‘धुऑंधार’ जबलपुर की शाम
बिताने के बाद दूसरे दिन सुबह इडली और पूरी-सब्जी का नाश्ता कर कलचुरी से विदा
लिए. भीमबेटका, भोजपुर देखते हुए सॉंची पहुँचना था. इसीलिए
लगभग 350 किलोमीटर की दूरी आठ घंटो में तय करनी थी. जबलपुर से कुछ किलोमीटर के बाद
शहर से बाहर आए तो बेहाल सड़क का असली चेहरा सामने आया. यह राजमार्ग है जो दिल्ली
तक जाता है. ड्राइवर ने बताया कि इसे फोर-ट्रैक बनाया जा रहा है. जगह-जगह काम चल
रहा था. रास्ते भर हेवी ट्रक और वाहन. गाड़ी, चल कम रही थी
और झूल ज्यादा रही थी. अब तक की थ्री स्टार ए सी यात्रा का यह ‘जनरल’ रूप था. कड़ी धूप,
ऊबड़-खाबड़ सड़क और झूलती गाड़ी. लगभग आधी दूरी तय करने के बाद ड्राइवर चाय के लिए
एक ढाबे पर रुका. हमने भी चाय पी और दोपहर दो बजे के करीब एक और जगह सरदार जी के
नये दिख रहे ढाबे पर रोक ड्राइवर ने खाना खाया. मेरे साढू भी लगे हाथ भोजन कर लिए.
मैं चॉंवल के बने पापड़ों के साथ हेमन्त जी का साथ देने बैठ गया. बड़े स्वादिष्ट
थे. हम सबने ठंडा-गरम और पान लेकर लगभग एक घंटे बाद भीमबेटका देखने निकल पड़े.
कड़ी धूप में यहॉं पहुँच प्रवेश किया. सड़क से तो कुछ नहीं दिखायी दिया. भीतर पहाड़ी पर गये तो चौतरफ सूखी झाड़ियां और ऊँची-ऊँची शैल गुफाएं. यह
संरक्षित विश्व विरासत घोषित पर्यटन स्थान है जहॉं पूर्व पाषाणकाल से लेकर मध्य
और बाद के पाषाणयुगीन आदिमानव द्वारा गुफाओं में रहकर पत्थरों पर बनाये गये शैल
चित्र हैं. संभवत: अफ्रिका के बाद भारत में यह एकमात्र स्थान होगा जहॉं इतने
पुराने समय से मनुष्य होने और रहने के प्रमाण मौजूद हैं. भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण
विभाग द्वारा दी गई जानकारी अनुसार यहॉं लगभग 500 ऐसी विशाल और अति प्राचीन गुफाएं
हैं जिनमें से केवल 15 गुफाएं ही देखने के लिए खोली गयी हैं. अन्य में काम चल रहा
है. ये गुफाएं देखते हुए लगा कि स्कूल की सामाजिक अध्ययन की किताब में मानव सभ्यता
के आरंभ और विकास के बारे में पढ़ते हुए जो चित्र किताब में थे वे यहीं के थे.
पाषाणकालीन समय में आदमी द्वारा पत्थरों से बनाये गये अलग-अलग हथियार और काम की
अन्य चीज़ें. यहॉं लगभग एक लाख साल से चालीस हजार साल पुराने प्रमाण हैं. अंदाज
लगाएं कि हम कितने आदिम हैं. बेटी को मैंने ये सभी बातें बतायी और समझाया. गुणाजी
तो अब कॉलेज जाने लगा है तो उसे इन सबसे कुछ खास लेना-देना नहीं था. वैसे भी
दक्षिण में विशेषकर आन्ध्र-प्रदेश में बच्चे एक ही विषय जानते हैं, वह है विज्ञान (कैसा और कितना?). एम पी सी पढ़ो और इंजीनियर बनो. आजकल तो केवल इंजीनियरिंग नहीं, आई आई टी ही पहला और आखिरी निशाना है बच्चों का. पिछले कुछ सालों के इस
माहोल ने यहॉं सोशल साइन्सेस और अन्य विषयों की पढ़ाई का ढॉंचा लगभग खत्म कर
दिया है. कुकुरमुत्तों की तरह जगह-जगह गली-कूचों में खुल आए प्राइवेट और कॉरपोरेट
कॉलेज. अन्य कॉलेज, विश्वविद्यालय में विज्ञान छोड़ किसी
विषय में बच्चे नहीं. लेक्चरर विज्ञान में सीट नहीं पा सके बच्चों को पकड़-पकड़, उनकी फीस भर अपनी नौकरी के मारे, मिन्नते करते हैं
कि ‘एडमिशन ले लो प्लीस’. यहॉं बच्चों
की पढ़ाई मॉं-बाप के लिए भविष्य का इन्वेस्टमेंट होती है. हम तो हिन्दी मीडियम
से भी पढ़कर लग गये पर इन बच्चों का न जाने क्या हो. लाखों में इंजीनियर और
काम के दाम कौड़ियों में. मालिक करे ज्ल्द ये मॉं-बाप, बच्चों
और सरकार को समझ आ जाए कि ‘और भी गम है ज़माने में, मोहब्बत के सिवा गालिब’. वरन् समाज-विज्ञान और
साहित्य रहित समाज मृत और असभ्य हो जाता है.
