Wednesday, February 16, 2011

प्रधानमंत्री बेबाक ......... 'हम भी मुँह में ज़बान रखते हैं'

....... कार्यालय से लौटा तो आज प्रधानमंत्री जी द्वारा बुलायी गयी प्रेस कॉन्फ्रेंस नहीं देख पाने की बेचैनी थी। सात बजे के एन डी टी वी के समाचार देखने का इंतेजार कर रहा था। और सात बजे। समाचार में पी एम के बारे में की गई रिपोर्टिंग से संतुष्टि नहीं हुई। लगा कि पूरी कॉन्फ्रेंस देखनी चाहिये। संयोग से डीडी न्यूज़ पर रिकॉर्डिंग आ रही थी सो देखी।
स्कूल के समय से अब तक देश के पीएम के कार्यकाल याद करने पर वाजपेयी जी और अब मनमोहन सिंह जी ही अपने किए गए काम के लिए याद आते हैं (और राष्‍ट्रपति के रूप में डॉ कलाम. कारण इन तीनों के कोई व्‍यक्‍तिगत स्‍वार्थ नहीं रहे और निजी स्‍वार्थों के लिए कभी इन्‍होंने अपने पदों का दुरपयोग नहीं किया. इन तीनों के समय देश की गरिमा और साख पूरे विश्‍व में बढ़ी और बनी. इनका योगदान सर्वस्‍व सराहा गया. पूरे विश्‍व में ये सम्‍माननीय आज भी बने हुए हैं)  इन्दिरा जी, राजीव गांधी, नरसिम्हा राव, चंद्रशेखर जी, वीपी सिंह, देव गौड़ा, आई के गुजराल सभी याद हैं पर पूरे कार्यकाल के कामकाज के आधार पर नहीं पर कुछ खास कामों के लिए। इसमे दूसरों कि अपनी-अपनी राय हो सकती है।
मनमोहन सिंह जी जबसे प्रधानमंत्री बने हैं तब से उनसे एक परफारमर की अपेक्षा बनी और उम्‍मीद जागी कि अब जरूर कुछ अच्‍छा होगा. उनका पहला कार्यकाल बहुत बेहतरीन रहा और गॉंधी परिवार के बाहर दूसरी बार प्रधानमंत्री बनने वाले वे दूसरे व्‍यक्‍ति बने. दूसरे कार्यकाल से और भी उम्‍मीदे बँध गयीं.अंग्रेजी की कहावतानुसार 'स्‍पीच इस गुड बट साइलेंस इस गोल्‍डन' प्रिंसिपल पर चलते हुए वे कलम और शासन चलाते रहे. मीडिया, पार्टियॉं, विपक्ष  उन्‍हें कमजोर, कटपुतली, निष्‍क्रिय, लाचार प्रधानमंत्री कहते रहे. पर, वे पूरी शालीनता के साथ शॉंत-चित्‍त रखते हुए काम करते रहे. न्‍यूक्‍लियर समझौता, सर्वशिक्षा अधिकार, नरेगा, सेना का आधुनिकीकरण, पे रिविजन आदि... कई प्रमुख लिये गये निर्णयों पर अडिग रहते हुए देश के साफ छविदार नेता बनने में  वे कामयाब रहे.

