Tuesday, November 15, 2016

अध्‍यापक वेणु गोपाल – बातें और यादें

हैदराबाद और हिन्‍दी साहित्‍य के प्रसिद्ध कवि, आलोचक, लेखक और रंगकर्मी 
डॉ वेणुगोपाल
पर आयोजित राष्‍ट्रीय संगोष्‍ठी में प्रस्‍तुत संस्‍मरण

(22.10.1942 से 01.09.2008 तक)


वेणु जी को मुझे बचपन से ही देखने का मौका मिला। 80 के दशक में घर की छतों पर होने वाली साहित्‍यिक गोष्‍ठियों से उन्‍हें देखने-सुनने का सिलसिला जनवादी लेखक संघ और अन्‍य कार्यक्रमों के ज़रिये चलता रहा। मुझे याद है जब हम घर के बाहर सड़क पर और बस्‍ती में खेलते रहते और बड़े भाई बृहस्‍पति जी के चलते वेणु जी का हमारे यहॉं आना-जाना हुआ करता था या बजरंग भगत के यहॉं उनका अक्‍सर मिल जाना एक सामान्‍य बात थी। जब वे हमारी बस्‍ती में आते तो अक्‍सर मेरे दोस्‍त पूछा करते कि अरे वो बैग डाल के मोटे जैसे आते उनो कौन हैं? भोत पढ़ने वाले है क्‍या? ये थोड़े-थोड़े दिन कू तुम्‍हारे घर पे क्‍या होता यह वह समय था जब कवि-गोष्‍ठियां घर की छतों पर हुआ करती थीं और हैदराबाद की वरिष्‍ठ और बुजुर्ग साहित्‍यिक बिरादरी से युवा कवि-लेखकों को मंच स्‍थानांतरित हो रहे थे। डॉ इन्‍दु वशिष्‍ठ, हरनाम सिंह प्रवासी, वेणु गोपाल, दुलीचन्‍द शशि सहित और भी शहर के नामचीन कवि और साहित्‍यकार इन गोष्‍ठियों में भाग लेते, रचनापाठ करते जिनसे उभरते रचनाकार, लेखन-कौशल की बारिकियों से रू-ब-रू होते। देखने में आता बृहस्‍पति जी के दोस्‍त गोविंद इन गोष्‍ठियों में चारकमान से अपने साथ बिस्‍किट ले आते और घर की बनी चाय की चुस्‍कियों के साथ इन गोष्‍ठियों का समां बंधता। इन्‍हीं गोष्‍ठियों और कार्यक्रमों की देखा-देखी ने हमें भी थोड़ी-बहुत साहित्‍यक समझ और अदबी सीखायी।

यह तो पता नहीं था कि कविता क्‍या होती है, कैसे लिखी जाती है, पर वेणु जी को जब भी सुनते, दूसरों से कुछ अलग लगता था। उनकी कविता की शैली अलग थी और पूरी तरह समझ में भी नहीं आती थी। यह भी देखने में आता कि गोष्‍ठी में भाग लेने वाले कुछ कवियों की भी स्‍थिति हमारी ही तरह होती और वे दूसरों के वाह कहने पर खुद भी कह देते। मुझे लगता कि इन्‍हें समझ भी नहीं आ रहा है पर वाह किये जा रहे हैं। पूछने का मन भी करता कि वे ऐसा क्‍यों करते हैं? लेकिन कभी हिम्‍मत नहीं कर पाये। वेणु जी जब भी मिलते घर का नाम लेकर बात करते और मुस्‍कुरा देते। उस समय के पाठ्यक्रम में इस शैली की कविताएं भी बहुत कम होती थीं अत: इसके रचना-संस्‍कार के बारे में हम बहुत कम जानते थे।

