Tuesday, February 1, 2011

नव वर्ष की शुरूआत मैं सृजन की टेक धारे हूँ ............... से

प्रोफेसर ऋषभदेव शर्मा से बात करने और उनकी कविता या रचनाएँ पढ़ने में कोई अंतर नहीं है। जब भी उनसे बात होती है, वे नपे-तुले अंदाज़ और सीधे तरीके से अपनी बात रखते हैं चाहे विषय कोई भी हो। लेखनी में तो सपाट बयानी और तेवर देखते ही बनते हैं। उनकी तेवरियाँ पढ़कर तो उन्हे "आज के क्रांतिवीर" कहें तो गलत नहीं लगेगा। गद्य हो या पद्य उनके विचार और भाषा का संयोजन जैसे पाठक के लिए तस्वीर बन कर दिखाई देते हैं। अधिकतर लेखक और रचनाकार भाषा में उलझकर रह जाते हैं। लेकिन ऋषभदेव जी के साथ ऐसा नहीं है। उनका व्यक्तित्व, विचार और भाषा एक साथ चलते हैं। हाल ही में भेजी हुई उनकी यह रचना अपने ब्लॉग पर रखते हुए मुझे खुशी हो रही है : 



सोमवार, ३१ जनवरी २०११


मैं सृजन की टेक धारे हूँ

तुम सदा आक्रोश में भरकर
               मिटाने पर उतारू हो;
मैं सृजन की टेक धारे हूँ.


पत्थरों में गुल खिलाए
पानियों में बिजलियाँ ढूँढीं,
रेत से मीनार चिन दी
बादलों को चूमने को,
सिंधु को मैंने मथा है
और अमृत भी निकाला.
तुम सदा से बेल विष की ही
               उगाने पर उतारू हो,
मैं सृजन की टेक धारे हूँ.


o
मैं धरा को बाहुओं पर तोलता हूँ,
हर हवा में स्नेह-सौरभ घोलता हूँ;
मैं पसीना नित्य बोता हूँ,
स्वर्ण बन कर प्रकट होता हूँ;
आग के पर्वत बनाए पालतू मैंने,
हिमशिखर पर घर बना निश्चिंत सोता हूँ.


और तुम चुपचाप आकर
भूमि को थर-थर कँपाते,
भूधरों को ही नहीं,
नक्षत्र-मंडल को हिलाते.
तुम विनाशी शक्तियों के पुंज हो;
तुम कभी दावाग्नि, बड़वानल कभी;
तुम महामारी, महासंग्राम तुम.
तुम सदा से मृत्यु का जादू
                जगाने पर उतारू हो,
मैं सृजन की टेक धारे हूँ.


o
लोग रोते हैं बिलख कर
                  तो तुम्हें संतोष मिलता.
डूबती जब नाव, मरते लाख मछुआरे,
                       तुम्हें संतोष मिलता.
आदमी जब ज़िंदगी की भीख माँगे,
हादसा जब आदमी को कील टाँगे;
हर दिशा में रुदन-क्रंदन,
आदमी की शक्तियों का
                        शक्ति भर मंथन,
                 तब तुम्हें संतोष मिलता.


बालकों के आँसुओं पर मुस्कराते हो,
औरतों की मूर्च्छना पर राग गाते हो;
झोंपड़ी की डूब पर आलाप भरते हो,
लाख लाशों को गिरा शृंगार करते हो;
सोचते हो आज तुम जीते-
                      हराया आदमी को,
सोचते हो आज तम जीता -
                      हराया रोशनी को.


पर नहीं! तुम जानते हो -
मैं सदा ही राख में से जन्म लेता हूँ,
ध्वंस के सिर पर उगाता हूँ नई कलियाँ;
दर्द हैं, संवेदना, अनुभूतियाँ हैं पास मेरे,
चीर कर अंधड़, बनाता हूँ नई गलियाँ.


ओ प्रलय सागर!
तुम्हारी रूद्र लहरों को प्रणाम!
काल-जिह्वा-सी
'सुनामी' क्रुद्ध लहरों को प्रणाम!
तुम कभी नव वर्ष में भूकंप लाते हो,
तो कभी वर्षांत में तांडव मचाते हो!
तुम महा विस्तीर्ण, अपरंपार हो, निस्सीम हो!
जानता हूँ मैं कि छोटा हूँ बहुत ही तुच्छ हूँ,


पर तुम्हारे सामने
मैं सिर उठाए फिर खड़ा हूँ;
हूँ बहुत छोटा भले
पर मौत से थोड़ा बड़ा हूँ.
तुम सदा रथचक्र को उलटा
                चलाने पर उतारू हो,  मैं सृजन की टेक धारे हूँ.




कार्यालय आकर जैसे ही मेल देखा, आपका लिंक मिला. वास्‍तव में आप सृजन के टेकधारी हैं. कविता पढ़ते-पढ़ते दुष्‍यंत कुमार की बापू पर लिखी रचना 'मैं फिर जनम लूँगा.....' और बच्‍चन तथा निराला की बीच-बीच में से कुछ पंक्‍तियॉं याद आती रहीं. गांधीजी की पुण्य तिथि पर यह रचना पढ्ना मेरे लिए उन्हे याद करते हुए अपने आप को आईने में देखने का एक मौका साबित हुआ।  एक मुक्कमिल रचना जिसमें सृष्‍टि के क्रम से जुड़ा सब कुछ है. एक ब्रम्‍हा तो एक शिव, एक सलिला तो एक ज्‍वालामुखी, एक पावक तो एक पर्वत और इन सबके अलावा हमेशा की तरह एक 'तू' तो और 'मैं' है या वाजपेयी जी की ज़ुबान में कहूँ तो 'हार नहीं मानूँगा, रार नहीं ठानूँगा, काल के कपाल पर, लिखता हूँ, मिटाता हूँ, गीत नया गाता हूँ..........' जब कविता पढ़कर लिखने का मन करे तो सच्‍ची और सबकी कविता होती है.
बार-बार पढ़ने और हमेशा याद रखने लायक सर्जन के लिए पुन: आभार, 

घर आकार फिर पढ़ा और अपनी भावनाओं सहित इसे पोस्ट कर रहा हूँ। 
http://rishabhakeekavitaen.blogspot.com/2011/01/blog-post_31.html
होमनिधि शर्मा
३१ जनवरी २०११ ९:४७ पूर्वाह्न    

2 comments:

  1. आदरणीय भाई,
    इतना मान मत दीजिए कि नज़र लगने का डर लगने लगे!

    आपका यह अहेतुक स्नेह मेरी संपत्ति है!!
    बस और क्या कहूँ!!!

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  2. सुंदर कविता के लिए आज के क्रांतिवीर को नमन :)

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