कान्हा से
अमरकंटक
कान्हा छोड़ते समय लगा कि
हम भीतर से कुदरत के कितने करीब होते हैं. मेकानिकल लाइफ की आपा-धापी में हम
गैर-कुदरती जीवन शैली में बंध जाते हैं. जब भी इसके करीब आने का मौका
मिले, हमें दिली सुकून
मिलता है. इन्हीं सुकूनी लम्हों के नज़ारे भरे कान्हा से तीर्थराज अमरकंटक की
ओर चल पड़े. यह कान्हा से 165 किलोमीटर दूर 3500 फीट की ऊँचाई पर स्थित है. यहीं
से नर्मदा और सोन नदियों का उद्गम होता है. इनके अलावा यहॉं कबीर चबुतरा, कपिल मुनि का आश्रम और कपिल धारा, नर्मदा माई की बगिया, नर्मदा और सोन के अलग-अलग कुण्ड, कलचुरी राजाओं द्वारा बनाये गये पॉंचवीं शताब्दि के
संरक्षित मंदिर, तांत्रिक मंदिर, दुर्गाधारा, ज्वालेश्वर में बन रहा सबसे ऊँचा शिव लिंग मंदिर, सर्वोदय जैन मंदिर
आदि कई प्रमुख स्थल हैं.
कान्हा से अमरकंटक जाने फिर
से मांडला जिला पार करना पड़ता है. अंदाजन 100 किलोमीटर तक हमारे साथ जंगल ही
चलता रहा. बीच-बीच में चंद क्षणों के लिए मैदानी इलाका आया. पर अधिकतर वन्य
क्षेत्र ही साथ चलता रहा. दोपहर में भोजन के बाद सवा-एक बजे निकले और पॉंच बजे तक
कपिलधारा पहुँच गये. रास्ते में कई जगह छोटे-छोटे तालाब पानी से लबालब भरे दिखे. ये रास्ते में पड़ने वाले गॉंव के तालाब होंगे. हैदराबाद में पानी की मारा-मारी देख ये नजारे
सुकून भरे लगते हैं कि पानी भरा पड़ा है और कोई ले नहीं रहा. इसके साथ एक और खास बात
नज़र आयी ‘प्रधानमंत्री
ग्राम सड़क योजना’ की. लगभग हर गॉंव के
बाहर एक शिलान्यासी पत्थर लगा दिखा. ऐसा मैने पहली बार देखा. इस योजना के तहत
बीसियो सड़कें बिछी पायी जिन्हें देख हमें लगा यहॉं केन्द्र सरकार से मिलने वाले
फण्ड का यहॉं सही इस्तेमाल हो रहा है. अमरकंटक से पहले कबीर चबूतरा पड़ता है.
जनश्रुतियों के मुताबिक यहॉं कभी संत कबीर ने साधना की होगी. यह स्थान आने से कुछ
किलोमीटर पहले सड़क पर लगे घने पेड़ दोनों ओर से झुककर आपस में मिल गए हैं जिससे
गाड़ी में जाते हुए लगता है कि हम झाड़ों की गुफा से गुजर रहे हैं. इन झाड़ों के
पत्ते एकदम नये थे तो यह नजारा और भी अद्भुत था.
यहॉं से अमरकंटक हॉलीडे होम के लिए रवाना हुए और संकरी गलियों से गुजरते हुए लगा कि यह कैसी जगह बना है. पहुँचकर देखा तो बड़ा ही शानदार हॉलीडे होम है. कान्हा की तरह यहॉं भी
कपिलधारा नर्मदाकुण्ड से
निकले पानी को छोटे बांध के रूप में रोककर बहायी जा रही है. पहले यह नर्मदा कुण्ड
से निकल सीधी बहा करती थी होगी जिसे अब बॉंध के रूप में रोक छोड़ा जा रहा है. यहॉं धारा 100 फीट की ऊँचाई से गिरती और नदी खाई और जंगल से होती हुई मैदान में
प्रवेश करती है. यहॉं नीचे जाने सीढियां बनी है और इस धारा में सम्हलकर जाएं तो
स्नान भी किया जा सकता है. नीचे जाने से पहले गाड़ी रोकी और जलजीरे का पानी पीने
के बहाने भीगे चने और मुरमुरों की चाट खायी जो बड़ी स्वादिष्ट थी. पानी नदी का
नहीं कुंए का मिला जो बहुत मीठा था. इसके बाद हम सभी नीचे गये और खाई में उतरकर
जलप्रपात का आनंद लिया. वापसी में लगभग दो-तीन सौ सीढ़ियां चढ़ते हम सबका दम फूलने
लगा था. बिजली नहीं होने के कारण जो चन्द दुकानें खुली थीं वह सब बन्द हो चुकी
थीं. कच्चे मकानों में अंधेरे के कारण चिराग चल चुके थे और लकड़ियों पर खाना
बनाने की तैयारी की जा रही थी. इतने में हम सब भी ऊपर आ चुके थे.