तीन-चार बरस बाद जब विज्ञान से पटरी बदल एम ए की प्रवेश-परीक्षा में पहले नंबर पर आए तो उस्‍मानिया विश्‍वविद्यालय में प्रवेश लेने का बहुत मन था पर भाई साहब ने कहा कि विवेक वर्धिनी कॉलेज से एम ए करो वहॉं दवे जी (कृष्‍णवल्‍लभ दवे), वेणु जी और विद्यासागर जी (प्रसिद्ध भाषा वैज्ञानिक प्रो. विद्यासागर दयाल) हैं। तीनों नाम परिचित थे। यह दोस्‍तों की समझ में नहीं आया कि एण्‍ट्रेन्‍स में पहला नंबर पाकर भी मैंने यहॉं प्रवेश क्‍यों लिया और ओ यू वाले नाराज़ हुए सो अलग। इसका ख़ामियाजा भी हमने बाद में भुगता। कॉलेज के शुरू के दिन माहोल जानने और परिचय के थे। यह शहर का पहला एडेड कॉलेज था जहॉं एम ए हिन्‍दी की पढ़ाई शुरू हुई थी और हमने इसके दूसरे ही साल में प्रवेश लिया था। सब कुछ नया-नया था, विभाग और व्‍यवस्‍था जम रही थी। दीवारों के नये रंगों में अभी बू बाकी थी। विश्‍वविद्यालय जैसा विशाल परिसर और वैसा सब आकर्षण तो नहीं था लेकिन एक बड़े संस्‍थान के कोने में बनी एम ए की इन दो कक्षाओं और एक स्‍टाफ रूम सह पुस्‍तकालय का माहोल कुछ अलग सा था। औपचारिक कम और अनौपचारिक ज्‍यादा। एम ए के पहले बैच के दूसरे साल की पढ़ाई करने वाले साथियो में बिहारीलाल सोनी, संजय सिंह, सुरेन्‍द्र सिहं, अजय मानुधन्‍य, वाडेकर, श्रीनिवास, इन्‍दिरा, शाहिन, अनवरी, श्‍यामला, निर्मला और रजनी ने शुरूआत में ही बात-चीत के दौरान सब बता दिया था कि कौन-कौन, क्‍या-क्‍या पढ़ाते हैं। सबने कहा कि कोई भी क्‍लास मिस मत करना। अजय (जो अब नहीं रहा) और बिहारी ने कहा वो देखो, वो मोटे-मोटे किताबों के साथ वेणु जी है। उनकी तो बिलकुल मिस मत करना। उनकू गायब होने का चांस दिए तो गए समझो। वेणु जी स्‍टाफ रूम में बैठे मोटी-मोटी किताबें सामने रखे कुछ पढ़ रहे थे। विभाग में रखी अलमारियों में विज्ञान से मोटी-मोटी साहित्‍य की किताबें देख दिल अम्‍मां बोल रहा था। पतली और कम पेज वाली किताबें कौनसी हैं, हम नज़रों में बिठा रहे थे।

वेणु जी के पढ़ाना शुरू करने के पहले ही बता दिया गया था कि वे प्राचीन एवं मध्‍यकालीन काव्‍य में घनानंद और बिहारी, पाश्‍चात्‍य काव्‍य-शास्‍त्र, चिंतामणि व कामायनी पढ़ाने वाले हैं। पहली क्‍लास में परिचय हुआ। बुलन्‍द आवाज में कहा मैं वेणुगोपाल हूँ। आप लोग भी अपने नाम बता देना। सबने नाम बता दिए। आपको बता दिया गया है कि मैं क्‍या पढ़ाने वाला हूँ। मैं घनानंद से शुरूआत करूँगा। आप जो भी नोट-वोट करते रहना हो, कर लेना। कोई सवाल पूछना हो तो कभी भी पूछ लेना।

