के दूसरे तेज गेंदबाज श्रीसंत (पहले टीनू योहानन), अजीत चंडिला और अंकीत चव्हान इस खेल के स्पाट फिक्सिंग में संलिप्त
हैं और इनके खिलाफ़ ठोस सबूत भी पुलिस ने बरामद किये हैं. इनसे अब तक की पूछताछ और
टी वी फुटेज भी ये बता रहे हैं. इसमें इन खिलाड़ियों के अलावा विंदु दारा सिंह और
चेन्नई सुपर किंग्स के मालिक या मालिक के दामाद मणिअप्पन भी शामिल हैं. शुरूआती
जॉंच ये भी बता रही है कि ये सभी छोटी मछलियॉं हैं और अंदाजन चालीस हजार करोड़ के देश
में फैले इस काले कारोबार के तार शारजाह की तरह अंडरवर्ल्ड से जुड़े नज़र आ रहे
हैं. याने हमारे लोगों के ज़रिये हमारे ही खिलाड़ियों को लेकर माल वो कमाएंगे और
कालिख हमी पर पोतेंगे. शोचनीय यह है कि हाल की नक्सली घटना में श्री विद्याचरण
शुक्ल के निजी सुरक्षा अधिकारी श्री प्रफुल शुक्ल ने खुद को यह कहकर गोली मार ली
कि ‘क्षमा करें सर, आखिरी गोली है, हम आपको इनसे नहीं बचा पा रहे हैं’. ऐसी घटना आज के ज़माने
में वफादारी की पराकाष्ठा है. धन्य है ऐसे वीर और साहसी अधिकारी. पर, क्या इन खिलाड़ियों के पास ज़मीर बेचने से पहले इतनी भी सोच नहीं कि ये देश
द्रोह करने जाने जा रहे हैं. क्या इन्हें पैसे की चमक ने अंधा कर कायर बना दिया
था जो कालाबाजारी के आकाओं से लड़ने और भिड़ने की हिमाकत भी न दिखा सके.
जैसे आरंभ में कहा गया, विवादों से भरे इस
फारमैट में यह सब अपेक्षित ही था. जैसी संभावनाएं थीं, सामने आ रहा है. दीगर ये है कि इस अपेक्षित से दुनिया के सबसे अमीर
क्रिकेट बोर्ड में शामिल राजनेता और उद्योगपति क्यूं और कैसे अंजान बैठें रहे? मैच फिक्सिंग में संलिप्त रहने वाले खिलाडियों के लिए सजा देने या
कार्रवाई करने कोई सख्त कानून क्यों नहीं तैयार किया? क्या यह किसी भी दलील के चलते स्वीकारा जा सकता है. वह भी फिक्सिंग
काण्डों के लंबे और सिलेसिलेवार इतने किस्सों के बाद. इससे होने वाले अपमान और
ज़लील करने वालों खिलाड़यों से टीम और देश एक से ज्यादाबार गुजर चुका है, इन सबके बावजूद कानून नहीं होने की दुहाई देना कहीं न कहीं अपनी जिम्मेदारी
से मुँह मोड़ इस सट्टेबाजी और कालाबाजारी का मूक समर्थन ही जान पड़ता है.
‘वो उफ भी करते हैं तो
आसमॉं सर पर उठा लेते हैं, हम खत्म भी हो जाएं तो चर्चा नहीं होता’. क्या हो गया है इन राजनीति और उद्योग के कर्णधारों को. संसद में किसी
काली करतूत की भनक पर ये सरकार हिला दें और देश सर पर उठा लेने वाले आज खामोश क्यूं
हैं. केवल ‘कानून अपना काम करेगा. हम सहयोग देंगे’ कहने से बात नहीं बनने वाली. लंगड़े और लाचार कानून के सहारे ऐसे देशद्रोह
और द्रोहियों को कुचला नहीं जा सकता. ये केवल सट्टा या बेटिंग नहीं. ये कट्टरपंथ
का ‘कारोबारी वार’ है. यदि अब नहीं जागे तो
उद्योग और बॉलीवुड के
इस ‘चीयरफुल’ कारोबार में लगाई
गई सेंध धीरे-धीरे पूरे देश की आर्थिक नींव को हिलाकर रख देगी. समझना होगा कि यह
केवल उद्योग और बॉलीवुड का एक और ‘चीयरफुल’ कारोबार नहीं, हमें धीरे से दिया
जा रहा एक ज़ोर का झटका है.
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