यहॉं से अमरकंटक हॉलीडे होम के लिए रवाना हुए और संकरी गलियों से गुजरते हुए लगा कि यह कैसी जगह बना है. पहुँचकर देखा तो बड़ा ही शानदार हॉलीडे होम है. कान्हा की तरह यहॉं भी
आगमन पर थोड़ी
पूछताछ के बाद कमरे मिल गये. छोनू और गुणाजी ने दौड़कर कमरों में सामान रखवाया और
पुष्टि कर दी कि सब बढ़िया है याने शौचालय मिलाकर. कमरों में जाने तक नर्मदाजी की
आरती का समय हो आया था. यहॉं टीवी-वीवी सब लगा था तो हमारे साढ़ू और गुणाजी आइ पी
एल देखने बैठ गये. हम चार ताजा होकर आरती के लिए गये. किलोमीटर से भी कम दूरी पर
मंदिर था. पहुँचते ही मंदिर बाहर से आकर्षित करने लगा. दूर से किसी सफेद गुंबदवाले
गुरूद्वारे का अहसास हो रहा था. भीतर गये तो कुण्ड में ऊँचे स्वर और मंत्र पाठ
से आरती खत्म हो रही थी. तुरंत लगा कल फिर आना चाहिए.
कहावत अनुसार नर्मदा जी
पार्वती पुत्री हैं इसलिए इन्हें दुर्गा रूप भी माना जाता है. लेकिन इस जगह का
नाम अमरकंटक कैसे पड़ा, अब भी मन में था और इसका सही उत्तर नहीं मिल पा रहा था. कुण्ड के बगल
में जब शिव जी का मंदिर देखा तो लिखा था ‘बाबा अमरकण्ठक’. कुछ समझ में आया. याने शिव जी ने यहॉं अपने कण्ठ
में रखे विष का शमन किया था तब ऋषिकेष से 22 किलोमीटर ऊपर ‘नीलकंठ महादेव’ की याद आयी. यह स्थान भी इसी महत्व का है. लगा कि
कहीं कुछ जुड़ नहीं रहा है. खैर, दिल-दिमाग की रस्साकशी में ‘तीरथ-परशाद’ लेकर कुण्ड के सामने देखा कि एक दो-ढ़ाई फिट ऊँचा, काले पत्थर का हाथी बना है. इसे इस तरह बनाया गया है
कि इसके पैरों के बीच से हर मोटा-दुबला आदमी गुजर सकता है. कुछ लोग कोशिश कर रहे
थे. मैं भी जोर-आजमाइश करने फर्श पर लेट इसके पैरों के बीच से गुजरने की कोशिश करने लगा.
लोग चिल्ला रहे थे. भाई साहब निकल गये, निकल गये (सुनकर लगा किसके भाई साहब निकल गये. हैदराबाद में निकल जाने का
मतलब होता है पगला जाना या अजीबो-गरीब हरकतें करना. किसी अजीब हरकत पर यहॉं कहा
जाता है, क्या रे निकल
गया क्या?) ताकत लगाते-लगाते मन ही मन में ये सुन गुदगुदी हुई तो थोड़ी कोशिश के बाद खुद को वापस खींच लिया. एक आदमी ने कहा ‘थोड़ी कोशिश करते तो आप निकल जाते’. दिल में आया कि इन्हें कैसे कहूँ कि मैं यहॉं
निकलने नहीं आया हॅूं. इस बीच 8.30 बज चले थे. सोचा यहॉं किसी से पूछा जाए. मंदिर
में बैठे पुजारी से पूछा तो उन्होंने भी नामकरण के संबंध में ऐसी ही जानकारी दी.
यहां सोन ओर नर्मदा
की प्रेमकथा पूरे अंचल में प्रचलित है। कहा जाता है कि राजा मेकल (अब मेकल पर्वत)
ने पुत्री राजकुमारी नर्मदा के लिए निश्चय किया कि जो राजकुमार बकावली के फूल लाकर
देगा, उसका विवाह नर्मदा से होगा। राजपुत्र
शोणभद्र, बकावली के फूल ले आया लेकिन देर हो जाने से विवाह नहीं हो पाया.