इस बीच मैंने पूरी 15 गुफाएं चमचमाती धूप में देखीं. छात्रों के
लिए जानने-समझने यह अद्भुत जगह है. अक्सर यात्री वहीं जाते हैं जहॉं मनोरंजन हो
(भौतिक या धार्मिक). ऐसी जगहों पर अधिकतर जिज्ञासु ही जाते हैं. मेरा गुफाएं देखना
पूरा होने तक दूसरे बेचैन हो रहे थे. ऊपर से धूप की तपीश से गरम ये गुफाएं, भीतर से ठंडी थीं. भीतर ही भीतर
मुझे यह जगह देख बहुत प्रसन्नता हुई. इस जगह की भी खोज अंग्रेजों ने ही की
थी.
यहॉं से निकल अब हम भोजपुर के लिए चल पड़े. ये दोनो पर्यटन स्थल
विपरित दिशाओं में है. करीब
30 कलोमीटर पहुँच हमने भोजपुर में राजा भोज द्वारा
पॉचवीं सदी में बनाया गया शिवजी का भोज मंदिर देखा. धूप में तपे फर्श पर नंगे पैर
सीढ़ियां चढ़़ विशाल और भव्य मंदिर के दर्शन किए. जैसा नाम, वैसा काम. राजा भोज के बारे में
जैसे कहा जाता है, वैसा ही दरिया दिली से बनवाया गया लाल पत्थर
का ये शानदार पर अपूर्ण मंदिर. बाहर से सादे दिखने वाले मंदिर की दीवारें आठ 40
फीट ऊँचे-ऊँचे स्तम्भों पर टिकी हैं. चार कोनों में दो-दो स्तंभ. मुख्य गुंबद
चार और स्तंभों पर टिका है. सामान्यत: सभी मंदिर पूर्वाभिमुख होते हैं. पर ये
पश्चमाभिमुख है. भीतर चिकने पत्थर से निर्मित विशालकाय शिवलंग है. भीतर चारों
दिशाओं में गणेश, लक्ष्मी
और सीता की प्रतिमाएं भी दीवारों
में शिल्पित की गई हैं. मंदिर के बाहर ऊँचाई से वेत्रवती नदी का बचा-कुचा नहरनुमा
रूप अब भी दिखाई देता है. कहावत अनुसार यहीं पर माता कुन्ती ने कर्ण को नदी में
छोड़ दिया था. जनश्रुति यह भी है कि इसे पाण्डवों ने बनाना आरंभ किया था. जो भी हो, यह एक खूबसूरत विशाल और भव्य मंदिर प्राचीन धरोहर के
रूप में खड़ा है जो इतिहास श्रुति बन अपूर्ण खड़ा है. इसकी छत ऊपर से अपूर्ण और
द्वार नहीं हैं. द्वारनुमा कमान का ऊपरी हिस्सा देखने पर खण्डित दिखायी पड़ता
है. इससे लगता है कि यहॉं पर भी आक्रमण हुआ होगा.