एक-दो क्‍लास में वेणु जी ने घनानंद और उनके काव्‍य का परिचय दिया। कविता की पृष्‍ठभूमि बतायी। हिन्‍दी भाषी बच्‍चे तो फिर भी उनकी बातें और अंदाज को पकड़ने की कोशिश करते लेकिन तेलुगु और अन्‍य भाषियों के लिए हिन्‍दी साहित्‍य और उसमें भी मध्‍यकालीन या रीतिकालीन काव्‍य एक तो करेला और ऊपर से नीम चढ़ा सा था। शुरूआती कक्षाओं के बाद कुछ बच्‍चों ने कहा कि चुप ही साइन्‍स, कामर्स छोड़कर हमने साहित्‍य लिया। जबकि ये सब अपने मुख्‍य विषय-क्षेत्र में सीट नहीं मिलने की मजबूरी में यहॉं आए हुए थे। और, अक्‍सर एम ए हिन्‍दी करने वालों के साथ ऐसा ही होता है। वेणु जी क्‍लास में मुझे घर के नाम से ही बुलाते थे। दो-तीन दिन की शुरूआती क्‍लास के बाद मैंने क्‍लास के बाहर अपने असली नाम से पुकारने की बात कहते हुए एक छात्र के कहने पर पूछ लिया कि कविता क्‍या  होती है? वेणु जी ने कुछ सेंकड की देरी के बाद कहा, अच्‍छा हुआ तुमने यह प्रश्‍न क्‍लास के बाहर किया, सच कहूँ, मैं भी नहीं जानता हूँ कि कविता क्‍या होती है। उन्‍होंने कहा पिछले साल वाडेकर ने भी यही सवाल किया था और मैंने यही उत्‍तर दिया था। क्‍लास में कहना अलग है। यहॉं जो कह रहा हूँ, सच है। वैसे उन्‍होंने धूमिल को उद्धृत करते हुए पहले ही कह दिया था कि कविता भाषा में आदमी होने की तमीज़ होती हैअध्‍यापक के रूप में वेणुजी के लिए यह समय भी मुश्‍किल भरा रहा। अपनी शर्तों पर जीने वालों के लिए व्‍यवस्‍था हमेशा क्रूर और कष्‍टदायी ही रहती है। ऐसे में एकतरफ उन पर नौकरी की शर्तों का दबाव, नया-नया कॉलेज, बच्‍चे भी अधिकतर ऐसे जिनकी मातृभाषा हिन्‍दी नहीं और जिन्‍होंने ओ यू या उससे सम्‍बद्ध कॉलेजों में प्रवेश नहीं मिलने या साल खराब होने के डर से इस एडेड कॉलेज में प्रवेश लिया हो। ऊपर से कॉलेज और बच्‍चों को अच्‍छे अंको की उम्‍मीद। वेणु जी के बेहद अनुभवी होने के बावजूद भी उनके लिए बहुत कुछ नया और चुनौतीपूर्ण था। खैर, कुछ कक्षाओं के बाद पटरी जम गयी। वेणु जी जैसे अक्‍सर बिना टिकट किसी भी ट्रेन में यह सोचकर निकल जाते कि देखें ये ट्रेन कहॉं ले जाती है, ठीक वैसे ही अधिकतर बच्‍चों को कुछ दिन बाद लगा कि ‘some times a wrong train takes to a right destination.’ बिहारीलाल सोनी ने सही कहा था-- इनकी क्‍लास मिस मत करना चंद दिनों में ही वेणु जी को सुनने का मजा आने लग गया। कुछ छात्र बतियाने रामंतापुर स्‍थित घर भी जाने लगे। प्रसंगवश कहूँ तो, कई पुराने-नये छात्रों की मुलाकात भी उन्‍हीं के घर हो जाती। वेणु जी घर पर तो समय दे देते पर चिट्ठी-पत्री में देरी कर देते। एक बारगी हैदराबाद नाबार्ड से गोहाटी में तैनात हिन्‍दी अधिकारी सच्‍चिदानंद का पोस्‍ट कार्ड आया वेणु जी आपका पत्र मिला, धन्‍यवाद्। वेणुजी इस अंदाज़ से बहुत खुश हुए कि उन्‍हें वायदे के मुताबिक चिट्ठी नहीं लिखने पर याद दिलाने सचिन ने क्‍या अंदाज़ अपनाया है। बोले बढ़िया तरीका है अपने टीचर को सीखाने का। पर, मैं भाग्‍यशाली था