इधर नर्मदा, सोन के रूप-गुण की प्रशंसा सुन आकर्षित हुई और नाइन-दासी जोहिला से
संदेश भेजा. जोहिला ने नर्मदा के वस्त्राभूषण मांग लिए और संदेश लेकर सोन से मिलने
चली. जयसिंहनगर के ग्राम बरहा के निकट जोहिला का सोन से संगम, वाम-पार्श्व में
दशरथ घाट पर होता है और कथा में रूठी राजकुमारी नर्मदा कुंवारी ही उल्टी दिशा में
बह चलती है याने अब पश्चिम दिशा में बहते हुए अरब सागर में जा मिलती है। जबकि सोन
पूर्व की तरफ बहती हुई बंगाल की खाड़ी में गिरती है. हमारे पास ब्रह्मपुत्र और सोन
दो नद हैं और बाकी सब नदियां.
यहां नर्मदा और सोन के साथ-साथ
जोहिला नदी का भी उदगम स्थान है। दूसरा समुद्र तल से
1065 मीटर की ऊँचाई पर यहॉं सतपुड़ा और विंध्य की पहाड़ियां भी आपस में मिलती
हैं. अत: तीर्थराज अमरकंटक में कान्हा की तरह यहां साल के पेड़ होने के साथ
सागवान और महुआ के पेड़ भी अधिक संख्या में है. साल और सागवान की खासियत से तो हम
परिचित हैं पर महुए के संबंध में ऐसा भी बताया गया कि महुए की छाल / रस का प्रयोग कच्ची शराब बनाने में
किया जाता है. इनके अलावा यहां कई आयुर्वेदिक जड़ी-बूटियां भी पायी जाती हैं. पूरे
अमरकंटक क्षेत्र में घूमते हुए ये तीनों अलग-अलग दिखायी पड़ रहे थे. पतझड़ के कारण
सागवान के पत्ते झड़ चुके थे जबकि साल एकदम हराभरा था और महुआ इतना ऊँचा नहीं
होता अत: ये भी अलग दिखाई दे रहा था.
इन सबके बीच दूसरे दिन का कार्यक्रम बना.
होटल में कुशवाहा जी से जानकारी मिल गई और ड्राइवर को भी समझा दिया कि कहॉं-कहॉं जाना है. दूसरे
दिन सुबह नाश्ता कर ताजा दम गाड़ी में बैठ पहले सोणभद्र का उद्गम (सोनमुढ़ा)
देखने गये. वास्तव में सोणभद्र के उद्गम स्थान से सूर्योदय बहुत खूबसरत दिखायी
देता है जो हम देख नहीं पाये. इस पहाड़ी से एक बारीक धारा के रूप में सोणकुण्ड से
झरने के रूप में बह सोण का उद्गम होता है और इसके बाद पहाड़ और जंगल से होते हुए यह बह निकलती है.
यहां की एक और खास बात है, यहां के लंगूर. हम जैसे ही गाड़ी रोकते हैं, चने-बटाने बंदर और लंगूरों को खिलाने, इन्हें बेचने के लिए कुछ औरतें आ जाती हैं
और इनके साथ लंगूर सेना भी. पर ये आक्रमण नहीं करते. पांच-दस रूपये देकर इन्हें
चने-बटाने डालें तो ये मस्त बैठ खाते हैं. और आपके हाथ में हो तो हाथ से लेकर खाते हैं. लगे हाथ ये भी आनंद उठा लिए.
इससे पहले रास्ते में बन रहा सर्वोदय जैन मंदिर और श्रीयंत्र स्वरूप तांत्रिक मंदिर देखा. यह जैन मंदिर गुजरात के अक्षरधाम मंदिर की तर्ज पर बनाया जा रहा है. यहां अष्टधातू की बनी सबसे ऊँची मूर्ति पार्श्वनाथ की स्थापित की जा रही है. मंदिर में कला और नक्काशी देखते ही बनती है.