मन कर रहा था कि यहॉं भी किसी से मिलकर और जानकारी इस इमारत के
बारे में ली जाए. पर धूप, देरी
और दूरी ने चलने पर मजबूर कर दिया. और, यहॉ से हम सॉंची के
लिए निकल पड़े.
शाम 6.00 बजे
के आस-पास हम सॉंची पहुँचे. सॉंची भोपाल के बाद विदिशा से 10-12 किलोमीटर पहले
पड़ता है. सीधे सॉंची स्तूप की टिकट खिड़की के पास गाड़ी रोक पूछे तो पता चला कि
और 15-20 मिनट में यह बंद होने वाला है तो इसे सुबह के लिए छोड़ हम एम पी टूरिज़्म
के होटल चले आए. पहुँचते ही हमने कमरे लेकर सामान रखा और पनीर, प्याज तथा आलू की पकोड़ी के साथ
पहले चाय आर्डर की. सुबह की इडली-पूरी हजम हो चुकी थी. बिना समय गँवाए हमने स्विमिंग
पुल देखा और स्टाफ से साफ-सफाई कर लाइट जलाने कह दिया. फ्लड लाइट तो नहीं थी पर
मीडियम साइज (15 मीटर लंबा) पुल में कम रोशनी में आधा घण्टे तैराकी कर हम ताजादम
हो गए. हेमन्त जी तब तक आई पी एल मैच का आनंद उठाते अकेले खान-पान का मजा ले रहे
थे. इस बीच हम सब भी तैयार होकर खाने चले गए. कमरे में लौटते-लौटते छोनू को तेज
बुखार चढ़ आया था. गाड़ी में लगातार पीछे बैठे रहने से खराब सड़क के झटके, गर्मी और थकान से बुखार मामूली बात थी. मेडिकल किट से दवाई निकाल दवाई
खिलाई और उसे आराम करने कह दिया. हमें चिंता तो हो रही थी कि ये और न बढ़े. बस एक
दिन की बात है और फिर कल हम भोपाल से हैदराबाद वापस चले जाएंगे. खैर, सुबह तक बुखार कम था. हम तैयार होकर 8.00 बजे के बाद नाश्ता किए और
हमारी श्रीमती जी, साली और मैं विश्व प्रसिद्ध सॉंची स्तूप
देखने चले गये. बच्चे और हेमन्त जी नहीं आए.
सुबह 9.00 बजे के आस-पास हम भीतर गए. प्रवेश पर मैंने जगह-जगह रूक
ऑडियो कमेंट्री वाला इलेक्ट्रानिक गाइड हेडफोन सहित ले लिया. यहॉं ये सुविधा 68
रुपये देने पर मिल जाती है. पूरे एक घण्टे तक हर विवरण प्वाईंट्स पर रूक कर सुना
जा सकता है. इसे इलेक्ट्रानिकगाइड कहते हैं जो भारतीय सर्वेक्षण विभाग ने तैयार
करवाया है.
यहॉं वर्तमान में तीन स्तूप हैं. अशोक के समय से लेकर 5वीं शताब्दि
तक बने स्तूप. चूने और मिट्टी (गच्ची) से बनी भारत की यह सबसे पुरानी निर्मित
इमारत है. 2300 साल पुरानी. संसद भवन की तरह एकदम गोल स्तूप को घेरी 36.5 मीटर की
दीवार लाइम स्टोन / लाल
पत्थर से बनी है. इसमें शिलाएं आड़ी और खड़ी रख चौखड़ीं या चौकोन के रूप में
बनायी गयी है. स्तूप अर्द्ध गोलाकार गुंबद की शक्ल में है जिसकी ऊँचाई 16.4 मीटर
है. स्तूप की चार दिशाओं में ईसा पूर्व पहली सदी में सातवाहन राजाओं द्वारा बनाये
गये चार तोरण द्वार है जिन पर बुद्ध के बोधिसत्व के रूप में पूर्व में और पश्चात
लिये गये 500 जन्मों की कथाएं तराश कर उकेरी गई हैं. अर्द्धगोलाकार स्तूप पर एक
छतरी और चौकोरनुमा आसान बना है जो प्रतीक रूप में बुद्ध के अस्तित्व का प्रतीक
माना जाता है. वास्तव में ये स्तूप बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार करने और उनकी
कथाओं को संरक्षित करने की दृष्टि से बनाये गये ताकि इस धर्म के अनुयायी यहॉं आकर
भगवान बुद्ध की तरह ध्यानमग्न होकर ज्ञान प्राप्ति या उसका मार्ग तलाश सकें. तोरणों
पर उकेरी कथाओं में बुद्ध के गुजरने के पश्चात कुशीनगर,
कपिलवस्तु और वैशाली के मल्लाहों में उनकी अंतिम क्रिया करने के अधिकार को लेकर
यूद्ध हुआ था जिसे जीवतं तरीके से दक्षिणी तोरणद्वार पर तराशकर दर्शाया गया है. ये
सभी तोरण कला के अद्भुत नमूने हैं.
