'शुरूआत से
कान्हा की एक रात'
कुछ समय पहले तक टी वी पर
लगभग सभी चैनलों पर मध्य प्रदेश पर्यटन की ओर से एक आकर्षक विज्ञापन आया करता था.
एक महिला की पुतलियों के भीतर गुफानुमा होकर पूरा विज्ञापन मध्यप्रदेश की खास
पर्यटन स्थानों की गीतनुमा जानकारी रोचकता से देता था. इसमें विशेष भीमबेटका का
चित्र ऑंखों की पुतलियां घुमाकर दिखाया जाता था. इसका अंत ‘हिन्दुस्तान
का दिल देखा’ और ‘अतुलनीय भारत-The incredible India’ के साथ होता था.
जब भी देखता, यह विज्ञापन
अपनी तरफ खींचता था. पर्यटन पर इतना जोर देकर बनाया गया यह विज्ञापन कहता है 'एम पी अजब है, सबसे गजब है'. बस इन्हीं बातों से मुत्तासीर
कई बरस से कार्यक्रम बना रहा था यात्रा का. इस साल बना और हम 3 से 10 अप्रैल
तक एम पी घूमने चले गये. एम पी टूरिज्म से ही पैकेज लेकर जबलपुर पहुँचे. वहॉं से
कान्हा, फिर अमरकण्टक, जबलपुर, भीमबेटका, भोजपुर, सॉंची और अंत में भोपाल
देखते हुए हैदराबाद वापस हुए.
यात्रा की शुरूआत तीन अप्रैल
को सिकंदराबाद-पटना रेल से (पटना तक का टिकट लेकर) जबलपुर के लिए हुई.
जबलपुर मेरी मॉं का जन्मस्थान
है इसलिए भी मन में एक खींच और आकर्षण बना हुआ था. पिछले महीने राजधानी रेल से सफर
करने के बाद इस ट्रेन में एसी-टू में जाते हुए रेल की बोगियों और उसके अन्दर की
साज-सज्जा, रखरखाव देख
सरकार की समाज की तरह खास ट्रेन से आम ट्रेन के प्रति बेरूखी साफ़ दिखी. गाड़ी
एकदम पुरानी जैसे किसी साहब के बंगले के सामने जंग खायी पुरानी टीन से लदा मिट्टी
का ऊबड़ ग़रीब का कमरा हो. और, किसी मेहमान आने
के वक्त पिल पड़ी दीवारों की धूल-कालिक झटक राम
जी के साथ लगे अमिताभ के ‘डॉन’ के पुराने पोस्टर व मिथुन की फोटो को साफ़ कर स्वागत
के लिए छोड़ दिया गया हो.
ख़ासकर मैं जब भी ट्रेन में
सफ़र करता हूँ, अपनी
सीट के साथ-साथ शौचालय भी देखता हॅूं कि साफ़-सुथरा है या नहीं. अक्सर ये मैले और
पुराने पड़े होते हैं जिनमें एक अजीब बू आती है. ये कुछ ही देर की यात्रा में इतने
गंदे कर दिये जाते हैं कि सुबह इन्हें इस्तेमाल करने की टीस आदमी के घर लौटने तक
नहीं जाती. महिलाएं-बच्चों को पता नहीं यह कितनी ज्यादा होती होगी. बरसों से देख
रहा हूँ ट्रेन में शौचालय इस्तेमाल कर पानी छोड़ने के लिए पहलवानी करनी पड़ती है.
लोहे के पाइप में लगा दाब-बटन इतना सख़्त होता है कि उसे जबरदस्त ताकत लगाने पर
भी पानी थोड़ा ही आता है और शौचालय पूरा साफ भी नहीं होता. पता नहीं रेल्वे को यह
क्यूँ नहीं समझ में आता. यात्रियों से सफ़ाई और आराम के नाम पर पैसा तो बढ़कर
लिया जा रहा है पर पहलवानी है कि कम नहीं होती. खैर, यह
एसी-टू का डिब्बा, आम डिब्बे की बनिस्बत साफ़-सुथरा मिला तो राहत मिली और सफ़र शुरू हुआ.
