Monday, January 18, 2010

राजभाषा कार्यशाला के बहाने महबूबनगर और 'पिल्‍ललमर्री'

दिनांक 7 जनवरी को महाप्रबंधक, बीएसएनएल के निमंत्रण पर महबूबनगर जाना था. सुबह 7.40 बजे काचीगुड़ा रेल्‍वे स्‍टेशन से मैं और रामचन्‍द्रन जी रेलगाड़ी में सवार हुए और गाड़ी महबूबनगर चल पड़ी. महबूबनगर की यह मेरी पहली यात्रा थी. मैं उत्‍सुक था कि दो घण्‍टे के सफ़र से आन्‍ध्र-प्रदेश के एक जिले तक पहुँचा जा सकता है. वह भी मात्र 35 रु का रेल किराया देकर. स्‍टेशन पर लगभग तीन-चार सौ लोग खडे़ थे. तुंगभद्रा एक्‍सप्रेस जो कर्नुल तक जाती है सिकंदराबाद से चलती है और लगभग वहीं से भर जाती है. श्रीमती गायत्री, बी एस एन एल की हिन्‍दी अधिकारी ने हमें पहले ही बता दिया था कि शायद काचीगुड़ा से सीट ना मिले. चूँकि 74 वर्षीय युवामन रामचन्‍द्रन जी मेरे साथ थे सो मैं अपने से आधी उम्र का बनकर तैयार खड़ा था कि जैसे ही गाड़ी की गति धीमी हो जाए और चलती गाड़ी में चढ़ने लायक स्‍िथति बनेगी मैं चढ़ जाऊँगा और वैसे ही किया. नतीजतन मात्र तीन-चार सीटें डिब्‍बे में खाली थी सो दो पर हम काबिज़ हो गये. सुबह-सुबह मेरे सहयोगी राजभाषाकर्मी श्री करण 6.30 बजे घर आ गए थे स्‍टेशन छोड़ने और हम कानबजती ठंड में स्‍टेशन निकल पड़े. ठंडा पानी नहाने की आदत के बावजूद ठंड काट रही थी. स्‍टेशन पहुँचते ही रामचन्‍द्रन जी ने नाश्‍ते और काफी की पेशकश की तो मैं इन्‍कार नहीं कर सकता था सो पार्सल नाश्‍ता लेकर फुट ओवर ब्रिज चढकर अगले प्‍लैटफार्म पर गए. वहीं ठहरे-ठहरे मैंने नाश्‍ता किया और बाद में दोनों ने गरम काफी पी ही थी कि गाड़ी आ गयी और हम चल पड़े.  

इस दौरान बहुत कुछ अनुभव हुआ. यात्रा चाहे छोटी हो या बड़ी तैयारी उतनी ही करनी पड़ती है. यहॉं भी जाते समय हाथ में सूटकेस छोड़ सबकुछ था. कई यात्राएं की होंगी परन्‍तु हमेशा एक दिन पहले से दिल-ओ-दिमाग यात्रा करना शुरू कर देता है. कौनसे कपड़े पहनने हैं. सुबह उठकर दाड़ी जरूर बनानी है. जूते पालिश हुए या नहीं. पर्स में पैसे पर्याप्‍त हैं या नहीं. पेट ठीक रखना है. कोई जरूरी दवाई हो तो उसे भी साथ रखना है. इनके अलावा क्रेडिट कार्ड, आई-कार्ड रखा है या नहीं आदि-इत्‍यादि. और इन सब पर घर वाले भी मानसिक रूप से तैयार रहेंगे कि रेल से बाहर जा रहे हैं. आप हैदराबाद में रोज 50 कि.मी. दूर जाएं-आएं उतनी मानसिकता प्रभावित नहीं होती जितनी कि सुरक्षित रेल यात्रा पर जाने से होती है. साधन और स्‍थान कितना असर डालते हैं यह महसूस किया जा सकता है.

