अमरकंटक से जाते समय वहॉं के स्टाफ से
एक बात और पूछी की क्या यहॉं बर्फ भी गिरती है तो उन्होंने बताया कि हॉं जनवरी
में बर्फ भी गिर जाती है कभी-कभी. घाट उतरना था, सो बस स्टैण्ड के पास रुक ऑंवला
सुपारी ले लिये. जिस डिब्बेनुमा दुकान पर रुके थे उसके साथ तीन-चार और भी दुकानें
थीं. सभी महिलाएं चला रही थीं. अमरकंटक जैसी जगह यह देख बहुत खुशी हुई. मैंने जिस
दुकान से ऑंवला खरीदा उसमें एक छोटी बच्ची भी थी. जिज्ञासावश पूछा कि क्या स्कूल
भी जाती हो तो कहा कि हॉं 9वीं कक्षा में पढ़ती हूँ. सुबह-शाम मॉं की मदद करती
हूँ. इस कम उम्र में यह अहसास और लगाव देख लगा कि यह लड़की एक दिन जरूर कुछ बनेगी.
वैसे अब तक यात्रा में एक बात और गौर करने वाली दिखाई दी कि स्त्री भ्रूण हत्या
रोकने के लिए और समाज में स्त्रियों के मान-सम्मान की रक्षा संबंधी जागरुकता के
लिए गॉंव, जिले
और कस्बों में कई जगह दीवारों पर बने और लगे पोस्टर बैनर दिखे. याने हरियाणा और
राजस्थान वाली दीमक यहॉं भी है.
जबलपुर से कान्हा, कान्हा
से अमरकंटक तथा यहां से जबलपुर के लिए सड़क भी बहुत अच्छी है. अब तक की यात्रा
में लगा कि सड़कों पर विशेष ध्यान दिया गया है. आजकल हीरो होण्डा गाड़ी के
विज्ञापन में बात कही जाती है कि ‘जो सड़क शहर से गॉंव की तरफ जाती है वही गॉंव से
शहर की तरफ भी जा सकती है’. यहॉं ये सच भी लगा. एक सड़क गॉंव के लिए बहुत कुछ
ला देती है. और यहीं से शुरू होता है गॉंव में शहर का जमना और हावी होना. पूराने
पर नये का जोर और राज.
इन्हीं साफ-सुथरी सड़कों से होते हम
जबलपुर के रास्ते पर थे. बीच में दो घण्टे बाद उत्तम ड्राइवर ने इंडियन आयल के
पेट्रोल पंप के पास गाड़ी रोकी. कहा कि ये नया ढाबा है. यहॉं रुकेंगे, मुझे
डीजल भी डलाना है. हम भी हेमन्त जी को छोड़ पेट्रोल पंप पर गये और निवृत्त हो लिए.
लौटकर अमरकंटक के मिश्र जी खानसामा द्वारा पैक नाश्ता किए. यहॉं नाश्ते में पोहे
इडली का विकल्प है. बढि़या बनाये जाते हैं. गरम थे. सभी ने खाए. साथ ही, हेमन्त
जी ने आलू पराठा भी आर्डर कर दिया तो एक-एक कर चार सबने चट कर लिये. ये पराठे
पिछले साल इन्हीं दिनों शिमला होते हुए दिल्ली आते समय चंडीगढ़ बार्डर पर पंजाबी
ढाबे के लजीज़ पराठों की याद दिला रहे थे. बड़े स्वादिष्ट. पराठों की चटख और
इसके साथ मक्खन और दही की मिठास तो अब भी जबान पर है. लगे हाथ हमारी बेगम ने बच्चे
को नीबू पानी बनाने कहा. गर्मी के मारे नीबू में से नी (रस) गायब और केवल बू थी.
आड़ा काटने से उसमें रस नहीं आया तो उसे नीबू काटने की क्लास अटेण्ड करनी पड़ी.
यहॉं से चल पड़े सीधे जबलपुर.
होटल कलचूरी में लगा आर्ट |
सुबह सात बजे निकले थे और लगभग 11.30 बजे 230-40
किलोमीटर पार जबलपुर पहुँच गये. पूरे रास्ते कहीं कोई इंडस्ट्री नहीं दिखाई दी.