लग रहा था कि लगभग हर स्टेशन
पर रुकने वाली गाड़ी देर से पहुँचेगी पर अलसुबह सवा-चार बजे जबलपुर पहुँच गयी. स्टेशन
काफ़ी बड़ा, प्लैटफार्म पर
बड़ी संख्या में सोते लोग और चौतरफ हिन्दीनुमा माहोल के बीच मॉं की जगह पहली बार
पहुँचने की फुलफुली खु़शी.
ट्रेन में ही जल्द उठ सब
कामों से निपट प्लैटफार्म पर उतरते ही हमने चाय पी. बाहर निकले तो पहले से तैयार
इन्नोवा गाड़ी तैयार थी. एम पी टूरिज्म वालों ने कहा था, साहब आप हमारी सर्विस देखना. इसमें कोई कमी नहीं होगी.
इस पर आगे बताऊँगा. पर, ड्राइवर उत्तम ने फोन कर पहले ही बता दिया था कि वह बाहर एस बी आई के ए
टी एम के बगल में खड़ा है. चाय पी और मॉं की जन्मभूमि से पानी भर बाहर निकले और
साफ-सुथरी नयी इन्नोवा में बैठ कान्हा नेशनल पार्क के लिए चल पड़े. कार में
बैठने से पहले मॉं की भूमि को प्रणाम कर मन ही मन मॉं को याद किया और उसकी गोद में
बैठे एक बालक की तरह गाड़ी में अपने से पूछता रहा कि जबलपुर कैसा है, मॉं का
घर कहॉं और कैसा रहा होगा, घर में कौन-कौन रहे होंगे. क्या अब भी कोई बुजुर्ग होंगे या नहीं आदि.
इसी बीच काफी दूर तक तो जबलपुर एक छावनी की तरह लग रहा था. सरकारी बँगले, आयुध
कारखानों की लंबी-चौड़ी दीवारें और अन्य कार्यालय. कुछ दूरी तय करने के बाद नदी
का पुल, हरे-भरे
पेड़, साफ-सीधी
सड़कें देख ड्राइवर से जानकारी ली कि 163 किलोमीटर की दूरी तय करनी है. लगभग आधी
दूरी पर चाय पीने ड्राइवर रुका. नाम था ‘बालाजी शुद्धशाकाहारी रेस्टारेण्ट’ याने
ढ़ाबा और बालाजी यहॉं भी विराजमान थे. नाम तो ठीक पर इसकी साफ-सफाई देख हमने तो
चाय नहीं पी पर कुछ फोटो सड़क से खींच लिये. रास्ते के लंबान ऊँचे-ऊँचे पेड़, गेहॅूं
के खेत और दूर दिखती पहाड़ियां संकेत दे रही थीं कि जंगल कुछ ही देर में शुरू होने
वाला है. इस बीच देखा कि यहॉं बहुत कुछ अब भी लकड़ी पर ही पकाया जाता है. कुछ
आदिवासी महिलाएं और छोटी बच्चियां सर पर लकड़ी के गट्ठे बॉंध ले जा रही थीं. देड़
घंटे में ही हम शहरी ताम-झाम से दूर दुनिया से कट चुके थे. यहॉं से रफी-लता के
पुराने गाने सुनते कान्हा की ओर बढ़े और साढ़े तीन घंटे में ही कान्हा पहुँच
गये.
