प्रोफेसर ऋषभदेव शर्मा से बात करने और उनकी कविता या रचनाएँ पढ़ने में कोई अंतर नहीं है। जब भी उनसे बात होती है, वे नपे-तुले अंदाज़ और सीधे तरीके से अपनी बात रखते हैं चाहे विषय कोई भी हो। लेखनी में तो सपाट बयानी और तेवर देखते ही बनते हैं। उनकी तेवरियाँ पढ़कर तो उन्हे "आज के क्रांतिवीर" कहें तो गलत नहीं लगेगा। गद्य हो या पद्य उनके विचार और भाषा का संयोजन जैसे पाठक के लिए तस्वीर बन कर दिखाई देते हैं। अधिकतर लेखक और रचनाकार भाषा में उलझकर रह जाते हैं। लेकिन ऋषभदेव जी के साथ ऐसा नहीं है। उनका व्यक्तित्व, विचार और भाषा एक साथ चलते हैं। हाल ही में भेजी हुई उनकी यह रचना अपने ब्लॉग पर रखते हुए मुझे खुशी हो रही है :
कार्यालय आकर जैसे ही मेल देखा, आपका लिंक मिला. वास्तव में आप सृजन के टेकधारी हैं. कविता पढ़ते-पढ़ते दुष्यंत कुमार की बापू पर लिखी रचना 'मैं फिर जनम लूँगा.....' और बच्चन तथा निराला की बीच-बीच में से कुछ पंक्तियॉं याद आती रहीं. गांधीजी की पुण्य तिथि पर यह रचना पढ्ना मेरे लिए उन्हे याद करते हुए अपने आप को आईने में देखने का एक मौका साबित हुआ। एक मुक्कमिल रचना जिसमें सृष्टि के क्रम से जुड़ा सब कुछ है. एक ब्रम्हा तो एक शिव, एक सलिला तो एक ज्वालामुखी, एक पावक तो एक पर्वत और इन सबके अलावा हमेशा की तरह एक 'तू' तो और 'मैं' है या वाजपेयी जी की ज़ुबान में कहूँ तो 'हार नहीं मानूँगा, रार नहीं ठानूँगा, काल के कपाल पर, लिखता हूँ, मिटाता हूँ, गीत नया गाता हूँ..........' जब कविता पढ़कर लिखने का मन करे तो सच्ची और सबकी कविता होती है.
बार-बार पढ़ने और हमेशा याद रखने लायक सर्जन के लिए पुन: आभार,
घर आकार फिर पढ़ा और अपनी भावनाओं सहित इसे पोस्ट कर रहा हूँ।
http://rishabhakeekavitaen.blogspot.com/2011/01/blog-post_31.html
होमनिधि शर्मा
होमनिधि शर्मा
आदरणीय भाई,
ReplyDeleteइतना मान मत दीजिए कि नज़र लगने का डर लगने लगे!
आपका यह अहेतुक स्नेह मेरी संपत्ति है!!
बस और क्या कहूँ!!!
सुंदर कविता के लिए आज के क्रांतिवीर को नमन :)
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