श्रीयंत्र मंदिर की विशेषता है कि यह देवी का शक्तिपीठ माना जाता है और यहॉं मान्यता के अनुसार देवी के बाजू, कलाई का हिस्सा गिरा था. मंदिर पिछले 27 सालों से निर्माणाधीन है. बनावट से लगता है कि किसी जादू-टोने की जगह प्रवेश कर रहे हैं. इसे केवल विशेष मुहूर्त पर बनाया जाता है. याने विशेष मुहूर्त जितनी देर के लिये होगा, केवल उतनी ही देर काम चलेगा और
फिर रोक दिया जायेगा. बाहर लिखा था कि भीतर कहीं भी फोटो न लें. बाहर की तो मैंने ले ली. मुख्य मंदिर का गर्भ बंद मिला और इसके बाहर रखी त्रिपुर सुंदरी की मूर्ति के समक्ष दो युवा और सौम्य साधु अध्ययनरत मिले. इन्हीं की बातचीत से जानकारी मिली. लगभग 15 मिनट तक उन्होंने मंदिर और इस जगह का माहात्म्य बताते हुए इसे मनुष्य जीवन से जोड़ा. बताया कि अभी तो हम गर्भगृह की सीढ़ियां चढ़ पा रहे हैं. जब यह बन जाएगा तो केवल विशेषज्ञ (पंडित, साधु, महात्मा आदि) ही आ पाएंगे. कठिन साधना के बाद तंत्रशक्ति सिद्धी आंख पर काली पट्टी बांध करवायी जाएगी. जो माता की शक्ति यहां ढंके रूप में मौजूद है उससे सिद्धी होगी. अनिष्ट होने की दृष्टि से इसे कोई देख नहीं सकता. अत: इसे ढंककर रखना शास्त्रों के अनुसार अनिवार्य है. ऐसा लगा गर्भ में भी शायद अंधकार ही होगा. इन सभी बातों के बीच मैं कोशिश कर रहा था कि इसमें कोई वैज्ञानिक तथ्य बाहर आए, सो आया. श्रीयंत्र की शक्ल में बन रहा मंदिर का प्रागंण बरबस ही आकर्षित करता है. प्रभावी स्थान लगा तो हम युवा साधुओं से बात करते रहे. इन्होंने बताया कि ज्योतिष के अनुसार हमारी काल गणना और पंचांग रचना चन्द्रगति आधारित है जिसे सूर्यगति आधारित होना चाहिए. इसका अध्ययन कर बदलने का प्रयास किया जा रहा है. इस परिवर्तन के बाद सब कुछ बदल जाएगा. शायद इसी बड़े काम की सिद्धी यहां की जाएगी. इन्हें अधिक न उलझाये रखते हुए हम बाहर आ गये. पर, सूचनात्मक रूप में शिलाओं पर चॉकपीस से लिखी मंदिर की जानकारी की तसवीरें ले लीं.
यहां भी कुछ समय गुजार हम दुर्गाधारा देखने चल दिये. ड्राइवर ने कहा कि साहब वहां कुछ नहीं है. मैं भी कभी नहीं गया हूँ. साफ था उसकी आने में अनिच्छा थी. उसने एक और ड्राइवर से पुष्टि भी करा दी. लेकिन उसने एक बात कही कि साहब यहां तक आए हो, कुछ ही दूरी पर है, देखते चले जाना. हमने कहा हम जरूर जाएंगे. इस पर खीज से ड्राइवर चल पड़ा.
दुर्गाधारा पहुँच देखे कि यह मंदिर के पास सड़क के नीचे से कचरे में से बहती हुई एक पतली बेजान धारा है.
मंदिर की बनावट किसी रास्ते में बने सामान्य मंदिर की तरह. मुझे छोड़ बाकी सब भी
गाड़ी से उतरने तैयार नहीं दिखे. लेकिन मैंने अपने बाकी दो को दबाकर बुला लिया. सड़क
की बांई ओर मंदिर की सीढ़ियां चढ़ ऊपर गये तो देखते हैं कि एक खूबसूरत जलधारा कुछ
ऊँचाई से गिर रही है. एकदम साफ और धूप में चमकती जलधारा. फिर क्या हम तीनों थम गये. मैं
तो देखते ही पानी की धारा में कपड़े ऊपर कर चला गया. बेगम साहिबा नाराज हो रही थी.
लेकिन मैं रुका नहीं. इतने में देखा कि पीछे से साढ़ू, साली और गुणाजी भी आ गये. हेमन्त जी भी
देख खुश हुए. मनुहार कर गुणा जी को भी पानी में खींच लिया. खूब फोटो लिए. फिर बेटी प्यार और गुस्से से शामिल हो गयी. गुणा जी यहीं नहीं रुका. अपने पिताजी को
लेकर बगल की सीढ़ियों से ऊपर चला गया. कुछ देर बात हम भी ऊपर चढ़े. ऊपर और खूबसूरत
नजारा. दो-तीन फीट की ऊँचाई से गिरता प्रपात. पानी का कुण्डनुमा जमा होकर बहना.