एकदम सून-सान चौ तरफ. लंबे-ऊँचे घने पेड़ और पक्षियों की अलग-अलग आवाजें. प्रवेश पर रजिस्टर में जानकारी दर्ज कर अन्दर गये. यहॉं जोर से बात करना, सेल फोन तथा अन्य आवाज करने वाले इलेक्ट्रानिक चीज़ों के साथगाड़ी से उतरने, किसी प्रकार का कचरा फेंकने की सख्त मनाही है (इसका पालन भी हो रहा है). यहॉं कोई ऐसा काम नहीं किया जा सकता जिससे वन्य प्राणियों को तकलीफ़ पहुँचे. तीन किलोमीटर अंदर हमारा ‘किसली-बघिरा हट’ था. रास्ते में ही सड़क के पास कुछ हिरण घॉंस चर रहे थे. धीरे गाड़ी रोक उनकी तस्वीरें लीं. कुछ ही दूरी पर एक गोरा बंदर हमारे स्वागत के लिए सड़क पर लंबी दुम फैलाये अलमस्त बैठा था. लगा कि हम उनकी जगह में दखल देने आ गये हैं. बस, कुछ मिनट में ही हम अपने रूम पहुँच गये. पहुँचते ही एम पी टूरिज्म के सर्विस के दावों की पोल खुल गयी. ऑफिस का मैनेजर गायब. किसी स्टाफ ने पूछना शुरू कर दिया कि आप कौन, क्या, साहब आने पर कमरा मिलेगा आदि-आदि. जब मैंने भी आदिम इंसान की झलक दिखायी तो बुक हो रखे कमरे उसने दे दिये. कान्हा के भीतर रहने का एकमात्र स्थान एम पी टूरिज्म का ही है. बाकी व्यवस्थाएं सब जंगल के बाहर बफर जोन के आस-पास है. इनके यहॉं थ्री स्टार स्तर के 16 कमरे हैं. कोनों के चार रूम एसी डीलक्स और बीच के सब ए सी रूम्स. कई मील मांडला जिले से आते हमें रास्ते में घर, आदमी, दुकान, कोई ऊँची इमारतें इत्यादि नहीं दिखायी दिये. इस जिले से कई छोटी-छोटी नर्मदा की सहायक नदियां निकली हैं और नर्मदा का यह जलसंचय क्षेत्र भी है. अत: कम आबादी और शहरीकरण के चलते यहॉं सब महँगा है. पर जंगल में ठहरने का अनुभव एकदम अलग. पैदल चलना मना, जोर से बात नहीं करना, प्लास्टीक का इस्तेमाल वर्जित, कूड़ा-कागज इधर-उधर फेंकना मना, सेल फोन सिग्नल ज़ीरो, रूम में कोई टीवी-वीवी नहीं, किसी प्रकार का संगीत, शोर नहीं आदि. हम तो यह सब देख बहुत खुश हुए पर आजकल अधिकतर लोगों को वजह-बेवजह बात करने और सेलफोन स्क्रीन पर अपनी आंखे फोड़ने-ऊँगलिया चलाने का रोग है. ऐसे में मेरे साढ़ू और उनका लड़का थोड़े बेचैन लगे. आजकल जिस आदमी का जितना सेल बजे वह उतना बिज़ी. खुजाने की फुरसत नहीं. आमदनी अठन्नी, खर्चा रुपय्या. कुछ पूछो तो एक मिनट फोन पर बात कर रहे हैं, दो मिनट बाद मिलेगें. और एक-दो मिनट बाद फिर वही राग बजना शुरू हो जाता है. कई जरूरी बातें, हालात और कामों को टालने का अच्छा ज़रिया है ये सेलफोन ‘व्हाट एन आइडिया सर जी’. जिस बच्चे के पास स्मार्ट फोन या टैब नहीं उसके मॉं-बाप पिछड़े-गरीब और बच्चा भोंदू. ऐसे में लोगों का कान्हा में आकर बेकल और विचलित होना स्वाभाविक ही लगता है. ऐसे में यदि बात करना जरूरी हो तो केवल बी एस एन एल का बहुत मामूली सिग्नल फोन में एकआध जगह आता है अन्यथा आज भी वहॉं के रिसेप्शन में गोल डायल वाला पुराना फोन 10 रुपये प्रति मिनट की दर से करने के लिए रखा है जिसे लोग रेट देखकर कम ही हाथ लगाते हैं.
खैर, रूम मिला और हम सब तैयार हुए, खाना
खाकर कुछ दम लिया तो दोपहर के तीन बज रहे थे और हमारी सफ़ारी का टाइम हो चला था.
खुली जिप्सी खड़ी थी. दोपहर की धूप में हम वापस रिसेप्शन गये. अपनी पहचान और रसीद
बताकर गाड़ियों की लाइन में लगे भीतर जाने. सभी यात्री बाघ और अन्य प्राणियों को
देखने उत्साहित थे. कई लोगों का पहनावा तो बता रहा था कि वे जंगल घूमने नहीं
शिकार करने आए हैं और कोई जानवर आक्रमण कर दे तो पता नहीं ये भागेंगे या रुकेंगे.
इस बीच हमारी गाड़ी का नंबर
लगा. मुक्की सिंह गाइड हरे यूनिफार्म में हमारी गाड़ी में आकर बैठ गये और हमारी
सफारी शुरू हुई. अनुदेश दिया कि गाड़ी से कहीं भी उतरना मना है. तीन-साढ़े तीन
घंटे की सफ़ारी में कहीं एक या दो के लिए रुकना हो तो 10-15 मिनट पहले बताना होगा.