यह एक और विशेषता इस क्षेत्र की दिखी. शायद यह भी एक वजह हैं यहॉं जंगल और जमीन अब
तक बचे हैं. जबलपुर के कलचूरी होटल पहुँचे तो गेट पर ही गाड़ी रोक दी गयी. पता चला
कि भीतर गवर्नर साहब का कार्यक्रम चल रहा है. अंदर गए तो पता चला कि छत्तीसगढ़ के
गवर्नर गोंड व अन्य आदिवासियों से जुड़े किसी कार्यक्रम में आए हुए हैं और लंच तक
कार्यक्रम चलेगा. इस वी आई पी वातावरण के दबदबे में हमें रूम आदि मिल गए. बाहर से
भीतर तक एकदम आलीशान होटल. लगा कि कलचूरी राजाओं के नाम अनुसार होटल है. संभवत: यह
जबलपुर के सबसे अच्छी होटलों में एक अवश्य होगी. बढ़िया हास्पिटालिटी और
खूबसूरत आरामदायक कमरे. लगा कि एक दिन रुकना काफी नहीं. यहां अलग से आना पड़ेगा.
बरघी डैम में क्रूस पर |
सामान रख यहॉं से
बरगी डैम देखने रवाना हुए. लगभग 45 किलोमीटर दूर नर्मदा नदी पर बना यह विशाल और
खूबसूरत डैम है. बताया गया कि नर्मदा पर 30 से अधिक डैम बने हैं. पर यह सच में
विशाल और विस्तृत. हमने तो अब तक केरल, हिमाचल और उत्तराखंड के ही कुछ डैम यात्रा मे देखे थे. पर जैसे
बताया गया कि जबलपुर में यहॉं अवश्य जाएं. एकदम साफ और ताजे पानी से लबालब भरा और
गहरा डैम. यहॉं एम पी टूरिज्म का रेस्टॉरेंट भी है. हमारा लंच कलचूरी में था.
हमने अनुरोध कर इसे यहां ट्रान्सफर करवा लिया था. यहॉं स्पीड और क्रूस दो तरह की
बोटिंग होती है. स्पीड पॉंच-सात मिनट की और क्रूस 45 मिनट की. 45 मिनट वाली मे
बैठने 20 लोग कम से कम होने चाहिए. पूछा तो पता चला कि इसमें समय लगेगा. हमसे पहले
केवल दो लड़कियॉं एक घण्टे से ज्यादा समय से इंतजार कर रही थी. तो संख्या 8 ही
हुई. कुछ देर बैठे तो संख्या बढ़ी और 15-20 मिनट में ही टिकट खरीदने की घोषणा के
साथ हम नीचे चल पड़े. शानदार बोट. और लोग आने की चक्कर में 15-20 मिनट बोट पर ही
इंतजार करना पड़ा. जब सबने हो-हल्ला किया तो वह चल पड़ा. कड़ी धूप में छल-छल
चमकते पानी पर बोटिंग एक सुखद आश्चर्य था. अंडाकार रूप में घुमाते क्रूस चली. एक
परिवार छोटे बालक को नचाने के बहाने बीट संगीत पर झूमने लगा. समा और बंध गया. कोने
में एक बड़ी उमर का जोड़ा भी था जो चुप-चाप फोटो, वीडियो एक-दूसरे के लेता जा रहा था. उनकी आंखों में अपने को जवॉं
महसूस कर दूसरों के साथ होने के भाव साफ देखे जा सकते थे. वह दो इंतजारी लड़कियां
भी अपने मार्डन होने का सबूत दे रही थीं. हमने भी दिल भर फोटो-वीडियो लिये. आश्चर्य
लगा कि रविवार होते हुए भी इतनी खूबसूरत जगह लोग कम. अगर हैदराबाद में ऐसा स्पाट
हो तो बोटिंग की एडवान्स कराना पड़ जाए. बोट लौटी. एक-एक कर सब डगमगाते उतरे.
पगडण्डी पर चलती वे दोनेां लड़कियों का किसी संदर्भ में हिन्दी में गिनती नहीं जानने
में एक-दूसरे से आगे होने का बड़ बोलापन देख लगा कि यह अंग्रेजी और कितना सत्यानाश
करेगी हमारा. खैर, भूख के अंदाजे से बोट पर जाने से
पहले ही खाना आर्डर कर चुके थे कि बोट आते देख वह खाना लगा दे. ऐसा ही हुआ. एकदम
लज़ीज खाना. कड़ी-पकौड़ा तो क्या कहूँ. लाजवाब. लिख भी रहा हॅूं तो पानी आ रहा
है. खूब खाए और टुन्न होकर गाड़ी में बैठ गये भेड़ाघाट जाने. यह भी काफी दूर है
यहॉं से.