तेलंगाना का ज्‍वलंत मुद्दा भी रेल में बैठते समय दीमाग में था. लगभग 12 वर्ष भानूर में काम करने से मेदक जिले के इलाकों और वहॉं के हालात का कुछ पता था तो इसी प्रकार बचपन से करीमनगर और निजामाबाद जाते-आने रहने से इन जिलों और यहॉं के गॉवों का हालचाल भी थोड़ा-बहुत पता था पर लोगों की भीड़ बता रही थी कि महबूबनगर इनसे कुछ हटकर है. सुना और देखा था कि लोग बंबई-पूना रोज आते-जाते हैं. यहॉं भी देख ऐसा ही लग रहा था. पर सवाल था कि महबूबनगर से लोग हैदराबाद आएं समझ में आता है पर यहॉं से महबूबनगर जाएं समझ में नहीं आ रहा था. खैर, कुछ ही देर में यह जिज्ञासा शांत हो गयी. मेरे बगल में एक व्‍यापारी और एक विद्यार्थी बैठा था और रामचन्‍द्रन जी के बाजू संयोग से बीएसएनएल का ही एक अधिकारी और एक विद्यार्थी. बातचीत सुनकर पता लगा कि महबूबनगर में राज्‍य और केन्‍द्र सरकार के कार्यालयों में काम करने वाले अधिकतर लोग इस रेल से आवा-जाही करते हैं और बच्‍चे इंजीनियरिंग और मेडिकल की पढ़ाई के लिए जाते-आते हैं. रेल का माहोल पूरी तरह सरकारी. कुछ लोग अखबार पढ़ रहे थे. कुछ तेलंगाना-आन्‍ध्रा चर्चा. कुछ वेतन संशोधन की तो कुछ अपने-अपने साइड बिजनेस या फिर बच्‍चों की पढ़ाई-लिखाई व अपने ट्रान्‍सफर के विषयों पर बातचीत कर रहे थे. ट्रेन में एक बात दिखाई दी. बास और सब-आर्डिनेट यात्री और सहयात्री थे. इनके सुख-दुख एक समान होने के कारण व्‍यवहार में आदमीयत दिखाई दे रही थी. अन्‍यथा बॉसेज की गर्दने और भौंए अक्‍सर तनी हुई रहती हैं.  इनके लिए अक्‍सर अपना दुख, दुख होता है पर दूसरे का दुख अक्‍सर परेशानी अड़चन और बहाना. बीच-बीच में रामचन्‍द्रन जी से भी बात हो रही थी. वे भी अपने सात-आठ वर्ष महबूबनगर जाने-आने के अनुभव सुना रहे थे.

यह सब देख-दिखाते रेल में गरमा-गरम समोसे, जाम (अमरूद), शू-पालीशवाला, इडली-वडेवाला, चाय-काफी, पानीवाला अपने-अपने खास अंदाज में आते रहे और हम खुशबू सूंघते महबूबनगर पहुँच गए. शुरू में तो गाड़ी धीमे चली. लग रहा था देर हो जाएगी. पर स्‍टेशन पहुँचकर समय देखा तो 10.15 बजे थे. लोग खुश थे. समय से पहुँचने पर. फुटओवर ब्रिज पार कर बाहर निकले. गायत्री जी अगुवाई के लिए खड़ीं थी. गाड़ी में बैठे रोड पार बी एस एन कार्यालय था. ठंड कम हो चुकी थी. सो हम दोनों एक-एककर सबसे पहले बाथरूम जाकर अपने-अपने स्‍वेटर उतार सो-काल्‍ड खुद को गेस्‍ट बनाकर बाहर निकले और सीधे सम्‍मेलन कक्ष गए. समय हो चुका था. प्रोजेक्‍टर लगा था. इंतेजाम के मुताबिक पेनड्राइव से प्रेसेंटेशन और फाण्‍ट लोड कर चेक कर लिया. इतने में