एकदम साफ पानी. फिर क्या था. अब एक-एक कर सब पानी में आ गये.
यहां शायद शाम तक भी
बैठें तो कोई नहीं आयेगा. एकदम एकान्त में बहता पानी, जलधारा और प्रपात. मैंने तो पानी भी
पिया. एकदम खरा और सच्चा मिनरल वाटर. लगभग घण्टा भर यहां व्यतीत कर ज्वालेश्वर
महादेव देखने निकल पड़े. मंदिर के एकदम बगल से निशान लगा था. तीन किलोमीटर ऊपर.
रास्ता संकरा, एकदम
ऊबड़-खाबड़ और पथरिला. एकदम सूनसान. पिछले चार-पांच किलोमीटर से ही आदमी दिखने बन्द
हो गये थे. एकाध ट्रक और कार मुश्किल से गुजरे होंगे. घुमावदार रास्ते से शंकित
मन लेकर जा रहे थे. क्या हम सही जा रहे हैं. लगभग देढ़ कलोमीटर के बाद दूर से कुछ
लोग और गाड़ी दिखायी दिये तो लगा कि सेफ हैं. यहां से और ऊपर फिर ऐसे ही होकर हम
ज्वालेश्वर महादेव पहुँचे. यहां कहावत अनुसार देश का सबसे ऊँचा शिवलिंग बनाया
गया है. मंदिर निर्माण जारी है. बैठे पंडित अगिनहोत्री जी का रूद्रपाठ और उच्चारण
सुन वहीं रुक गये. कई दिनों बाद इतना साफ स्वर और उच्चारण संस्कृत पाठ का सुनने
मिला. जिज्ञासावश पूछा तो नाम अग्निहोत्री बताते हुए हम उम्र पंडित जी ने कहा कि
वे संस्कृत के अध्यापक थे. अब भी पढ़ाते हैं. और पौरोहित्य संभवत: पारिवारिक
काम है. खैर मंदिर देख और अग्निहोत्री जी से मिलकर सुकून मिला. लेकिन गाड़ी में
बैठे बाकी तीन लोग अधीर हो रहे थे कि खाने का वक्त हो गया है. और थकान से आराम भी
चाहिए. लेकिन, असल
में जिस काम के लिए आए थे वह एकदम भागते-भागते करना पड़ा. दुर्गाधारा में पहुँचने
वाली धारा का उद्गम. संभवत: इसी मंदिर से चंद कदमों की दूरी पर जोहिला नदि का उद्गम होगा जो एक जगह कुंए से
निकलकर नीचे की ओर बहती है. बस यहां से हम होटल लौट आए.
खाना खाकर आराम किए तो शाम हो चली थी. सात
बजे आरती का समय था. इससे पहले कलचूरी राजाओं द्वारा बनाये गये पॉंचवीं सदी के
मंदिर देखने थे जो नर्मदाकुण्ड के एकदम बगल वाले परिसर में है. ये संरक्षित मंदिर
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के अधीन है. अत: ये सूर्योदय से सूर्यास्त तक ही
खुले रहते हैं. हमारे जाने से चंद क्षण पहले ही इसका गेट बंद हुआ और हम देख नहीं
पाये. यहां से नदी के घाट पर स्नान करने जाना था. पर अंधेरा देख घाट पर जाने की
हिम्मत नहीं हुई. घाट की दूसरी ओर याने सड़क की बांयी ओर नहर नुमा स्नानकुण्ड में
ही एकदम ठण्डे पानी में चार-पॉंच डुबकियां लगायीं और स्नान हो गया. मेरे अलावा
कोई स्नान नहीं किया. मन तो कर रहा था तैरकर दूसरी ओर जाऊँ पर अंधेरा होता देख
तथा गहराई का अंदाजा नहीं होने पर यह रिस्क नहीं लिया. पर तैरने की कसक रह गयी.
थोड़ा पहले चला जाता तो तैर भी लेता.
