मनोज कुमार जी, पहले तो क्षमा चाहूँगा कि पिछले एक वर्ष से आपके ब्लाग से गायब हूँ. पढ़ना जारी है परन्तु संपर्क न हो पाया.
कुछ कार्य जीवन में ऐसे होते हैं जिससे करने वाले धन्य और कृतार्थ महसूस करते हैं. शास्त्री जैसे उद्भट शख्सियत से मिलकर और उन्हें हम सबसे मिलाकर आप कृतार्थ हो गये हैं. आपके समस्त परिजन और करण जी बधाई के हक़दार हैं. मैं व्यक्तिगत रूप से आपका आभार व्यक्त करता हूँ कि आपका यह साहित्येतिहासिक कार्य आने वाले समय में अपनी महती भूमिका निभायेगा.
कुछ लोग अपने जीवन, विचार और व्यवहार से ऋषित्व को उपलब्ध होते हैं. विश्वास जानिये, शास्त्री जी को पढ़कर ऐसा ही लगा जैसे मैं विनाबा भावे और गॉंधी जी को देख रहा हूँ. वैसे बिहार की मिट्टी ही कुछ ऐसी है कि एक से एक सामाजिक, साहित्यक, राजनैतिक और ऐतिहासिक महापुरूष जन्म लेते रहे हैं. बाबू राजेन्द्र प्रसाद हों या ला़.ब.शास्त्री या जानकीवल्लभ शास्त्री जी, ऐसा लगता है 700 बी सी में नालन्दा में बने दुनिया के पहले विश्वविद्यालय की विरासत को क़ायम रखने ये युगपुरूष होते आ रहे हैं.
ये भी उतना ही सच है कि धिक्कार है इस व्यवस्था और इसके शासकों पर कि वे अपने युगपुरषों का ध्यान रखना और सम्मान करना नहीं जानती. दुनिया के शासकों ने सुकरात के पहले से अब तक सबके साथ यही व्यवहार किया है. जो शासक की गाते हैं वे इनाम पाते हैं. पद्मश्री ठुकराना दर्शाता है कि शास्त्री जी जीवन मूल्यों और नैतिकता की कितनी कद्र करते हैं. मुझे इन क्षणों में वाजपेयी जी कि वह पंक्तियॉं याद आ रही हैं 'हार नहीं मानूँगा, रार नहीं ठानूँगा, काल के कपाल पर लिखता हूँ, मिटाता हूँ, गीत नया गाता हूँ......'
यदि उनके रचना संसार से भी अंश ब्लाग पर पढ़ने को मिलें तो श्रेयस्कर होगा.
पुन: कोटि-कोटि बधाई़्
होमनिधि शर्मा
कुछ कार्य जीवन में ऐसे होते हैं जिससे करने वाले धन्य और कृतार्थ महसूस करते हैं. शास्त्री जैसे उद्भट शख्सियत से मिलकर और उन्हें हम सबसे मिलाकर आप कृतार्थ हो गये हैं. आपके समस्त परिजन और करण जी बधाई के हक़दार हैं. मैं व्यक्तिगत रूप से आपका आभार व्यक्त करता हूँ कि आपका यह साहित्येतिहासिक कार्य आने वाले समय में अपनी महती भूमिका निभायेगा.
कुछ लोग अपने जीवन, विचार और व्यवहार से ऋषित्व को उपलब्ध होते हैं. विश्वास जानिये, शास्त्री जी को पढ़कर ऐसा ही लगा जैसे मैं विनाबा भावे और गॉंधी जी को देख रहा हूँ. वैसे बिहार की मिट्टी ही कुछ ऐसी है कि एक से एक सामाजिक, साहित्यक, राजनैतिक और ऐतिहासिक महापुरूष जन्म लेते रहे हैं. बाबू राजेन्द्र प्रसाद हों या ला़.ब.शास्त्री या जानकीवल्लभ शास्त्री जी, ऐसा लगता है 700 बी सी में नालन्दा में बने दुनिया के पहले विश्वविद्यालय की विरासत को क़ायम रखने ये युगपुरूष होते आ रहे हैं.
ये भी उतना ही सच है कि धिक्कार है इस व्यवस्था और इसके शासकों पर कि वे अपने युगपुरषों का ध्यान रखना और सम्मान करना नहीं जानती. दुनिया के शासकों ने सुकरात के पहले से अब तक सबके साथ यही व्यवहार किया है. जो शासक की गाते हैं वे इनाम पाते हैं. पद्मश्री ठुकराना दर्शाता है कि शास्त्री जी जीवन मूल्यों और नैतिकता की कितनी कद्र करते हैं. मुझे इन क्षणों में वाजपेयी जी कि वह पंक्तियॉं याद आ रही हैं 'हार नहीं मानूँगा, रार नहीं ठानूँगा, काल के कपाल पर लिखता हूँ, मिटाता हूँ, गीत नया गाता हूँ......'
यदि उनके रचना संसार से भी अंश ब्लाग पर पढ़ने को मिलें तो श्रेयस्कर होगा.
पुन: कोटि-कोटि बधाई़्
होमनिधि शर्मा
Gapshap aanand dayak hai..aabhar
ReplyDelete