जीएम के यहॉं से मिलने का बुलावा आया. परिचय हुआ. जी एम देखते ही गैर-हिन्‍दी भाषी लगे. रंग-रूप से यहॉं के स्‍थानीय निवासी. परिचय हुआ. चाय आयी. बातचीत में खुले तो पता चला कि कन्‍याकुमारी से कश्‍मीर तक सभी बड़े शहरों में उनकी पोस्‍टिंग हो चुकी है. हम दोनों की प्रस्‍तुति के विषयों के बारे में जानकारी ली. मेरा विषय संसदीय राजभाषा समिति और उसकी प्रश्‍नावली था. इसीसे जुड़ा सन् 2008 के आखिर का श्रीनगर का वाकिया  उन्‍होंने सुनाते हुए बताया कि उनके वहॉं प्रधान रहते हुए समिति आयी थी. संयोजनकर्ता भी वही थे. और, श्रीनगर होने के कारण सुरक्षा इंतेजाम और अन्‍य व्‍यवस्‍थाएं कितनी मुश्‍किलें पैदा करती हैं इसका जिक्र  भी किया. कड़े सुरक्षा बंदोबस्‍त के बीच 13 एम पी सदस्‍य और सचिवीय सहयोगी पहुँचे जिनके इंतेजामात पर लाखों में खर्च आया और जिस दिन निरीक्षण बैठक हुई उसमें बी एस एन एल की ओर से कोई मुरलीधर नाम के वरिष्‍ठ अधिकारी मौजूद थे जिनके हस्‍ताक्षर प्रश्‍नावली में थे. बातचीत-चर्चा कई बातों पर हुई परन्‍तु ये अहिन्‍दी भाषी मुरलीधर के हस्‍ताक्षर देख अध्‍यक्ष महोदय बिफर गए और सख्‍त लहजे में पूछ बैठे कि आपने अपने हस्‍ताक्षर के आखरी तीन अक्षर अलग क्‍यों लिखे हैं और इनका क्‍या अर्थ होता है बताएं. उन्‍होंने murli dar लिखा था जिसमें अंतिम तीन अक्षरों से वहाँ के मुस्‍लिम बिरादरी की पहचान होती है जबकि धर dhar लिखने पर हिन्‍दु बिरादरी की. यह एक आम तरीका है नाम से बिरादरी पहचानने का. डार मुस्‍लिम बिरादरी तो धर समूचे पंडित बिरादरी (हिन्‍दू) की पहचान है. वे पूछ बैठे कि आप क्‍या हैं और क्‍या लिख रहे हैं. बड़ी मुश्‍किल से मुरलीधर महोदय ने उन्‍हें यह कहते हुए शांत किया कि दक्षिण प्रांत में यह इसी तरह स्‍पेल किया जाता है अत: यह मुरलीधर ही है मुरलीडार नहीं. तात्‍पर्य यह कि गए थे सीखाने, पहले सीखने मिल गया. अपनी तो चॉंदी हो गयी. शायद महबूबनगर नहीं जाता तो यह बात इतनी तफसील से जानने को नहीं मिलती. दूसरे वहॉं भोजन का इंतजाम. लगभग सभी मॉंसाहार का प्रयोग करते हैं और समिति के लिए शुद्ध शाकाहारी भोजन और बनानेवाला एक कड़ी चुनौती रही यह जानने को मिला. तीसरा जम्‍मू-श्रीनगर जाने वाले अपने परिवार को सुरक्षा कारणों से यहीं छोड़कर जाते हैं तथा ये सभी वहॉं के निवासियों के लिए केन्‍द्र सरकार के कारिंदे याने भारत सरकार के हैं, गैर-मुल्‍की. उनका फर्ज बनता है कि वे उनकी सेवा करें और जब वे रिवाल्‍वर-बन्‍दूकें लेकर कनपट्टी पर रख दें तो सह जाएं. माहोल काफी गंभीर हो चला था और कार्यशाला का समय भी.