पहली बार छोटी और
खराब सड़क से रू-ब-रू हुए. सड़क इतनी खराब कि अब तक की पूरी अच्छी सड़क पर ये
भारी. गड्ढों में सड़क. खाना तो लग रहा था पता नहीं कौनसे सुराख से बाहर आ जाए.
हमारी साली को तो दो जेल्यूसिल एकदम लेना पड़ा. लगभग 15-20 किलोमीटर के इस पैच के
बाद साफ सड़क आयी तो सबके मुँह से निकला ‘अम्मॉं! सड़क आ गई’. ड्राइवर से पूछे और कितनी दूर, तो लगभग इतना और बताया. बहरहाल, शाम 5.00 बजे के आसपास भेड़ाघाट पहुँचे. जल्दी-जल्दी किनारे चलते, भेड़ाघाट देखे. देखते ही बोल पड़े वॉव! नर्मदा के बहाव का विकराल रूप. संगमरमर की पहाडि़यों में खाईनुमा
होकर गिरता जलप्रपात. एकदम दूधिया पानी. अमरकंटक में केवल एक कुंड से निकल इतना
पानी कहॉं से आता होगा. यह प्रकृति का अद्भुत नजारा देख विश्वास नहीं होता. उत्तर
में तो समझ आता है कि नदियों में पानी ग्लेशियर से पिघल कर हिमालय से आता होगा.
पर यहॉं कैसे? अब भी यह भरोसा नहीं होता. सदियों से
इतना पानी बह रहा है. ऐसा लगा सबको तारने केवल ये एक ही नदी काफी है. भारत की ‘नियागारा फाल्स’. अवश्य देखना चाहिए. मॉं ने जाने से पहले ही कह दिया था कि इस जगह
जरूर जाना चाहिए. यहॉं कुछ मिनट भी नहीं हुए कि एक आदमी आ गया. साहब तीस रूपये दो
तो मैं छलांग लगाकर दिखाऊँ. मुझे विश्वास नहीं हुआ. 50 फीट लगभग से इतने तूफानी
बहाव में छलांग लगाना. अदम्य साहस की बात. वह कूदा और हम देखते रह गये. एक मिनट
के भीतर ही वह कूदा, तैर कर निकला और ऊपर आ गया. सलमान
खान ने किया, नहीं किया, पता नहीं पर उस आदमी ने तो ‘आज कुछ तूफानी’ कर दिखाया. यहॉं हमने तीन-तीन की फोटो भी
खिंचवायी. मैंने भी कई फोटो लिये. धूप सीधे पानी पर पड़ रही थी तो इन्द्रधनुष
पानी में मनोरम दृश्य और पानी का रोशनी से प्यार जाहिर कर रहा था. ये इन्द्रधनुष
ऐसे लग रहा था मानो किसी विशाल खूबसूरत माथे पर खड़ा चन्द्रनुमा टीका हो. कई लोग
यहॉं किनारे पैर डालकर बैठे तो कुछ भीगने का मजा ले रहे थे. समय की कमी ने मुझे यह
कसक दे दी. याने अगली बार जाने कुछ तो बाकी रहना चाहिए. किनारे संगमरमर के
छोटे-बड़े पत्थरों में कलाकारी करते कलाकारों की दुकानें. एक से एक खूबसूरत पत्थर
पर काम. दिल तो कर रहा था कि हर एक के पास कुछ न कुछ खरीदूँ. इस अहसास को समझ श्रीमती
जी बोलती रही ‘अजी चलो, चलो, देर हो रही है’. मैं आगे-पीछे होते चल पड़ा. घाट के उुपर यहॉं आसमानी झूला (रोप
वे) भी बना है. हम कम समय के चलते इसमें नहीं बैठ पाये.
गुलाबी संगमरमर |
लगभग 500 फीट गहरा पानी |
दूधीय चट्टान |
सामने नदी की दूसरी ओर पहाड़ी चढ़कर दुकान से खींची फोटो लिये और
कार में बैठ नदी में नौकाविहार करने चल पड़े. यहॉं भी घाट पर काफी नीचे जाना पड़ता
है सीढ़ियों से. काफी लोग खड़े थे. दो नाव लगी थी. पूछा तो कहने लगे पहले से बुक
है. और दो-तीन को पूछे तो वे आपस में बात कर कहने लगे अभी वो देखो बोट आ रही है.