केवल निर्धारित जगह ही इससे निपटा जा सकता है. सुनते ही मैंने सोचा पानी कम ही
पिया जाय तो अच्छा है. जिज्ञासा और उत्साहवश हम जंगल की जानकारी लेते गये. बताया
कि यहॉं 60 से 80 के बीच बाघ हैं. एक बाघ के घूमने का इलाका कम से कम 15 से 20
वर्ग किलोमीटर का होता है. कान्हा में केवल 20 प्रतिशत क्षेत्र वन सफारी के लिए
रखा गया है. बाकी वर्जित और पूर्णत: संरक्षित है. यह 20 प्रतिशत कुल चार जोन में
बँटा है. कान्हा, किसली, मुक्की और सिरही. इसमें
कान्हा प्राइम जोन है. यह सुनते ही लगा हम केवल पॉंच प्रतिशत वन ही देख पायेंगे.
दिल में जो विचरित बाघ देखने का उत्साह था वह ठंडा पड़ने लगा. मैं तो सोचा कि एक
साथ चार-पॉंच बाघ खेलते-कूदते और आराम करते आसानी से दिख जाएंगे या हमारी गाड़ी के
आगे-पीछे से जाते दिखेंगे. लेकिन जब मुक्की ने बताया कि मेल टाइगर के एरिया में
दूसरा मेल टाइगर नहीं आता. यदि आ जाए तो दो में से कोई एक बचता है आपसी जंग के
बाद. फिमेल टाइगर कहीं भी रह और घूम सकती है. इनके बच्चे भी तीन साल में एक बार
होते हैं और मॉं अपने बच्चों को ढ़ाई-तीन साल तक साथ रखती है. इस दौरान वह उन्हें
सुरक्षित रखने की दृष्टि से जगह-जगह घुमाती है. यदि मेल बाघ पैदा होता है तो उसे
मेल टाइगर अपना राज छीन जाने के भय से बचपन में ही मार डालता है. अत: बाघिन यह
दो-तीन साल बहुत खूँखार बनी रहती है. मुक्की ने यह भी बताया कि लगभग 1000 किलो
वाला यह प्राणी बड़ा ही सुस्त होता है. जहॉं बैठ गया घंटो या दिनों तक बैठा रहता
है. केवल भूखा होने पर ही रात में शिकार करता है. और, शिकार भी कोई हाथ मारते ही उसे हासिल नहीं होता.
प्रकृति ने सबकी सुरक्षा और सावधानी की व्यवस्था की है. बाघ छंलाग लगाकर शिकार
करता है. वह बहुत दौड़कर, दूर पीछाकर शिकार नहीं करता. यदि एक कोशिश नाकाम हो जाए तो फिर दूसरी
कोशिश नहीं करता क्योंकि उसे ऐसा करने में बहुत ताकत लगती है. प्रयास विफल होने
पर वह भूखा रहता है पर किसी 5-7 किलो के या छोटे प्राणी का शिकार नहीं करता. जब भी
करेगा बड़े प्राणी को मारेगा जिससे दो-चार दिन इस काम से उसे फुरसत मिले. यही कारण
है जंगल में अन्य प्राणी बाघ के रहते हुए भी रह सकते हैं. यहॉं लगभग 20-25 हजार
संख्या में हिरण हैं. जगह-जगह झुण्ड में दिखायी पड़ जाते हैं. बारहसिंगा यहॉं की खासियत है. केवल 350 की संख्या में हैं. जंगली भैंसा
भी पहली बार देखने मिला. इसके पैर सफेद होते हैं. मुक्की ने बताया कि बाघ यदि
इसका शिकार करे तो यह केवल अपनी सिंघो से उससे लड़ता है. इसमें भी जबरदस्त ताकत
होती है और बाघ को इससे कड़ी टक्कर मिलती है. कई बार बाघ आक्रमण करके भी इसकी
ताकत के चलते लौट जाता है. इससे दो बातें मुझे याद आयीं कि ‘देयर इज़ नो शार्टकर्ट इन
लाइफ’ तथा ‘काम किये बिना तथा कई बार कई
कोशिशें करने पर ही कुछ हासिल हो पाता है’. इस बीच मुक्की ने बाघ के बारे में कुछ और भी जानकारी
दी कि यदि दो बाघों में लड़ाई हो जाये और कोई गले के नीचे काट दे तो वह बाघ नहीं
बचता. दूसरे हिस्सों में ज़ख्म होने पर वह अपनी जीभ से चाटकर ठीक कर लेता है
अथवा वन विभाग के स्टाफ को दिखाई देने पर वे उसके इलाज की व्यवस्था करते हैं.