कि मेरे बेंगलूर में नौकरी करते समय प्रेमचंद पर आयोजित एक राष्‍ट्रीय संगोष्‍ठी में पेपर पढ़ने आमंत्रित करते हुए उन्‍होंने एक पोस्‍ट कार्ड लिखा था जिसमें मैं भाग नहीं ले सका। वेणु जी के व्‍यक्‍तित्‍व की एक और खास बात रही कि वे कब मनोचिकित्‍सक, कब मित्र और कब कोच या टीचर बन जाते यह पता नहीं चलने देते। वे समाज और व्‍यवस्‍था की शतरंजी चालों से बखूबी वाकिफ थे। अत: वे छात्र-मित्रों के हमेशा हमकदम बने रहते। उन्‍हें हमेशा स्‍पार्क और नेवर से डाइ स्‍पिरिट की तलाश रहती और किसी छात्र की खुशी-गम में वे एक अभिभावक की तरह साथ हो जाते। वीरा जी भी उनका उतना ही साथ देंती। जब भी घर जाते सब-कुछ बहुत सुव्‍यस्‍थित दिखाई देता। घर में सजावट की चीज़ें कम और किताबें ज्‍यादा दिखतीं। वह भी सब ढंग से रखी होतीं। अनुशासनबद्ध माहोल में अक्‍सर वेणु जी सफेदभक लुंगी और झब्‍बानुमा कुर्ता पहने पढ़ने-लिखने में लगे रहते या बाहर से ही जोर-जोर की आवाज आने लगती। समझ में आ जाता कि वे किसी मित्र-मेहमान या छात्र के साथ बैठे हैं। वांछित व्‍यक्‍ति  आया हो तो कड़क मसाले वाली चाय अधिकतर कॉंच वाले कप में पीने को मिल जाती। कोई अवांछित हो तो उसे चलता करने में भी देर नहीं लगती। क्‍लास और पढ़ाई संबंधी विषय घर पर सुनने में और भी मज़ा आता। हम अक्‍सर उनकी रचनाएं और गद्य सुनाने का आग्रह करते और अधिकतर किसी डायरी, मैगज़ीन से आधे-अधूरे आकार के मटमैले कागज निकालकर वे कुछ लिखा-लिखी सुना भी देते, वे स्‍वभाव की तरह अपने लिखे हुए के प्रति भी बेपरवाह थे। पर, क्‍लास में पढ़ाने, वे हमेशा जमकर तैयारी करके आते। वे हमेशा कहते कि गलत प्रश्‍नों  के सही जवाब नहीं होते। पर बच्‍चों के सही सवाल मुश्‍किल खड़ी कर देते हैं। वेणु जी कविता पढ़ाते कम और इसे जिन्‍दगी से जोड़कर समझाते ज्‍यादा थे। कक्षा में घनानंद पढ़ाते समय तो एक-एक सवैये, पद पर घण्‍टों बोलते। ढेरों उदाहरण देते। उनका कहना था कि किसी भी रचना को जिन्‍दगी से काटकर नहीं देखा जा सकता । उन्‍होंने घनानंद के जीवन, काव्‍य और उनके इतने खास बनने के बारे में बताते हुए कहा था कि आदमी बनता ही है घर से निकलने के बाद और इससे पहले कि कोई इस पर सवाल करे, यह भी कह दिया कि घर से क्‍यूं निकलना चाहिए इसके लिए राहुल सांकृत्‍यायन का घुमक्‍कड़ शास्‍त्र एक बार जरूर पढ़ लेना। घनानंद के तो कुछ ही पद अब मुझे याद है पर उनकी सभी बातें और उनका संदर्भ अब भी याद है। वेणु जी ने घनानंद पढ़ाने के पहले ब्रजनाथ जी के दो सवैये पढ़ाए थे जो उनके काव्‍य  को पढ़ने-समझने की पात्रता की मांग करते हैं यथा नेही महा ब्रजभाषा प्रबीन औ सुन्‍दरतानी के भेद को जानै, डैश, डैश, डैश और यह भी कहा था कि प्राचीन और मध्‍यकालीन काव्‍य के हर बड़े कवि के दोहे, पद, चौपाई, छंद, सवैये पढ़ते समय ध्‍यान रखना चाहिए कि उनकी हर कविता, वास्‍तव में कविता नहीं होती। कुछ हिस्‍सा सृजन की श्रेणी में आता है तो बहुत कुछ अभ्‍यास के लिए भी लिखा जाता है।