स्तूपों की जब खोज हुई तो यहां बुद्ध से जुड़ा कोई अवशेष नहीं
मिला. इतिहासकार ये भी कहते हैं कि बुद्ध कभी यहां आए भी नहीं थे. केवल स्तूप तीन
गुप्तकालीन माना जाता है उसमें बुद्धके दो शिष्यों के अवशेष एक पत्थर की पेटी
में अंग्रेज आक्रमणकारी को मिले थे. पहले इन्हें इंग्लैण्ड ले जाया गया था जो अब
वापस लाकर प्रवेश द्वार के पास बने ‘श्रीलंका’ मंदिर में रखे गये
हैं. इन्हें दर्शन के लिए साल में एक बार शायद नवंबर माह में खोला जाता है. इस
समय यहॉं पूरी दुनिया से लोग आते हैं.
इन स्तूपों के अलावा मौजूदा खण्डहर देख लगता है कि यहां 45 मंदिर / इमारतें थीं. इनमें एक मंदिर
दो मंजिला है. एकदम आखिरी हालत में बचा और खड़ा. दूर से इसमें कुछ दिखाई तो नहीं
देता पर यह गुप्तकालीन है. इसकी विशेषता यह है कि इसकी दूसरी मंजिल पर जो मूर्ति
विद्यमान है वह ब्राह्ण समाज की श्रेष्ठ विचारधारा को बौद्ध धर्म में अपनाये जाने
को दर्शाती है. नीचे बुद्ध की मूर्ति है. यह मंदिर भारत में शुरूआती मंदिर निर्माण
कला का एक संरक्षित नमूना है. संभवत: पॉंचवी सदी या इसके आस-पास ही भारत में मंदिर
निर्माण कला का विकास हुआ था. इससे पहले मंदिर हमारे यहॉं अस्तित्व में नहीं थे.
एक घण्टे से भी ज्यादा यहां घूमने –देखने के बाद निकल आए भोपाल
रवाना होने. कुछ फोटो आदि खींच गाड़ी में बैठ हम होटल आए जो बामुश्किल एक
किलोमीटर होगा. अब तक छोनू सो रही थी. देखा तो बुखार कम था और हम सब निकल पड़े.
भोपाल यहॉं से लगभग 50 किलोमीटर दूर है. सॉंची से चार-पॉंच
किलोमीटर की दूरी पर जाते हुए हमने देखा की ‘कर्क रेखा गुजरती है’ (दि
ट्रापिक ऑफ कैन्सर) का निशान. तभी एक और बात याद आयी कि उज्जैन से भूमध्य रेखा
भी गुजरती है. याने भारत का एकदम मध्यभाग और केन्द्र बिन्दु उज्जैन है. यह
शून्य स्थान है जहॉं से गणना शुरू और आकर समाप्त होती है. संभवत: इसी गणितीय
आधार और वैज्ञानिकता के चलते स्थान को महाकाल भी कहा जाता है. याने जहॉं से सृष्टि
और समाप्ति दोनों ही होती हो.
इसी उत्साह को लिए हम दोपहर तक भोपाल पहुँच चुके थे. एकदम दोपहर
का समय था जब हम तुला-उल मस्जिद देखने पहुँचे. भोपाल एकदम हैदराबाद जैसा लगा.