बाघ की भी अधिकतम आयु 15 साल के आसपास होती है. यही कारण है कि इनकी संख्या आपसी
लड़ाई, तीन-चार साल में एकबार पैदा होने
और 15साल के आसपास खत्म हो जाने के कारण देश में कम है. जब सिंह और चीता के बारे में
पूछा तो मुक्की ने बताया कि सिंह और भी आलसी प्राणी है और वह शिकार भी नहीं करता.
सिंहनी शिकार कर देती है तो खाता है. चीता दौड़ के शिकार करता है और ऊँची जगहों पर
रहना पसन्द करता है. जहॉं बाघ होता है वहॉं चीता नहीं होता. याने टाइगर इज़ टाइगर, नो वन एल्स. यह सब सुनने के
बाद तो जंगल की हर झाड़ी में मेरी ऑंखे बाघ खोज रही थीं. लेकिन, मुक्की
ने बताया कि जहॉं भी वह होगा उसका संकेत अन्य प्राणियों की आवाजों से हो जायेगा.
खासकर बंदर बहुत जोर-जोर से चिल्लाते हैं जब बाघ घूमता है. नर सांभर भी जोर-जोर
से आवाज देते हैं जिससे अन्य प्राणी सावधान हो जाते हैं. मेरे कान अब आवाज सुनने
के लिए खड़े हो गये थे. हम सबने घूमते हुए सब प्राणी देखे केवल बाघ को छोड़कर.
साढ़े छ: बजे तक 40-50 किलोमीटर जंगल में घूमे पर कहीं भी बाघ नहीं दिखा. वापस
लौटने पर रूम के पास एक और बंगाली परिवार था जिसने बताया उन्हें सुबह की सफारी
में टाइगर दिखा था. अब सुबह की बची सफारी में आस जग गयी कि यह सुस्त प्राणि है तो
सुबह तक वहीं बैठा रहे और हमें दिख जाए. मुक्की सिंह रूम से कुछ पहले छोड़कर हमें
चला गया पर लहलहाता घना जंगल मेरी आंखों में अब भी घूम रहा था. बाघ नहीं देखने की
कसक खुशनुमा जंगल देख पूरी हो गयी. ‘साल’ के ऊँचे-ऊँचे लाखों पेड़, एकदम ताजे हरे पत्तों से सने थे. यहॉं अस्सी प्रतिशत साल के वृक्ष हैं और
अन्य में सागवान आदि. पिताजी से सागवान के बारे में हमारे पुराने मकान में रहते
हुए जब किसी ने पूछा था कि पंडित जी यह सागवान पर टिका घर कितना मजबूत है तो उन्होंने
सागवान के बारे में एक कहावत कही थी ‘सौ साल खड़ी, सौ साल
पड़ी और सौ साल सड़ी’ याने 300 साल इसकी मियाद या उम्र होती है. यह सुनकर वह साहब चुप हो गये थे
और यही बात ‘साल’ के
संबंध में मुक्की ने हू-ब-हू दोहरायी तो अनायास ही मुझे पिताजी याद आ गये. जंगल
निहारते मेरी आंखे हिरणों की तहर यहॉं-वहॉं छलांगे मार रही थी. मन ही मन तो कभी
अपनी बेटी से कह रहा था कि इतना घना और गर्मी में हराभरा खूबसूरत जंगल आश्चर्य से
कम नहीं.