झलकै अति सुन्दर आनन गौर, छके दृग राजत काननि छ्वै।
हँसि बोलनि मैं छबि फूलन की बरषा, उर ऊपर जाति है ह्वै।
लट लोल कपोल कलोल करैं, कल कंठ बनी जलजावलि द्वै।
अंग अंग तरंग उठै दुति की, परिहे मनौ रूप अबै धर च्वै।।4।।

अति सूधो सनेह को मारग है जहाँ नेकु सयानप बाँक नहीं।
तहाँ साँचे चलैं तजि आपनपौ झिझकैं कपटी जे निसाँक नहीं॥ 
घनआनंद प्यारे सुजान सुनौ यहाँ एक ते दूसरो आँक नहीं।
तुम कौन धौं पाटी पढ़े हौ लला, मन लेहु पै देहु छटाँक नहीं॥

हीन भए जल मीन अधीन कहा कछु मो अकुलानि समाने।
नीर सनेही कों लाय अलंक निरास ह्वै कायर त्यागत प्रानै।
प्रीति की रीति सु क्यों समुझै जड़ मीत के पानि परें कों प्रमानै।
या मन की जु दसा घनआनँद जीव की जीवनि जान ही जानै।। 8 ।।

लाजनि लपेटि चितवनि भेद-भाय भरी
लसति ललित लोल चख तिरछानि मैं।
छबि को सदन गोरो भाल बदन, रुचिर,
रस निचुरत मीठी मृदु मुसक्यानी मैं।
दसन दमक फैलि हमें मोती माल होति,
पिय सों लड़कि प्रेम पगी बतरानि मैं।
आनँद की निधि जगमगति छबीली बाल, 
अंगनि अनंग-रंग ढुरि मुरि जानि मैं।

अंदाज लगाया जा सकता है कि कविता पढ़ना-समझना मुश्‍किल तो ऊपर से ये समझना कि काव्‍य का कौनसा हिस्‍सा या पद अभ्‍यास के लिए लिखा गया है और कौनसा उत्‍कृष्‍ट सृजन है। ये अपने लिए तो उल्‍टा लटकने के समान ही था। लेकिन वेणु जी की यह बात कि सीधी लकीर खींचना टेढ़ा काम है, वे किसी भी काव्‍य को अपने विषद अध्‍ययन और अनुभव से खोलकर सीधा समझाने लायक बना देते थे।  