खैर तैयार होकर इसी के बगल में नर्मदाकुण्ड
के मंदिर परिसर में गये आरती देखने जो पहले दिन अधूरी रह गई थी. हेमन्त जी और
गुणाजी तो नहीं आए आई पी एल देखने के चक्कर में तो हम चारों चले गये. समय से पहले
पहुँच आरती की तैयारी और आरती देखी. मॉं नर्मदे की एकदम विशिष्ट आरती. स्थानीय
लोग बड़ी श्रद्धा से इसमें शामिल होते हैं. पहले खड़ी बोली में लिखी आरती गायी गई
और बाद में संस्कृत में लिखी. सभी एकदम साफ स्वर में गा रहे थे. लगभग आधा घण्टा
आरती चली. पंडित जी पूरे ध्यान और लय से आरती गा रहे थे. साथ में दीपमाला जल रही
थी. एकदम पवित्र वातावरण. यह गंगा जी की आरती से एकदम अलग. वहां जैसी यहां
साज-सजावट और बाहरी भव्यता नहीं. एकदम सीधी-सादी आरती. आरती बता रही थी कि हम आज भी प्रकृति
में ईश्वर को देखते हैं. प्रकृति के जरिये ईश्वर कितना करीब लगता है. बल्कि
कुदरत ही ईश्वर लगती है. प्रकृति हमारे जीवन की संचारिणी है और इसका संरक्षण
हमारी पहली और मूल जिम्मेदारी. याने प्रकृति का दोहन वैसा ही और उतना ही किया
जाना चाहिए जितना कि जीवन संचालन के लिए आवश्यक. यह सब हमें ऐसे ही स्थानों पर
देखने-समझने मिलता है. यहां के लोग और बच्चों में अब भी वही सादगी, मासूमियत. चेहरों पर कोई शिकारीपन और
शहरी उज्जड़ता के भाव नहीं. ऐसा लगा जैसे इन्हें अब भी हमारी तरह ऐशो-आराम की
चीज़ें नहीं चाहिए. बस ये जहां-जैसे हैं, एकदम सुखी और प्रसन्न. शहरों में तो अंग्रेजीपोश समाज और सीमेंट के जंगल में इंसानियत और कुदरत कबकी खो चुकी है. ईश्वर करे
प्रकृति जीतनी बची है, वह बची
रहे. एक और बात मंदिर के प्रांगण में लिखी थी कि कुण्ड और इसके आस-पास बने
मंदिरों की पिरक्रमा न करें. इसका कारण नहीं जान पाया. वापस लौटने से पहले नर्मदाकुण्ड
याने जलस्रोत पर बने शिवजी के एकदम छोटे मंदिर में दर्शन किए. इसीके नीचे से
जलधारा बहती है और कुण्ड में दिखायी देती है. प्रांगण में कोई यज्ञ भी चल रहा था
और कुछ पुरोहित, पंडित
यहां की कथा की रिकार्डिंग भी कर रहे थे. इन सबके बाद हम वापस आ गए. दिल में एकदम
शांति का एक अलग भाव था. लगा सब छोड़ ऐसी किसी जगह बस जाना चाहिए. हम पूरे जीवन
जिसके लिए भागते हैं. वह सब यहॉं मौजूद है. सच, सादगी, ईश्वर का ऐश्वर्य, उसके करीब और पासंग होने का एहसास.
इसी भावना से लौट खाए और दूसरे दिन सुबह मिश्र जी (खानसामा) द्वारा बनाए पोहे
और ब्रेड-बटर का नाश्ता लिए निकल पड़े जबलपुर के लिए. अमरकंटक आते समय सरकारी
काष्ठागार (लकड़ी का गोदाम) देख बहुत दुख हुआ था कि साल और सागवान के हजारों
पेड़ेां की लकड़ी यहॉं कटी पड़ी है. इतनी बड़ी मात्रा में लकड़ी देख लगा कि पता
नहीं ये जंगल कब तक बचेंगे. ये बेचैनी अमरकंटक छोड़ने से पहले वाली रात वहॉं के
सहायक प्रबंधक ने बतायी कि सरकार केवल वही पेड़ों को काटती है जिनकी एक उम्र हो
जाती है और जिसे कोई कीड़ आदि लग जाने की संभावना हो. साथ ही, पेड़ों की कटाई के साथ इन्हें लगाती भी
है. यह सुन राहत मिली.
इस बीच गाड़ी जबलपुर के लिए चल पड़ी थी.
क्रमश:
बहुत बढ़िया शर्माजी आपके साथ हमें भी यात्रा कराने के लिए धन्यवाद ।
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