सन् 70 के दशक में इसे टाइगर
प्राजेक्ट घोषित करने के बाद लगभग तीस गॉंवों में बसे आदिवासी समुदाय को यहॉं से
दूसरी जगह बसाया गया. इससे पहले तक दक्षिण और अन्य क्षेत्रों के राजा और नवाबों
ने इसे बाघ का शिकारगाह बना रखा था. कहा जाता है कि बिजयनगरम के एक राजा ने यहॉं
के तीस बाघ शिकार में उड़ा दिये थे. लेकिन मध्यप्रदेश सरकार और वहॉ के निवासियों
की दिली तारीफ करनी होगी कि वे जंगल और जानवर को कोई नुकसान नहीं होने देते. इसकी
मिसाल यह है कि यहॉं वन विभाग का एक-एक आदमी लगभग 15 किलोमीटर क्षेत्र में
प्रतिदिन पैदल चल पहरा देता है. एकदम अकेले और केवल हाथ में एक लाठी लिये हुए. कइयों
पर जानवरों ने जानलेवा हमला किया पर ये आज भी निर्भीक और साहस के साथ वन और
प्राणियों की रक्षा में लगे हुए हैं. पैदल चलने या गाड़ी के लिए कोई पक्की सड़क
नहीं. घने वृक्षों के बीच केवल एक चार फीट चौड़ी पगडण्डी. नीचे से गुजरने वाले
सॉंप, बिच्छू
और न जाने क्या-क्या. यहॉं खूब बारीश होती है. अंदाज लगायें ऐसे में यहॉं क्या
होता होगा. बारिश के दिनों में यात्रियों के लिये यह तीन महीने बंद रहता है. लेकिन
इन्हें तो इन दिनों में भी जंगल में अपना फ़र्ज अदा करना पड़ता है. मन ही मन
मैंने इन्हें सेल्यूट किया और इनके आगे नतमस्तक हो गया. इन्हीं सब बातों में
खोते हुए रात हो गयी. ‘कान्हा’ की एक रात. नींद की जगह
रूम की खिड़की से देखती ऑंखे थीं कि कहीं कुछ चमकती बड़ी-बड़ी ऑंखे दिख जाएं. कुछ
अनोखा और अद्भुत दिखे. पर, जुगनुओं की चमक से अधिक कुछ और नहीं दिखायी दिया. लेकिन यह अहसास हुआ कि
जंगल के इस घने अंधेरे में जुगनू की रोशनी किसी सूरज की किरणपुंज से कम नहीं होती.
किसी तरह आराम किया कि सुबह घने वृक्षों के बीच सूर्योदय देखूँगा. साढ़े तीन बजे
उठा और तैयार हो गया. पर सुबह साढ़े-पॉंच बजे ही अच्छा खासा दिन निकल आया था और
हमारे सुबह की सफारी का समय हो गया था. गेट पर तीन किलोमीटर जिप्सी में पहुँचे तो
देखा कि कई हरे रंग की खास जिप्सियां यात्रियों को लिये तैयार खड़ीं थीं. यहॉं
चारों जोन में केवल सरकारी (59) जिप्सियां ही भीतर भेजी जाती हैं. लगभग 20-20
गाड़ियां एक-एक ज़ोन में. सुबह बाघ और अन्य प्राणियों के दिखने की संभावना बहुत
अधिक होती है. खुले में वे बाहर आते हैं. इस बीच हमारी 62 नंबर गाड़ी में जगदीश
गाइड आकर बैठ गया था. अच्छी खासी ठंड के बीच हमारे दॉंत कटकटा रहे थे. हमें गर्मी
में इस सुबह की ठंडक का बिलकुल अंदाजा नहीं था. यह ठंड हम पर बिजली की तहर गिरी
थी.