इस बीच लगभग 11.30 बजे कार्यशाला आरंभ हुई. जी एम ने उद्घाटन में कई बातें दोहरायीं. इसके बाद मैंने और रामचन्‍द्रनजी ने एक-एककर अपने-अपने विषयों पर प्रस्‍तुति-सज्‍जित व्‍याख्‍यान दिये. बहुत ही अच्‍छे माहोल में बातचीत और चर्चा हुई. स्‍वयं जी एम महोदय विषय और प्रस्‍तुति से मुत्‍तासिर होकर पूरे 2.15 बजे तक बैठे रहे.  इसके बाद हमें भोजन के लिए एकमात्र उपलब्‍ध शाकाहारी होटल ले जाया गया. यहॉं बीएसएनएल की ओर से एक एजीएम और स्‍वयं गायत्री जी उपस्‍थित थीं. 


खाने के बाद दो घण्‍टे का समय बचा था. ए जी एम साहब ने कहा कि यहॉं पास में एक पर्यटन स्‍थल 'पिल्‍ललमर्री' है. देखने जाएंगे. मुझे कुछ नाम समझ में नहीं आया. रामचन्‍द्रनजी ने समझाया पर जब दो-तीन किलोमीटर दूर जगह पहुँचकर देखा तो एकदम सुख्‍ाद आश्‍चर्य हुआ. बच्‍चे वाला बड़ का पेड़.टिकट लेकर हम पेड़ देखने प्रवेश करे. पेड़ देखते ही एकदम बचपना दिल में कुलबुली करने लगा. इतना खूबसूरत और इतना बड़ा कि पेड़ पर चढ़ने, घॉंस पर बैठने-लोटने का मन करने लगा. लगभग चार एकड़ में फैला पेड़. यह सात सौ वर्ष पुराना वृक्ष है जिसकी हजारों शाखाएं झुकती हुई ज़मीन में समा गयीं और वहीं से एक-एक वृक्ष बनकर निकल पड़ीं. कई शाखाओं को काटकर पगडण्‍डी नुमा रास्‍ता बनाया गया है. मन तो कर रहा था कि वहीं दो-चार घण्‍टे लेट लूँ. काश गरमागरम खाना यदि बनाकर लाते और सब बैठकर खाते तो मज़े का अंदाजा लगाइए. पेड़ जैसे अपनी बाहें फैलाकर हमें बुला रहा था. अपनी आगोश में लेने पता नहीं कबसे खड़ा इंतज़ार कर रहा था. पूरा चमन खाली था. केवल हम चार लोग थे. गायत्री के कहने पर हमने कुछ तस्‍वीरें भी लीं. मैंने कहा मज़ा आ गया. यहॉं न आते तो यात्रा अधूरी रह जाती. इसी को लगे बाजू जमीन के टुकड़े पर छोटा डीर पार्क है. वह भी देखे. सब सूखा दिखाई दे रहा था. कहीं कुछ हरा-भरा नहीं था. एकदम चौंक गया. यह क्‍या दीवार के एक तरफ इतना हरा-भरा और घना पेड़ और दूसरी तरफ एकदम तड़की ज़मीन और खाने को तरसते तीन हीरण. बड़े खूबसूरत सिंगो वाले हीरण एकदम पास आकर आशा से देखने लगे कि हम कुछ खाने के लिये लाये हैं. यदि पता होता तो अवश्‍य ले जाते. बहुत दु:ख हुआ उनकी ऐसी हालत देखकर. न उनके लिये वहॉं खाने का इंतजाम दिखा न पानी का. बेचारे बेजु़बान जानवर. इसीके सामने एक बड़े चबूतरे पर तीन मंदिर और एक विशाल नंदी रखा था. देखा, बड़ा खूबसूरत नंदी था 13वीं सदी का. लगा कि कोई शैवमत के राजा ने बनवाया होगा. इस बीच में रामचन्‍द्रन जी इसी चबूतरे की सीढियों पर बैठ गये थे. 74 बरस की उम्र में सुबह से दो बार फुट ओवर ब्रिज चढ़ना-उतरना. दो बार बीएसएनएल की दूसरी मंजिल पर जाना-आना. एक घण्‍टे से ज्‍यादा खड़े होकर लेक्‍चर देना. मुझे सीखा रहा था कि कमीटमेंट और सीन्‍सियारिटी के आगे शरीर भी कुछ नहीं कर सकता. भारी-भरकम शरीर और पैर में राड. कहीं भी कोई शिकन और थकन नहीं. पूरी ऊर्जा के साथ वे हमारे संग चल रहे थे. हमने कुछ तस्‍वीरें सेल में कैद की और इसके बाद चल पड़े बी एस एन एल कार्यालय जहॉं के परिसर के गेस्‍ट हाउस में आधा-घण्‍टे रुके और तैयार होकर ट्रेन के लिए चल पड़े. इस बीच में रास्‍ते में हमने एक-एक कप चाय पी. एक सरकारी जूनियर कालेज से छूटकर बच्‍चे बाहर आ रहे थे. उनके कपड़े, चाल-ढाल से गरीबी, पिछड़ापन झॉंक रहा था कि जिस जिले से कृष्‍णा नदी बहती है उसके पाटों पर बसा नगर गरीब और सूखा है. क्‍या यही तेलंगाना है, बरसों की राजनीतिक स्‍वार्थपरता का परिणाम है या सबकी अदूरदर्शिता का परिणाम. कॉलेज में पड़ते हुए हम एक-दूसरे को मूर्ख या जाहिल ठहराने के लिए कहा करते थे कि 'ये लाल बस से उतरा है इसे क्‍या पता या पालमूर से आया है'.
घर आकर जब नेट पर महबूबनगर के बारे में पड़ा तो पता चला कि इसीका एक नाम पालमूर भी है.
[formerly known as "Rukmammapeta" and "Palamooru". The name was changed to Mahabubnagar on 4th December 1890, in honour of Mir Mahbub Ali Khan Asaf Jah VI, the Nizam of Hyderabad (1869-1911 AD). It has been the headquarters of the district since 1883 AD.  The Mahabubnagar region was once known as Cholawadi or the land of the Cholas'.  It is said that the famous Golconda diamonds including famous "KOHINOOR" diamond came from Mahabubnagar district.] 


रास्‍ते में बताया गया कि यहीं से कुछ दूरी पर अलमपुर स्‍थान है जहॉं लगभग आठ-नौ सौ बरस पुराने चालुक्‍य/चोल वंश के समय बनाये गये ब्रह्मा जी के नौ मंदिर हैं.  प्राचीन, खूबसूरत और विशाल मंदिर.  कहा जाता है कि भारत में केवल दो जगह ब्रह्मा जी के मंदिर हैं एक पुष्‍कर में और दूसरा यहॉं.  अब इन्‍तज़ार है फिर से हैदराबाद से महबूबनगर और कर्नूल तक यात्रा कर भ्रमण करने का ताकि मैं और मेरे परिवार सहित सभी संगी-साथी सब देख-सुन सके. राजभाषा हमेशा सीखाती रही है और सीखाती रहेगी.

1 comment:

  1. atyant rochak aur jaankaareepoorna hai aapka yah yatravritta.maza aa gaya.

    ReplyDelete