मेरे डिग्री में नंबर कम आए थे। हैदराबादी हिन्‍दी इलाके में रहकर हिन्‍दी माध्‍यम से पढ़े होने की वजह से अंग्रेजी में भी लंगडे थे। इस कारण मन में नौकरी पाने की कठिनाई और डर बैठा था। छोटी से लेकर बड़ी नौकरी तक की सौ से ज्‍यादा परीक्षाएं लिखने के बाद 3-4 नौकरियां मिलीं। इन्‍हीं दिनों में वेणु जी कामायनी पढ़ा रहे थे। पढ़ाते समय उन्‍होंने कहा था अक्‍सर आनंद की शुरूआत चिंता से होती है और चिंता ही विचार में बदलकर डैश से डैश से होती हुई आनंद में बदलती है। अत: चिंता और आनंद के बीच जो है वही कामायनी है। इस वाक्‍य और डैश-डैश से अंदाजा लगाया जा सकता है कि उन्‍होंने जिन्‍दगी को और कामायनी को कितने बार पढ़ा और समझा होगा। अक्‍सर अध्‍ययन और अनुभव की कमी के चलते कामायनी जैसे काव्‍य पढ़ाते वक्‍त अपनी विद्वत्‍ता बताने की चक्‍कर में इसे कितना उलझा दिया जाता है ये हम सब जानते हैं। इस कारण टीचर और काव्‍य छोड़ बच्‍चे गाइड की चक्‍करों में पड़ जाते हैं। यह बात कामायनी समझाने में कितनी मददगार रही उससे अधिक मेरे लिए वेणु जी का वह डैश-डैश ज्‍यादा कीमती था। वे इस डैश डैश में कितना कुछ कह गये समझने वाली बात थी। वे अपने स्‍वभाव के चलते आर्थिक मोर्चे पर लापरवाह जरूर थे पर इसकी अहमियत से बखूबी वाकिफ थे। मुझे पहली नौकरी मिलने के बाद कॉलेज के सामने पान डब्‍बे पर पान खाते-खाते एक बात कही थी – जिन्‍दगी में मीठा-मीठा गप-गप और कड़वा-कड़वा थू-थू नहीं होता वो गीत सुना है कि नहीं— मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया, डैश, डैश, डैश। किसी भी विषय की प्रक्रिया या विधि के बीच की स्‍थिति समझने या फिर जीवन में असफलता, अपमान, हीनभाव से गुजरकर इससे उबरने में वेणु जी का ये डैश, डैश, डैश मेरे लिए मुन्‍नाभाई की किसी जादू की झप्‍पी से कम नहीं था। कई दुविधाएं, अनसुलझी बातें इससे सुलझ जाती थीं। इन्‍हीं दिनों द आर्ट ऑफ लिविंग, एन ऑटो बायोग्राफी ऑफ ए योगी, पथ के दावेदार, जिन्‍दगी मुस्‍कुरायी जैसी किताबें उन्‍होंने पढ़ने के लिए कहा। एक बार ओशो की प्रदर्शनी लगी थी। अक्‍सर पढ़ाते समय और बातचीत में वेणु जी बर्टेण्‍ड रसल, एरिक फार्म, शमशेर, त्रिलोचन और ओशो का नाम लिया करते थे। घनानंद पढ़ाते समय कई बार शमशेर बहादुर सिंह की चुका भी हूँ मैं नहीं रचना कई बार उद्धृत की थी। उनके घर पर भी ओशो की कई किताबें देखी थीं। इसी चक्‍कर में ओशो की पहली किताब पढ़ी निरगुण का बिसराम - कबीरवाणी। ऐसा लगा जैसे भीतर एक विस्‍फोट हुआ। वेणु जी को बताया। बोले होने दो। जिन्‍दगी में हर बड़ी यात्रा की शुरूआत एक छोटे कदम से होती है। ये बेचैनी और जि़द तुम्‍हारे काम आयेगी संभालकर रखना। अपने फ्रेम को तोड़कर निकलना बहुत मुश्‍किल बात है बात पूरी तरह समझ में नहीं आयी। लेकिन बेचैनी बनी रही, कुछ करने की। एक के बाद एक ओशो की जिनसे भी संबंधित बाजार में किताबें मिली लगभग सभी पढ़ डालीं। कृष्‍ण, बुद्ध, महावीर, दादू, दयाल, मीरा, सहजो, अष्‍टावक्र, झेन, लाओत्‍से, अरस्‍तु, ख़लील जिब्रान, ताओ उपनिषद आदि। एम ए की परीक्षा पास करने पर वेणु जी ने ठीक ही कहा था यह पास होने का मतलब है पढ़ने का लाइसेन्‍स मिलना।