उसमें बैठना. सब अव्यवस्था लगी. कोई टिकट काउण्टर नहीं, कोई इंचार्ज नहीं. केवटों के ग्रूप बने हैं. वे स्थानीय भाषा में
बात कर ज्यादा रूपये ऐंठने की चक्कर में दिखे. मनमर्जी पैसा पूछा तो मैंने 15-20
मिनट बाद एक चबुतरे पर बने खुले ऑफिस नुमा टेबल के पास एक आदमी को पकड़ पूछा कि
यहॉं बोटिंग का क्या तरीका है. उसने कहा आदमी के 31 रूपये दो और बैठ जाओ. लेकिन
कोई आने तैयार ही नहीं. बड़ी मुश्किल से एक बोट में उसने कई लोगों के पुकारे के
बाद 15-20 लोगों को नाव में बैठाया. बैठते ही केवट उतर गये. वे आपस में कहा-सुनी
करने लगे. किसी तरह 10 मिनट में दूसरे केवट दिनेश, लालू और उसके साथी बोट में आ गए और सबको हिदायत देकर नाव खेवने
लगे. नाव चली. संगमरमर की पहाड़ियों और चट्टानों के बीच गंभीर मुद्रा में बहती सघन
बहाव की नर्मदा. पता नहीं नाव में बैठते ही लगा नदी गहरी होगी. कुछ पचास एक मीटर
चलते ही पूछने पर दिनेश ने अपना नया रूप दिखाया कवि और शायरनुमा गाइड. सख्त, गठीले आंग का दुबला बीस-एक साल का दिनेश. और चप्पू पर चलते उसके
हाथ और रसभरी तुकबंद कमेंट्री ऐसे लग रहा था पानी पर चप्पू की थाप और उसका काव्य
संगीत पैदा कर रहा है. यहां भी छोटे-छोटे बच्चे 8,10 और 12 साल के, बोट में बैठने से पहले
कह रहे थे, साहब 20 रूपये दो मैं नदी में छलांग लगाऊँगा.
वो बीच की पहाड़ी पर तैर कर जाउुँगा और कूदूँगा. एक लड़के से पूछा तो बताया कि 9
वीं कक्षा में पड़ता है. परीक्षा हो गई है इसलिए अब छलांग लगाने आ जाता हूँ. कुदरत
के करीब रहें तो यह हमें क्या और कैसे बनाती है. अंदाज लगाएं. जिस गहरी नदी में
बोट में सवार होकर डर रहे थे, उसमें ये बालक
साफ-सुथरा मैदान समझ खेल-कूद रहे थे. भगवान करे वहॉं के सभी बच्चे ऐसे ही साहसी, बहादुर और कुदरत के करीब रहें. यह सब देखते हम नदी में पहाड़ियों
में खो चुके थे. मैं पानी में बीच-बीच में हाथ डाल मजे ले रहा था. दिनेश कभी कहता
ये देखो, संगमरमर की ब्लैक अण्ड वहाइट पहाड़ी, तो दूसरी तरफ कभी गुलाबी चट्टान 100-150 फीट ऊँची तो कभी इतनी ही
ऊँची नीली चट्टानें. और पानी 250 फीट गहरा, 350 फीट गहरा. लगभग एक-देढ़ किलोमीटर जाने के बाद दो दूधिया
चट्टानों के बीच कहा कि यहॉं पानी 600 फीट गहरा और मगरमच्छ (अब नहीं है) तो सांसे
सबकी थम गयी. मैंने इतने में दो बड़े भँवर देखे. दिनेश यह देख सावधान हो गया. लगभग
चार-पॉंच सौ मीटर बहुत गहरे पानी में आगे आ चुका था सो लालू को घुमाने का ईशारा
किया. खतरा लगा. एक जगह नाव चट्टान के एकदम पास में चली गयी और चप्पू टकरा भी
गये. मुझे अहसास हुआ कि पानी के विपरित नौका चलाना कितना कठिन होता है. हम अबतक
लगभग दो से ज्यादा किलोमीटर अंदर आ चुके थे. दूसरी नौकाएं कुछ छोटी और कमजोर होने
से पानी के बहाव में ताप नहीं ला सकती थी इसीलिए बहाव के बीच ही एकाध किलोमीटर पर
रुक गयीं. दिनेश ने 30 की जगह हर आदमी से 50 रुपये लेने की बात कह हमें बहुत आगे
तक ले गया. उसकी कमेंट्री और हाथ पूरे एक घण्टे चलते रहे. ये नजारा और ये क्षण
हमारे लिये अद्भुत था. डर, साहस और रोमांच का
आकर्षण. ऐसे क्षणों में आदमी को भीतर ही भीतर ये अहसास हो जाता है कि वह निर्भीक