दूसरी पारी के चलते हाल ही में सामने आये घोटालों, भ्रष्‍टाचार, तेलंगाना, आतंकवाद, नक्‍सलवाद, माओवाद, महँगाई, न्‍याय प्रणाली की टिप्‍पणियों, प्राकृतिक विपदाओं आदि से काफी समय से घिरे मनमोहन सिंह ने आज चुप्‍पी तोड़ ही दी. संसद का एक पूरा सत्र जे पी सी की मॉंग की बली चढ़ गया. देश और जनता का कुछ फायदे का काम नहीं हो पाया. मुझे भी लग रहा था कि वे आखिर बोल क्‍यों नहीं रहे. खैर,  वे आज बोले. सुनकर प्रसन्‍नता हुई. लगभग 16 इलेक्‍ट्रानिकी चैनल के संपादकों के साथ खुशनुमा माहोल में किये सवाल-जवाब सुनकर लगा कि 80 की उम्र के करीब पुहुँचकर वे और भी सशक्‍त और मजबूत हो गये हैं. उनसे 2 जी स्‍पेक्‍ट्रम, ईसरों के देवास और एन्‍थ्रेक्‍स का मामला, सी ए जी, महँगाई, प्रशासन में कामकाज के तरीकों की चूक, पीएमओ द्वारा सूचनाओं की जानकारी लीक किए जाने संबंधी, आंतरिक और बाहरी कलह, विपक्ष के हमलों और जेपीसी की मॉंग, इन सबकी नैतिक जिम्‍मेदारी, तेलंगाना, माओवाद, उल्‍फा, तमिलनाडु, केरल में होने वाले आगामी चुनावों, केन्‍द्रीय मंत्रियों के डिस्‍क्रिएशनरी पॉवर्स को समाप्‍त करने, आने वाले बजट, क्रिकेट वर्ल्‍ड कप सहित दुनिया में तेजी से बदल रहे राजनीतिक घटनाक्रम ट्यूनिशिया, मिस्र, यमन, ईरान आदि के भारत पर असर से जुड़े सवालों का उन्‍होंने बड़े ही बेबाकी और साफ मन से जवाब दिया.  मसलन कि इन पूरे मामलों की क्‍या आप नैतिक जिम्‍मेदारी लेते हैं. क्‍या आप से इन सब मामलों में कहीं न कहीं कोई चूक हुई, इन घटनाओं पर शर्मिंदगी महसूस होती है आदि...  इस पर उन्‍होंने बड़े साफ मन से कहा कि हॉं मुझसे चूक हुई होगी लेकिन इतनी नहीं जितनी कि आप लोग बता रहे हैं. नैतिक जिम्‍मेदारी लेने से भी इन्‍कार नहीं किया और कहा कि जो कुछ भी हुआ उसे नहीं होना चाहिए था लेकिन इसका अर्थ ये नहीं कि हर बार पद छोड दिया जाए और हर छ: माह में चुनाव कराये जाएं. मनमोहन जी के साथ बहुत ही तगड़े और अनुभवी नेता हैं. प्रणव मुखर्जी, ए के अंटनी, वि़ मोइली, चिदंबरम, कपिल सिब्‍बल, जयपाल रेड्डी, पुरंदेश्‍वरी, प्रफुल पटेल आदि जो महत्‍वपूर्ण पदों पर हैं. कुछ एस एम कृष्‍णा, विलासराव देशमुख और शरत पवार जैसे लोग भी हैं जिनकी जगह दूसरे नेता भी हो सकते हैं. यहीं आकर उन्‍होंने यू पी ए की मजबूरी का सहारा लिया. अर्थात इन्‍हें गठबन्‍धन की राजनीति के कारण सरकार में रखना मजबूरी है जिसे विपक्ष और अन्‍य इनकी लाचारी समझते हैं (भूलना नहीं चाहिए कि बी जे पी सरकार के एन डी ए के 27 घटक थे जिनमें से अधिकतर सरकार में शामिल थे.) पर इससे संबंधित एक खास बात उन्‍होंने कही कि सरकार में बहुत कुछ उनके मन-माफि़क नहीं है पर चलाना जरूरी है. आज तक किसी प्रधानमंत्री ने सार्वजनिक तौर पर इतना खुलकर नहीं कहा जिससे पता चलता है कि वे चीज़ों से अन्‍जान नहीं है और समय आने पर जो भी होगा, दुरुस्‍त करने से चूकेंगे नहीं.
दुनिया के राजनीतिक परिदृश्‍य में, किसी भी देश में प्रजातांत्रिक ढंग से दोबारा चुनी गयी सरकार के मुखिया बनने पर राष्‍ट्रप्रमुखों को एक सी परिस्‍थितियों का सामना करना पड़ा है.  मनमोहन जी भी इससे जुदा नहीं हैं. प्रधानमंत्री को सवालों के जवाब देते हुए सुनते और यह सब लिखते हुए मुझे 'वक्‍त' फिल्‍म का एक डायलाग याद आ रहा है कि 'चुनॉय सेठ, जिनके घर शिशे के हुआ करते हैं वे दूसरों के घर पर पत्‍थर मारा नहीं करते'.....मनमोहन जी पर उम्र हावी नहीं है बल्‍िक उन्‍होंने एक पूछे गये प्रश्‍न के जवाब में मेच्‍यूर्ड दार्शनिक अंदाज में कहा कि 'एक सिविल सर्वेण्‍ट से वित्‍त मंत्री और अब प्रधानमंत्री बनने में बहुत अंतर है जहॉं बहुत कुछ आपके मन मुताबिक नहीं हो सकता है फिर भी सबको साथ लेकर सरकार और देश चलाना कर्तव्‍य है जिसका पालन करते हुए मैं रोज सीख रहा हूँ. ऐसा कहते समय कोई शर्मिंदगी नहीं दिखाई दी बल्‍कि विनम्रता, साफ़गोई और सख्‍ती में कोई कमी नहीं दिखाई दी. उनके इस कान्‍फ्रेंस के कई मतलब निकाले जा सकते हैं जैसे 'फेस वाश', छवि सुधार (फेस करेक्‍शन) आदि पर देश के सामने आकर जिम्‍मेदारीपूर्वक खुले बयान देना उनकी प्रतिबद्धता और साहस को दर्शाता है जिस पर हमें संदेह नहीं करना चाहिए. देश एक मजबूत और समझदार शासक के हाथ में है यह बात आज पुन: लगी.  

कहना और भी है. 
यह साक्षात्‍कार अवश्‍य देखें रिपिट टेलिकास्‍ट या नेट पर.  

होमनिधि शर्मा

2 comments:

  1. ‘जिस पर हमें संदेह नहीं करना चाहिए. ....’
    क्यों न करें? एक अधिकारी को मैं इमानदार हूं चिल्लाना काफी नहीं होता, अपने मातहत की बेईमानी को रोकना भी उसका दायित्व होता है ॥

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  2. नमस्कार सर.
    आज आपका ब्लॉग देखने का मौका मिला. आप अच्छा लिखते हैं.विषयों का चयन भी अच्छा है.

    गठबंधन सरकार में मजबूरी ही मजबूरी दिखाई देती है. और,ऐसी स्थिति में मन-माफिक नहीं होने पर भी अपनी गद्दी संभालने के लिए सबकी जी हुजूरी करनी पड़ती है. जो व्यक्ति चीजों से अनजान नहीं है लेकिन धृतराष्ट्र की तरह दुर्योधन की महत्वाकांक्षाओं के सामने मौन धारण करने वाला हो वह समय आने पर भी कुछ दुरुस्त कर पायेगा? संदेह होता है.
    -बालाजी

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