उनके लिए पढ़ना-पढाना एक होलिस्‍टिक एपरोच हुआ करता था। उनके इस समग्रता के नज़रिये में पढ़ना, खेल, सिनेमा, नाटक, गीत-संगीत, यात्रा सब कुछ शामिल था। वे अक्‍सर पढ़ाते समय फिल्‍म और खेल की खूब बातें किया करते थे। वे अक्‍सर पढ़ाते समय फिल्‍म और खेल की खूब बातें किया करते थे। पढ़ाते समय कई फिल्‍मों के नाम, उसके सीन, डायलाग, विषय को समझाने में सहज ही बोल जाते। आशिकी’, प्रहार’, सर’, मिर्च-मसाला गृह-प्रवेश, तीसरी कसम जो जीता वही सिकंदर सहित महेश भट्ट, नाना पाटेकर, नसीरूद्दीन शाह, केतन मेहता, बासु भट्टाचार्य, असगर वजाहत, फ़ैज अहमद फ़ैज़, निदा फ़ाज़ली, हबीब तनवीर के कई उदाहरण दिया करते थे। एक बार हमने कहा यस बास फिल्‍म देखने चलते हैं। इस पर कहा कि कल अज्ञेय पे मुझे बोलना है मैं तैयारी में लगा हूँ। हाथ में शेखर एक जीवनी थी। हमने कहा आपके लिए कौनसी मुश्‍किल बात है, तो कहा अब तक 42 बार पढ़ चुका हूँ, यही मुश्‍किल है। ये 43वीं बार है, देखते हैं अज्ञेय को कितना समझ पाता हूँ? ऐसे ही चिंतामणि में रामचन्‍द्र  शुक्‍ल के निबंध साधारणीकरण और व्‍यक्‍तिवैचित्र्यवाद को पढ़ाते समय उन्‍होंने कहा था कि आइन्‍सटिन के लिए थ्‍योरी ऑफ रिलेटीविटी में जो रिलेटिविटी का अर्थ है वही शुक्‍ल जी के लिए साधारणीकरण का है। ऐसा कहते हुए सुनना किसी आश्‍चर्य से कम नहीं था। विज्ञान का विद्यार्थी होने के नाते यह मुझे आसानी से समझ में आ तो गया लेकिन दूसरा आश्‍चर्य यह था कि वेणु जी ने क्‍या–क्‍या पढ़ और समझ रखा है। भौतिक शास्‍त्र और साहित्‍य का ऐसा मेलजोल यह उनके ही बूते की बात थी।

पढ़ते समय अध्‍यापकों की राइवलरी के चलते ओ यू के साथियों के साथ एक परोक्ष राइवलरी सी बना दी गयी थी। वेणु जी ने इसे सकारात्‍मक बनाने यूनिवर्सिटी और विवेक वर्धिनी के छात्रों के साथ क्रिकेट मैच का तोड़ निकाला। पहले साल के मैच में वि वि को हार मिली लेकिन उन्‍हें घनश्‍याम जैसा होनहार छात्र मिला जिसने विपक्षी टीम के खिलाड़ी के चोटिल हो जाने पर अपनी ही टीम के खिलाफ फिल्‍डिंग की थी। बस, यहीं से बात शुरू हुई और घनश्‍याम भी वेणु जी के संग हो गया। यह इतना भी आसान नहीं था। वे ब्रजनाथ जी के सवैयों में घनानंद कवित्‍त पढ़ने की पात्रता की तरह छात्रों में भी पात्रता खोजते थे। खूब छकाने के बाद भी जब घनश्‍याम ने हार नहीं मानी तो अपने संग कर लिया। वे अक्‍सर जुझारू और अभावों से उबरने संघर्ष करते बच्‍चों को पसंद करते थे। दूसरे साल फिर से क्रिकेट मैच रखाया। मुझे कप्‍तानी करने के लिए कहा। टॉस करने जाते समय पूछा, पता है ना क्‍या करना है? मैंने उन्‍हीं के लहजे में जवाब देते हुए कहा आपने कहा है ना बुद्धि और भावना के संतुलन को विवेक कहते हैं। मुस्‍कुराए, हाथ मिलाया और आल द बेस्‍ट कहकर भेज दिया। मैंने 103 रन बनाए और हम वह मैच जीत गये। उन्‍होंने शाबाशी दी और कहा आज मैच पूरा हुआ। शायद इस जीत से ज्‍यादा वे जीत की स्‍पिरिट देखना चाहते थे। यही कारण रहा कि खेल और मनोरंजन भी उनके पढ़ाने का एक हिस्‍सा थे। वे खुद भी स्‍पिरिटेड होने का कोई मौका नहीं छोड़ते थे। बहुत अस्‍वस्‍थ रहने के बावजूद उन्‍होंने चक दे इंडिया जाकर देखी थी और उसकी जो समीक्षा वार्ता में लिखी वह बेमिसाल थी। जब वे खेल पे बालते तो पूरे डाटा के साथ बात करते। साहित्‍यिक अंदाज में खेल पर एक्‍सपर्ट कामेंट सुनना मुझ जैसों के लिए एक अलग अनुभव था। इस फिल्‍म और समीक्षा की हमने बात की तो उन्‍होंने ज़लालत के बदले अपने खेल-कौशल से कैसे जवाब दिया जाता है इस पर 1996 में दक्षिण अफ्रिका के खिलाफ एक टेस्‍ट में जवगल श्रीनाथ द्वारा तेज़ और शार्टपीच गेंदबाजी से आठ विकेट लेकर प्रोटीज़ को उन्‍हीं के घर में दी गई पटखनी याद दिलायी। ऐसे ही सन् 1998 में सचिन की शारजाह में आस्‍ट्रेलिया के खिलाफ धूल भरी ऑंधी में खेली गई साहसिक पारी और 2002 की अनिल कुंबले की जबड़ा टूट जाने के बावजूद बाउलिंग कर ब्राइन लारा का विकेट लेने का साहसिक कमाल संदर्भित किया था। ऐसी जुझारू स्‍पिरिट और अपने काम के प्रति दिवानगी को वे बहुत कीमती मानते थे। उनके स्‍वभाव में भी यही बात रही जिसके चलते हर तकलीफ और अस्‍वस्‍थता के दिनों में भी उन्‍होंने पढ़ाई-लिखाई के काम से कभी जी नहीं चुराया। यहॉं तक कि वे निम्‍स के क्रिटिकल केयर यूनिट में भी डाक्‍टर से इलाज से अधिक सिर्फ पढ़ने की रियायत मॉंगते।