और साहसी है या डरपोक. क्योंकि कुछ क्षण ऐसे आते हैं जब आपको लगता है कि अब गया, अब कुछ हुआ. होता नहीं केवल लगता है और ये क्षण बता देता है कि आप
असल में क्या हैं. खैर, वापसी सुखद रही. दिनेश
कह रहा था कि आज पानी का बहाव तेज है. बरघी से पानी बहुत तेज
आ रहा है. इतने में वापसी में करीब 100 फिट ऊँची चट्टान से एक 10-12 साल की उम्र
का लड़ाका जोर-जोर से आवाज दे रहा था. साहब बीस रूपये देंगे तो मैं यहॉं से छलांग
लगा दूँगा. लालू ने कहा सर ये सच में कूद जाएगा. मैंने पूछा कुछ नहीं होगा. तो, बताया सर ये और भी छोटे थे तब से छलॉंग लगाते आ रहे हैं. ठीक है, कहने पर लालू ने कहा ‘कूद जइयो, बीस रूपये मिरे से ले लेना’. बस लड़ने ने छलांग लगा दी. मैंने छोनू से कहा देख बेटा वह कूदकर
ऊपर भी आ गया और बैक स्ट्रोक तैर कर आ रहा है. ये देख लगा हमारी रोज की स्विमिंग
पूल की स्विमिंग रेंगने के बराबर भी नहीं है. ये लड़के तो नर्मदा के बहाव के जैसे
अंग हैं. पानी पे ये यूँ तैरते हैं जैसे ज़मीन पे ुफुदक-फुदक रस्सी लेकर पैरों से
कूदती कोई बालिका. ऐसे साहसी बालकों को क्या बुखार, खॉंसी, नजला सताएगा. ऋतिक रोशन
को तो सबने ड्यू के लिए विज्ञापन में ऐसी ही छलांग लगाते देखा पर जो सच में हमने देखा
वह ‘डर के आगे जीत ही थी’. याने डर को जितना जल्दी जीत लो उतना अच्छा तो इन साहसी और
निर्भीक बालकों की तरह हो सकते हैं.
बारिश में यहॉं भी नौका विहार बंद रहता है. लेकिन, चॉंदनी में आज भी यहॉं बोटिंग होती है. हजार-पन्द्रह सौ देकर नाव
में चॉंद की रौशनी में नहाती दूधिया चट्टानों के बीच नदी के चौड़े पाट में नौका
विहार करना कितना रोमांचित करने वाला और मनोरम होता होगा यह अनुभव करना अभी शेष
है. ऊपर आते-आते मैंने एक मॉं से बुद्ध की बनी मूर्ति ली और छोनू का संगमरमर पर
नाम खुदवाकर याद के रूप में साथ ले आया. इस पूरे नौका विहार के दौरान तथा यात्रा
की शुरूआत से मेरे भाई बृहस्पति जी की एक बात बार-बार याद आती रही. जब वे बरसों
पहले यहॉं विजयबहादुर सिंह जी के पास होकर घूमने आये थे और शमशेर बहादुर सिंह और
अन्य के साथ नौका-विहार करते हुए काव्यपाठ का आनंद लिया था. नदी से बाहर निकल
ऊपर आये तो साढ़े छ: - पौने सात बज चुके थे. बगल में स्थित देवी का शक्तिपीठ कहा
जाने वाला चौंसठ योगिनी मंदिर के दर्शन नहीं कर पाये. यह भी सूर्यास्त के साथ बंद
हो जाता है. लेकिन जितना हो चुका था, बस, लगा कि यात्रा हो गयी. यहॉं से निकल जबलपुर लौट चले.
रास्ते में होटल आने से पहले पटेल ने कहा कि साहब जैन मंदिर जरूर
देखते जाना. यह खास है. आठ बज रहे थे. मंदिर के प्रांगण में गाड़ी रोक तेजी से मंदिर
के दर्शन किए. यह मंदिर खास है. यहॉं सभी जैन ऋषि-मुनियों की छोटी-छोटी मूर्तियों
को ब्रम्हाण्डनुमा नीले रंग के आसमान तले गुम्बद में स्थापित किया गया है.
इससे यह पता चलता है कि ऋषि सर्वव्यापी होते हैं और इनकी विचारधार धर्म-जातियों
से परे सर्वकालिक. याने भूलोक से ब्रह्मलोक तक.
होटल पहुँच थोड़ी देर स्विमिंग किए और भोजन कर सुबह सॉंची निकलने
आराम.
क्रमश:
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