हिन्दू-मुस्लिम समुदाय की बहुलता. वैसे ही पुरानी इमारतें, छोटी सड़कें, अस्त-व्यस्त ट्राफिक, सड़कों पर लगी दुकानें और
कई चीज़ें बेचते ठेले या बण्डियॉं. इस बीच मस्जिद से कुछ पहले सड़क किनारे गाड़ी
रोक संतरे खरीदे जो बदमज़ा थे. कुछ ही देर में हम मस्जिद के अंदर थे. एकदम विशाल
बरामदे वाली तीन गुंबद की मस्जिद. इसे भोपाल की रानी शाहजहॉं बेगम ने 18 वीं सदि
में बनवाना शुरू किया था जो 1901 के आते-आते अधूरी रह गई. बाद में इसकी तामीर पूरी
की गई. यहॉं करीब दस हजार लोग एक साथ नमाज
पड़ सकते हैं. हमने देखा इस कलात्मक मस्जिद के गुंबदो के नीचे मुख्य चबूतरे पर
एक बड़ा मदरसा चल रहा है. यहॉं धार्मिक तालीम के साथ अन्य विषय भी बच्चों को
पढ़ाये जाते हैं. बच्चे तो गाड़ी में ही बैठे रहे. हमने कुछ देर बिताने के बाद 12
बजे की दोपहरी के जलते फर्श पर ठहर एक-एक फोटो खींच ली और निकल पड़े. कुछ सेकण्ड
और ठहर जाते तो शायद तलवों में छाले आ जाते, फर्श इतना जल
रहा था.
रास्ते में हमने ताल-तलैया भी देखा पर यहॉं उतरे और रुके नहीं.
बरघी डैम और नर्मदा जी में नौकाविहार करने के बाद यहां इच्छा नहीं हुई. कुछ देर
न्यू मार्केट में घूमे और कुछ खरीददारी करनी चाही. पर कुछ खास मिला नहीं. दो-चार
नमूने के चूर्ण और चना जोर गरम अवश्य खाए. बाकियों ने नारीयल पानी पिया. एक अच्छी
बात यह हुई कि पिछले कई दिनों से मेरी सैण्डल में कुछ चुभने का अहसास हो रहा था
जो चुभन बढ़कर यात्राभर सताती रही. यहॉं खड़े-खड़े मोची से कहकर इसमें लगी कील
निकलवायी तो पैरों और दिल को राहत मिली. यहॉं से हम एम पी टूरिज्म की होटल ‘पलाश’ आए
और पहले से बुक कर रखा लंच किया. करीब दो घण्टे यहॉं ए सी में बिताकर स्टेशन चल
पड़े.
पहुँचकर पता चला कि कर्नाटक संपर्क क्रान्ति गाड़ी 35 मिनट लेट
है. 4 बजे की जगह 4.45 बजे आयी और हम वापसी के लिए चल पड़े. चूँकि टिकट हमने दिल्ली
से ले रखा था और बोर्डिंग भोपाल से थी तो कन्फर्म टिकट थे पर एक जगह नहीं. चार एक
जगह तो, दो
दूसरी जगह. अच्छी बात ये थी कि एक ही डिब्बे में सब थे. सामान्यत: शांत और
एडजस्ट कर लेने वाली महिलाएं यहॉं सामान रखने की जगह खाली करने के लिए लड़ पड़ीं.
कह रही थीं कि वे संख्या में 80 हैं और लखनऊ से अखिलेश यादव का कार्यक्रम कवर कर लौट
रही हैं. हमने इन सब बातों की परवाह किए बिना अपनी जगह बनायी और उनकी कुड़-कुड़ के
बीच यात्रा समाप्त करने चल पड़े.
जैसे ही सुबह काचीगुड़ा स्टेशन पहुँचे तो जैसी खुशी जबलपुर मॉं की
जन्मभूमि पहुँच हुई थी वैसी ही अपनी जन्मभूमि हैदराबाद पहुँच हुई. घण्टे भर में
घर पहुँच चुके थे और यात्रा की ऊर्जा शरीर से तो दृश्य ऑंखों में घूम रहे थे. यह सच
है कि एम पी अजब है, सबसे गजब
है. अतुल्य भारत महसूस करना हो तो एम पी हमें अवश्य घूमना चाहिए.
जल्द यात्रा पर लौटने की कामना सहित,
समाप्त.
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