गाड़ी में बैठे लग रहा था कि
गरम कपड़े भी रखने चाहिए थे. चार घण्टे गाड़ी में घूमना था. जगदीश ने बताया कि वह
पूरा प्रयास करेगा कि हमें बाघ संभावित जगह ले जाए क्योंकि कल की सफारी में केवल
उसे ही टाइगर के दर्शन हुए थे. अत: वह उसी दिशा में गाड़ी को ले गया. करीब तीन-चार
किलोमीटर भीतर जाते ही नर सांभर की जोर-जोर से आवाज़ आने लगी जिसे गाइड एलर्ट कॉल
कहते हैं. सभी शांत और सन्न गाड़ी में अपनी-अपनी जगह खड़े हो गये. जगदीश ने सबको
शांत कर दिया. लगा कि काम बन गया. परन्तु, पॉंच-दस मिनट बाद साथ की दो-तीन गाड़ियां चलनी लगी तो
हमारी भी चल पड़ी. मैंने जगदीश से रूकने के लिए कहा पर इससे ज्यादा देर रुकने की
मनाही है तो हम कुछ नहीं कह सके. बाघ तो नहीं देख सके पर बाघ के हिलने-डुलने भर से
जंगल किस तहर हिल जाता है इसकी बानगी देख ली. हम किसली जोन से होते हुए कान्हा
में जा रहे थे. बहुत भीतर जाने के बाद जब हम कान्हा जोन में प्रवेश कर रहे थे तभी
मुझे कुछ निशान दिखायी दिये. जगदीश ने तुरंत गाड़ी एकदम धीमी कर दी और कहा कि ये
मादा बाघ के ताजा निशान है. लगा कि उसने अभी पगडण्डी पार की है. यहॉं भी रूके और
धीरे चलते हुए खुले तालाब के पास पहुँचे जहॉं उम्मीद थी कि वह आएगा. परन्तु
हमारे साथ अन्य भी निराश और सूखी ऑंखे लेकर आगे बढ़ चले (जगदीश ने बताया कि यह वही तालाब है जहॉं राजा दशरथ ने श्रवणकुमार पर बाण चलाया था). बीच में हमने दो नीलकंठ
किनारे बैठे देखे. लग रहा था कि यूँ ही नहीं कहा जाता कि राजा के दर्शन इतने आसानी
से होते हैं. मंदिरों में ‘दर्शन’ की घड़ी
का अंदाजा तो लगाया जा सकता है पर ‘राजा’ का दर्शन एक दुर्लभ संयोग ही है. खैर, सभी आगे बढ़ चले लेकिन मेरे मन में कसक थी और मैं
जगदीश से कह रहा था कि निशान वाली जगह वापस चलें और कुछ देर रुक जाएं. वह माना
नहीं और चलते गये. लगभग नौ-साढ़े नौ बजे के बीच जब एक-एक कर जिप्सी नाश्ते के
लिए निर्धारित स्थान पर रुकीं तो सबके चेहरे ‘नहीं दिखा’ वाला
भाव बता रहे थे. इस बीच हमने पैक लेकर चले नाश्ते का लुत्फ उठाया और एक ख़बर
सुनी की हमारे पीछे आने वाली जिप्सी के आगे लगभग देढ़ किलोमीटर तक बाघ सामने चलता
रहा और उन्होंने उसे जी भर देखा-निहारा. 79 नंबर की जिप्सी में सवार ये विदेशी
पर्यटक थे. हम उनसे कह भी नहीं सकते थे कि हमें शूट की गयी फिल्म दिखायें. मैं मन
ही मन झल्ला रहा था कि जगदीश गाइड ने मेरी बात नहीं सुनी. क्या किया जाय मैं ‘लियो’ और वह ‘टाइगर’. शायद हम
दोनों की नहीं जमती इसलिए आगे-पीछे निकल पड़े. दुख नहीं, लेकिन
जंगल में इस तरह जानवरों को खुला देख यह बात अवश्य लगी कि सच में इन्हें कितना
मुश्किल से बचाकर रखा गया है. इनके लिए प्राणहरों से खुद को बचाना याने जीवन हर
दिन, हर पल
चुनौती है. किस क्षण, किस प्राणी के साथ क्या हो जाय, नहीं पता. लेकिन, जब तक जियो निडर और नि:संकोच जियो. वन प्राणी ‘आनंद’ फिल्म
में कही राजेश खन्ना की बात याद दिला रहे थे कि ‘कल के ग़म को आज की खुशी में
शामिल कर, आज की
खु़शी ख़राब नहीं करनी चाहिए’. लगभग 11.30 बजे हम अपने कमरे के पास लौट आये. मन में कान्हा से विदा होने
का अहसास इस बात के साथ जाग गया था कि यहॉं मैं बार-बार आऊँ और उनके बीच कुछ समय
गुजारूँ जो जिन्दगी ढोते नहीं जीते हैं.
आपकी वर्णनशैली काफी आकर्षक और सजीव लगी। आप गैप नहीं छोड़ते। पढकर लगा कि मैं स्वयं यात्रा में वर्णित स्थानों और चीजों को देख रहा हूँ।
ReplyDeleteआभार राय साहब!
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