एक बात तय है कि वे कविता या काव्‍यशास्‍त्र नहीं हमें जिन्‍दगी पढ़ना और जीना सीखाते रहे। आज हमारे साथ किसी कवि की कविता और काव्‍य–शास्‍त्र नहीं पर उनकी बातें और यादे हैं जो हमें आगे बढ़ा रही है। शायद देखना और सुनना क्‍यों इतना महत्‍वपूर्ण है, खासकर कविता में यह अब समझ आता है। उन्‍हीं की एक रचना के साथ अपनी बात समाप्‍त करना चाहूँगा जो मुझे बहुत पसन्‍द है और उन्‍होंने कई बार सुनाई थी।

सफर

सफर पे निकल तो पड़े हो। 
लेकिन
थैले में सामान क्या-क्या रखा है?
अपना सूरज रखा है कि नहीं?
और हाँ, एक अदद यात्रा-संगीत भी?
पगडंडियाँ
कभी भी उस सूरज से रोशन नहीं होती
जो सबके सिरों पर चमकता है और
संगीत-हीन दूरियाँ
ताज़गी सोख लिया करती है और
मनमाने ढंग से
मनगढ़ंत थकानें लाद दिया करती हैं।
रात-बिरात सोने के लिए
एक गोद रख ली है कि नहीं? और हाँ
कुछ मीठे बोल भी? 
अगर नहीं,
तो
राह में पड़ने वाले
झरने के किनारे
जब आराम करोगे तो आसमान से
सन्नाटे की अग्नि-बौछारें होंगी और
चुटकी भर राख भी नहीं बच पाएगी
तुम्हारी जगह।
और जिस्म में
गोश्त और खून और हड्डियों की बगल में
झाड़-झंझाड़ भर लिया है कि नहीं? वरना
पगडंडी पर पांव रखते ही

पानी की लकीर की तरह सूख जाओगे।
सफर पे निकल तो पड़े हो 
लेकिन याद रखो
कि सफर के लिए 
जितनी ज़रूरत पैरों की होती है, 
उतनी ही इस तैयारी की भी 
और
उतनी ही एक खूबसूरत मंज़िल की भी! 
जो तुम्हारे पास रहे। 
पहले से ही।
सफर पे निकल तो पड़े हो
मंज़िल को मुट्ठी में कस लिया है कि नहीं?
******************

साथ / वेणु गोपाल

अंधेरे में हो
इसीलिए
अकेले हो

रोशनी में आओगे
तो
कम से कम
अपने साथ
एक परछाईं
तो
जुड़ी पाओगे।
(
रचनाकाल :05.10.1977)

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1 comment:

  1. दिलचस्प है आपका यह संस्मरण । बधाई ।

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